दिल्ली सरकार के नए फीस रेगुलेशन बिल को लेकर अभिभावकों में उम्मीद जरूर जगी है लेकिन शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले कई वकील एक्टिविस्ट और पेरेंट्स एसोसिएशन इसे जल्दबाजी में लाया गया कदम मानते हैं. आइए जानते हैं क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स...
बिल से पहले कंसल्ट क्यों नहीं किया गया?
ऑल इंडिया पेरेंट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष व सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अशोक अग्रवाल का कहना है कि ये कानून आम लोगों से जुड़ा है और उससे पहले पब्लिक कंसल्टेशन जरूरी था. पेरेंट्स सड़कों पर विरोध कर रहे हैं तो क्या ये जरूरी नहीं था कि उनकी राय ली जाती? वे मानते हैं कि सरकार ने इसे बहुत जल्दबाजी में ला दिया और अक्सर जो काम जल्दीबाज़ी में होता है, उसमें गड़बड़ी की गुंजाइश ज्यादा होती है.
कितनी कमेटी, कितनी दौड़?
बिल में तीन लेवल की कमेटी बनाने की बात है जो स्कूल लेवल, डिस्ट्रिक्ट लेवल और स्टेट लेवल काम करेंगी. इस पर अशोक अग्रवाल कहते हैं कि ये कोई दीवानी मुकदमा नहीं है कि पहले सिविल कोर्ट, फिर सेशन कोर्ट, फिर हाईकोर्ट,सुप्रीम कोर्ट तक जाएं. ये बच्चों की फीस का मामला है जिसमें पेरेंट्स कितनी दूर तक भागते फिरेंगे?.
वे सवाल उठाते हैं कि इतनी सारी कमेटी बनाकर सरकार क्या आउटपुट देना चाहती है? उनका मानना है कि एक ही प्रभावी कमेटी काफी होती जैसे कि पहले जस्टिस अनिल देव कमेटी थी जिसे हाईकोर्ट ने बनाया था और जिसने बेहतर काम किया.
शिकायत पर ही एक्शन? नाकाफी और अपारदर्शी फॉर्मूला
बिल में यह प्रावधान बताया जा रहा है कि अगर किसी स्कूल के खिलाफ शिकायत करनी है तो कम से कम 15 पेरेंट्स को सामने आना होगा. इस पर एक्सपर्ट का कहना है कि इतने पेरेंट्स तो शायद इकट्ठे ही ना हो पाएं और अगर होते भी हैं तो उन्हें स्कूल टारगेट कर सकते हैं. इससे शिकायत करना और मुश्किल हो जाएगा.
कमेटियों में ना एक्सपर्ट, ना पारदर्शिता
बता दें कि स्कूल लेवल कमेटी में पेरेंट्स को लकी ड्रा से चुना जाएगा जिस पर भी सवाल उठ रहे हैं. कई पेरेंट्स का कहना है कि ये ड्रॉ भी स्कूल मैनेजमेंट अपने पक्ष में कर लेती है. वहीं कमेटियों में न तो कोई फाइनेंशियल एक्सपर्ट है, न ही कोई स्वतंत्र एजुकेशन एक्टिविस्ट. अग्रवाल कहते हैं कि फिर ये कमेटी करेगी क्या? कोई टेक्निकल नॉलेज नहीं, कोई जवाबदेही नहीं.
ऑडिट की हकीकत, क्या ये वाकई मुमकिन है?
शिक्षा मंत्री ने कहा था कि एक महीने में 600 स्कूलों का ऑडिट कर लिया जाएगा, लेकिन अशोक अग्रवाल इस दावे पर कहते हैं कि हाईकोर्ट की जस्टिस अनिल देव कमेटी को 1000 स्कूलों की रिपोर्ट चेक करने में चार साल लगे थे. फिर ये कैसे साल भर में कर देंगे.
पेरेंट्स की आवाज़ कहां है इस बिल में?
एडवोकेट शिखा बग्गा भी इस बिल की प्रक्रिया से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि पहले से जो प्रक्रिया थी कि कोई भी पेरेंट्स डायरेक्टर ऑफ एजुकेशन को कंप्लेन कर सकता है, वह ज्यादा सीधी थी. अब इतने स्तरों वाली कमेटी में पैरेंट्स की शिकायतें उलझकर रह जाएंगी. भले ही सरकार की मंशा अच्छी होगी लेकिन अभी इस बिल का रोडमैप गले से नहीं उतर रहा. सवाल यही है कि क्या इस एक्ट से वाकई बच्चों और उनके अभिभावकों को राहत मिलेगी, या फिर ये सिर्फ एक और अधूरा कानून बनकर रह जाएगा?
दिल्ली पेरेंट्स एसोसिएशन अध्यक्ष अपराजिता गौतम का कहना है कि सरकार यह बिल पेरेंट्स की समस्याएं सुलझाने के मकसद से ला रही है, लेकिन फीस का मामला जितना वित्तीय है, उससे कहीं ज्यादा यह भरोसे और पारदर्शिता से जुड़ा हुआ है. सवाल यह है कि क्या ये सिस्टम वाकई निष्पक्ष होगा?. वो आगे कहती हैं कि कमेटी बनाना ठीक है लेकिन उनमें पैरेंट्स का चयन कैसे होगा? क्या वाकई उन पैरेंट्स की राय ली जाएगी जो एक्टिव हैं और सिस्टम से वाकिफ हैं या फिर सिर्फ स्कूल मैनेजमेंट के करीबी लोगों को नामित कर दिया जाएगा? अभी तक के अनुभव तो यही बताते हैं कि स्कूल्स 'लकी ड्रा' के नाम पर ऐसे पैरेंट्स चुनते हैं जो कोई सवाल न पूछें.
