सोसाइटी साल दर साल एडवांस हो रही है. लड़कियां हर क्षेत्र में टॉप कर रही हैं. इन सुखद कथनों के बीच UPSC CSE के आंकड़े हमें ठहरकर सोचने को कह रहे हैं. दुनिया की सबसे कठिनतम परीक्षा UPSC CSE के बीते 20 साल के आंकड़े सांप-सीढ़ी जैसे हैं. जिसमें पहले के दस साल में लड़कियां भले ही कम संख्या में परीक्षा दे रही थीं लेकिन सक्सेस रेट ज्यादा था.
अब जब इम्तेहान देने वाली लड़कियां सात गुना ज्यादा हैं, तब उनका सक्सेस रेट नीचे क्यों आ रहा है. सक्सेस रेट का ग्राफ नीचे खिसकने की वजहें क्या हैं. इन दस सालों में ऐसा क्या हुआ कि IAS-IPS की दौड़ में ज्यादा लड़कियों ने किस्मत आजमाई लेकिन सफलता कम को मिली. हमने यहां अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों से बात करके इसके पीछे के कारणों का विश्लेषण करने का प्रयास किया है.
पहले, एक नजर आंकड़ों पर-
साल 2000 में यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा (CSE) में 85 महिला उम्मीदवारों ने उत्तीर्ण किया था. वहीं साल 2019 में सिविल सर्विस पाने वाली लड़कियां 220 थीं. यह तब था जब 2001 की तुलना में 20 साल बाद यूपीएससी परीक्षा में भाग लेने वाली लड़कियों की संख्या सात गुना बढ़ी थी. साल दर साल बढ़ी छात्राओं की संख्या के बावजूद 2019 में महिला उम्मीदवारों की सफलता दर घटकर 0.12 प्रतिशत हो गई है.
इन 10 सालों में सक्सेस ग्राफ बढ़ा
| साल | महिला उम्मीदवारों की संख्या | सक्सेस रेट (% में) |
| 2001 | 47392 | 1.89 |
| 2002 | 61561 | 0.93 |
| 2003 | 68886 | 1.08 |
| 2004 | 72981 | 1.28 |
| 2005 | 74939 | 1.23 |
| 2006 | 87624 | 1.57 |
| 2007 | 77073 | 2.48 |
| 2008 | 78782 | 3.07 |
| 2009 | 97793 | 2.92 |
| 2010 | 142606 | 2.26 |
2011 से गिरने लगा सक्सेस ग्राफ
| साल | महिला उम्मीदवारों की संख्या | सक्सेस रेट (% में) |
| 2011 | 135075 | 2.55 |
| 2012 | 146206 | 2.68 |
| 2013 | 218355 | 2.33 |
| 2014 | 281203 | 1.88 |
| 2015 | 277116 | 1.35 |
| 2016 | 342983 | 1.56 |
| 2017 | 290101 | 1.32 |
| 2018 | 324125 | 0.97 |
| 2019 | 367085 | 0.86 |
लड़कियों पर फैमिली प्रेशर ज्यादा- IAS हिमाद्री कौशिक
UPSC CSE परीक्षा में 97वीं रैंक पाने वाली साल 2019 बैच की आईएएस हिमाद्री कौशिक इसके पीछे कई वजहें गिनाती हैं. हिमाद्री ने aajtak.in से बातचीत में कहा कि मैं सबसे पहले तो यह कहूंगी कि मैं स्टेटिस्टिक्स (सांख्यिकी) की छात्रा रही हूं. इसलिए मैं आंकड़ों को समझने की कोशिश करती हूं. बीस साल पहले यूपीएससी परीक्षा में कम लड़कियां हिस्सा लेती थीं तब उनका सक्सेस रेट रेशियो अधिक था, लेकिन धीरे धीरे जब लड़कियों का पार्टिशिपेशन बढ़ा, सक्सेस रेट उस अनुपात में कम होने की वजह ये भी हो सकती है क्योंकि उस अनुपात में यूपीएससी की सीटें बहुत नहीं बढ़ीं. बल्कि धीरे धीरे कंपटीशन ज्यादा बढ़ा. आमतौर पर यूपीएससी की फील्ड पुरुष उम्मीदवारों के वर्चस्व वाली रही. फिर भी इस परीक्षा में धीरे-धीरे महिलाओं की भागीदारी बहुत बढ़ी है, लेकिन मेरे नजरिये से 20 साल में भी उस आदर्श गति से नहीं बढ़ी है जितनी बढ़नी चाहिए.
