इंसान जब आस्था की रोशनी छोड़ कर अंधविश्वास के अंधेरों में भटक जाता है तो आस्था भी शर्मसार हो जाती है. जब विश्वास ही अंधविश्वास बन जाए और परम्परा नासूर तो उसे छोड़ना ही बेहतर है.
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में जाम नदी के किनारे बसे दो गांवों के बीच पिछले तीन सौ साल से दुश्मनी चली आ रही है. लड़ाई और दुश्मनी क्यों और किसके बीच शुरू हुई थी. यह तो गांववालों को याद नहीं लेकिन साल में एक बार होने वाले इस पत्थरबाजी खेल के दौरान वो बाप-दादाओं की परम्परा निभाना कभी नहीं भूलते.
परम्परा एक ऐसे खून खराबे की जो इंसानी जान की परवाह किए बिना साल में एक दिन जरूर निभाई जाती है. परंपरा के नाम पर ना जाने ये कैसी आस्था निभाई जा रही है. जिसमें इंसान ही इंसान पर पत्थर बरसा रहा है. कमाल देखिए प्रशासन खुद पत्थर लाकर दे रहा है. पुलिस अपनी मौजूदगी में पत्थर बरसवा रही है.
इलाके के लोग इस खेल को गोटमार के नाम से जानते हैं. इसकी तैयारी कई रोज पहले से ही शुरू कर देते हैं. पत्थरबाजी के लिये नदी के दोनों किनारों पर पत्थरों का ढेर लगा दिया जाता है. मामला परम्परा से जुड़ा होने की वजह से पत्थर जमा करने में नगर-पालिका के कर्मचारियों की एक टीम भी लगती है.
बस इसी के बाद पत्थरबाजी का खेल शुरू हो जाता है. फिर देखते ही देखते नदी के आसपास का इलाका जंग के मैदान में बदल जाता है. गोटमार के दौरान हर साल पांच सौ से एक हजार लोग मामूली से लेकर गंभीर चोटों का शिकार होते हैं. पिछले कुछ सालों में गोटमार का ये खतरनाक खेल दर्जन भर लोगों की जान भी ले चुका है. लेकिन पत्थर के वार से जख्मी करने वाले खिलाड़ियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती. कुछ लोगों के लिये गोटमार का ये खेल अपनी जाती दुश्मनी निकालने का मौका भी होता है.
इस खूनी परम्परा पर रोक लगाने की कई बार कोशिश भी की गई. कुछ साल पहले तो प्रशासन ने पत्थरों के बदले रबड़ की गेंदों का इंतजाम कर गांववालों से गोटमार की परम्परा में बदलाव की कोशिश की थी. लेकिन गांव वाले इसमें कोई बदलाव नहीं चाहते. सचमुच आस्था और परम्परा के आगे सरकार की ताकत कैसे बेअसर साबित होती है. गोटमार मेला इसका जीता जागता सबूत है.