आइए जानते हैं इस बिल में क्या खासियतें हैं
फीस बढ़ाने से पहले इजाजत लेनी होगी: निजी स्कूलों को किसी भी प्रकार की फीस वृद्धि से पहले शिक्षा निदेशालय (DoE) से अनुमति लेनी होगी. हालांकि ये अनुमति पहले भी लेनी होती थी, लेकिन पहले ये नियम सिर्फ 355 उन स्कूलों पर लागू होता था जो सरकारी जमीन पर बने हैं. अब इस एक्ट से दिल्ली के सभी 1677 से ज्यादा ऐसे प्राइवेट स्कूलों को भी कवर किया जाएगा जो अनधिकृत या लीज पर ली जमीन पर बने हैं और अब तक इस निगरानी से बाहर थे.
पहले नियम थे, अब कानून बनने की तैयारी
पहले DoE की अनुमति की बात अधिसूचना या गाइडलाइंस के तौर पर थी जिसका उल्लंघन करने पर कार्रवाई सीमित थी. अब इसे कानूनी रूप देने के लिए विधेयक लाया गया है यानी अब उल्लंघन पर दंड, मान्यता रद्द और प्रबंधन जब्त जैसी सख्त कार्रवाई भी की जा सकेगी.
फीस कितनी हो और कैसे बढ़े, इसका एक प्रोसेस बनेगा
स्कूल फीस कैसे तय हो, इसमें स्कूल कितना खर्च दिखा सकता है, मुनाफा कितना हो सकता है. अब इसके लिए स्पष्ट नियम बनाए जाएंगे. स्कूलों को फीस बढ़ाने के लिए आवेदन करते समय अपने वित्तीय रिकॉर्ड्स का ऑडिट कराना जरूरी होगा. यह ऑडिट CAG द्वारा अनुमोदित ऑडिटर्स से कराया जाएगा. सबसे जरूरी बात यह है कि अब जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में फीस निगरानी समिति बनाई जाएगी जो स्कूल के ऑडिट रिपोर्ट, फीस स्ट्रक्चर और शिकायतों की जांच करेगी.
पहले से कठोर होगी मनमानी पर दंड की प्रक्रिया
इस बिल के कानून बनने के बाद स्कूलों को मनमानी करने पर दंड की प्रक्रिया पहले से अलग होगी. उदाहरण के लिए पहले ज्यादातर मामलों में सिर्फ चेतावनी देकर या मामूली जुर्माना लगाकर छोड़ दिया जाता था जिसकी सीमित कानूनी वैधता थी. लेकिन अब नये कानून के तहत ₹1 लाख से ₹10 लाख तक जुर्माना तय किया गया है, जो कि अपराध की गंभीरता के हिसाब से न्यायिक रूप से वसूला जा सकेगा.
मान्यता रद्द होगी
देखा जाए तो पहले भी यह प्रावधान मौजूद था, लेकिन सिर्फ बहुत गंभीर मामलों में उपयोग होता था. यही नहीं ये एक लंबी प्रक्रिया के बाद ही हो पाता था. अब बिल में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दिशानिर्देशों की बार-बार अवहेलना करने पर मान्यता रद्द की जा सकती है और इसकी प्रक्रिया को तेज और पारदर्शी बनाया जाएगा. बाकी ये तो वक्त बताएगा कि इस कानून का किस तरह पालन कराया जाता है.
दूसरी बात है पहले प्रबंधन का अधिग्रहण करने का भी सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता था, इस बिल में भी इसका प्रावधान किया गया है. सच्चाई यह थी कि बहुत कम मामलों में ही इसका इस्तेमाल हुआ, वजह ये थी कि अधिग्रहण की कानूनी वैधता अस्पष्ट थी. लेकिन नये कानून में इस प्रावधान को बिल में ठोस रूप में दिया गया है ताकि लगातार उल्लंघन करने वाले स्कूलों का संचालन सरकार अपने हाथ में ले सके. यानी अब ये सिर्फ कागज़ी नहीं, बल्कि प्रैक्टिकल इम्प्लिमेंटेशन की गुंजाइश बनी है.
शो-कॉज नोटिस को भी प्रभावी बना रही सरकार
पहले शो-कॉज नोटिस देना शिक्षा निदेशालय की आम प्रक्रिया थी, लेकिन स्कूल अक्सर इसे नजरअंदाज कर देते थे. अब इसे कानून के तहत लाया जा रहा है ताकि नोटिस के साथ कार्रवाई के अगले स्टेप्स (जैसे ऑडिट, जुर्माना, मान्यता रद्द) भी जोड़ दिया जाए.
मेंटल टॉर्चर या भेदभाव पर भी मिलेगी सजा
अब तक जो नियम थे, उसमें फीस न देने वाले बच्चों को क्लास से बाहर बैठाने जैसे मामलों में स्कूल पर कड़ी कार्रवाई नहीं होती थी. लेकिन अब यह व्यवहार कानूनन अपराध माना जाएगा और ऐसे मामलों में मानवाधिकार उल्लंघन के तहत कोर्ट में केस चल सकता है. यदि किसी स्कूल के खिलाफ ऐसी शिकायत मिलती है, तो सरकार उस पर सख्त कार्रवाई कर सकेगी.