हिमाद्री कहती हैं कि इसके पीछे की वजहों की बात करें तो आज भी लड़कियों के लिए इस कठिनतम परीक्षा की राह आसान नहीं है. लड़कों की तुलना में उन पर फैमिली प्रेशर कहीं ज्यादा होता है. लड़कियों को तैयारी के लिए घरवाले पर्याप्त टाइम नहीं देते. लोग सोचते हैं कि ये कम टाइम में हो जाए. लोग अक्सर पारिवारिक रीजन से बेटी की तैयारी या पढ़ाई छुड़वा देते हैं. वहीं, शादी के बाद लड़कियों के लिए तैयारी कर पाना बहुत ही दुष्कर हो जाता है. बहुत कम लड़कियों को ही शादी के बाद पढ़ाई का माहौल या अवसर मिलते हैं.
लड़कियों पर करियर बनाने का प्रेशर ज्यादा
डीयू के जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज में शिक्षिका व समाजशास्त्री प्रो राजलक्ष्मी ने aajtak.in से कहा कि देखिए समाज के नजरिये में भी बदलाव हुआ है. अगर 20 साल पहले की बात करें तो IAS परीक्षा में जब कम लड़कियां पार्टिशिपेट करती थीं तो इंटरव्यू राउंड में निर्णायकों पर इसका एक अलग असर पड़ता था. लेकिन बीते दस साल से छात्राओं की सहभागिता बढ़ने से समाज में कंपटीशन के स्तर पर बराबरी की भावना बढ़ी है. अब निर्णय के स्तर पर उस तरह के भाव नहीं आते कि अरे लड़की है, कितनी मेहनत से यहां आई है. लड़कियों के सक्सेस रेट का ग्राफ गिरने की दूसरी वजह की बात करें तो लड़कियों का करियर ओरिएंटेड होना भी इसकी वजह है.
पहले लड़कियां साइंस विषयों से ज्यादा आर्ट स्ट्रीम को प्रिफर करती थीं. आर्ट स्ट्रीम से पढ़ने वालों के लिए यूपीएससी को लक्ष्य बनाना आसान रहता है. वहीं, साइंस या कॉमर्स स्ट्रीम से पढ़ने वाली लड़कियां यूपीएससी की तैयारी के साथ साथ दूसरे कॅरियर ऑप्शंस को भी दिमाग में रखती हैं. वो यूपीएससी की परीक्षा को पहली बार ट्रायल तो दूसरी बार तैयारी करके लक मानकर करेंगी फिर भी कहीं सेलेक्शन न हुआ तो वो साइंस कॉमर्स से जुड़े दूसरे कोर्स करती हैं ताकि जल्दी उम्र में करियर बन जाए.
हमें IAS बनने के लिए नहीं पाला गया
जेएनयू से पढ़ी दीपा सिंह वर्तमान में चमोली जिले के एक कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. दीपा ने कहा कि इसी दस साल के दौरान मैंने भी यूपीएससी की परीक्षा दी, लेकिन मैंने इसे सीरियस लेकर नहीं दिया. पता नहीं क्यों मुझे हमेशा लगा कि ज्यादातर मध्यमवर्गीय परिवार की लड़कियों की परवरिश कभी आईएएस आईपीएस अफसर बनने के लिए नहीं की जाती. लड़कियों को अच्छी बहू, अच्छी पत्नी अच्छी मां बनने के लिए प्रेरित किया जाता है.
लड़कियों में इस परीक्षा को निकालने के लिए उस लेवल का आत्मविश्वास नहीं आ पाता जो सेम आर्थिक-सामाजिक परिवेश से आए लड़कों में होता है. समाज की यह सोच कि लड़कियां निर्णायक पदों पर बेहतर साबित नहीं हो सकतीं, क्योंकि उनकी निर्णय लेने की क्षमता कम होती है. ये सब लड़कियों के अधोमस्तिष्क में चलता है. इसलिए भले ही वो ये परीक्षा देती हैं लेकिन पूरे आत्मविश्वास से परीक्षा देने वाली लड़कियां बहुत कम होती हैं.