द्वापर युग में श्रीकृष्ण के अवतार को परम अवतार कहा जाता है. माना जाता है कि जब भगवान विष्णु राम अवतार में आए थे, तब वह 14 कलाओं से युक्त थे और इसलिए वह अंश रूप में आए थे, लेकिन जब वह श्रीकृष्ण के अवतार में आए थे, तब वह पूर्णावतार लेकर आए थे. श्रीराम के अवतार के समय वैकुंठ में श्रीहरि अनंत स्वरूप में विराजमान थे, लेकिन जब वह श्रीकृष्ण रूप में धरती पर आए तब गोलोक पूरी तरह खाली था.
भागवत पुराण में तो वैकुंठ और गोलोक भी अलग-अलग बताए जाते हैं. गोलोक, भगवान श्री कृष्णा का निवास स्थान है, जहां वह श्री राधा रानी एवं अन्य गोपियों के साथ निवास करते हैं. श्रीराधा जी की सखियां, ललिता, विशाखा, कालिंदी आदि वहीं साथ ही निवास करती हैं. इसके अलावा श्रीकृष्ण के भी कई बालसखा और गोप जैसे मनसुखा, श्रीदामा, मधुमंगल, सुबाहु, सुबल, भद्र, सुभद्र, मणिभद्र, भोज आदि भी उनके साथ गोप क्रीड़ा करते हैं.
कहते हैं कि श्रीदामा ही एक श्राप के कारण मृत्युलोक में सुदामा बन कर आए थे. श्रीकृष्ण से उनकी मुलाकात गुरु सांदीपनि मुनि के आश्रम में हुई थी. आज यह आश्रम उज्जैन तीर्थ में आता है.
गोलोक में महारास, गऊ चारण, गोसेवा होती है और भगवान के वे भक्त जो उनमें ही रम जाते हैं, वह शरीर त्याग करके आत्मा के स्वरूप में गोलोक में ही निवास करते हैं. वैष्णव सम्प्रदाय के मानने वाले श्रीहरिविष्णु से भी बड़ा श्रीकृष्ण को मानते हैं इसलिए कृष्ण और विष्णु के कई नामों में एक जैसा साम्य देखने को मिलता है. इन नामों में विष्णु, राम और कृष्ण सहित इनके कई अवतार समाहित हो जाते हैं.
इसकी एक बानगी देखिए
राम राम कहु बारंबारा,
चक्र सुदर्शन है रखवारा
इसी तरह एक और छंद भी बहुत लोकप्रिय है...
सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहां
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ...
1950 के दशक वाले दौर में अनासक्ति योग के प्रणेता और महान विचारक आचार्य विनोबा भावे ने जब भूदान यज्ञ का जन लोक हितार्थ आंदोलन शुरू किया तब उन्होंने इसी दोहे को अपने प्रण और प्रतिज्ञा की शक्ति बनाया. वह गांव-गांव इसी दोहे की प्रेरणा लेकर गए और लोगों से जमीन का दान करवाया. वह कहते थे कि यह सारी भूमि तो गोपाल (ईश्वर) की है, इसमें क्यों अटक रहे हो, जिसके मन में अटक है वही यहां अटका रह जाता है. इसका असर यह रहा, बड़े-बड़े जमीऩदारों ने अपने कब्जे के बड़े-बड़े भूखंड छोड़ दिए. वैष्णव संप्रदाय मानता है कि श्री कृष्ण ही परब्रह्म हैं और उनका निवास स्थान गोलोक धाम है. गर्ग संहिता व ब्रह्म पुराण में यह बात बड़ी सुंदरता से कही गई है.

कौन थे सुदामा, श्रीकृष्ण से क्या था संबंध
इसी गोलोक से श्रीकृष्ण के ही साथ धरती पर अंशरूप में आए थे श्रीदामा. हालांकि ऐसे भी तर्क और संदर्भ दिए जाते हैं कि श्रीदामा और सुदामा अलग-अलग थे, लेकिन दोनों ही गोलोकवासी थे, ऐसा मानने में कृष्ण भक्त कवियों के बीच कोई मतभेद और दोराय नहीं हैं.
बात सुदामा की करें तो, श्रीकृष्ण के जीवनकाल में उनकी कथा मित्रता के तौर पर बहुत प्रसिद्ध है. सुदामा, जिन्होंने गोलोक से ही एक श्राप लेकर धरती पर जन्म लिया था. उन्होंने राधा को श्रीकृष्ण से मिलने से रोका था जिससे उन्हें श्रीहीन होने का श्राप मिला. इसलिए उनके नाम के आगे से श्रीहट गया और वह सुदामा हो गए.
क्या है सुदामा से जुड़ी कथा?
सुदामा के साथ यह भी कहानी जुड़ी है कि उन्होंने लालच में श्रीकृष्ण के हिस्से के चने भी खा लिए थे, इसलिए वह जन्म-जन्मांतर के गरीब हो गए. हुआ यूं कि कंस वध के बाद जब मथुरा में शांति स्थापित हो गई तब वसुदेव को अपने पुत्रों श्रीकृष्ण और बलराम की शिक्षा की चिंता हुई. इस कार्य के लिए महर्षि गर्ग ने उज्जैन के रहने वाले सांदीपनि मुनि का नाम सुझाया. श्रावणी के पावन मुहूर्त में कृष्ण और बलराम मुनि सांदीपनि के आश्रम में भेज दिए गए. दोनों बालकों की शिक्षा और अध्ययन सुचारु रूप से चलने लगे.
जब लकड़ी बटोरने जंगल गए थे कृष्ण-सुदामा
एक तरफ गुरु मुनि सांदीपनि वेद-वेदांत के रहस्य समझाते थे तो गुरुमाता सभी शिष्यों को आत्मनिर्भर बनाती थीं. ऐसे ही एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि रसोई के जलावन के लिए लकड़ियां नहीं थीं. सावन-भादों का समय था. गुरुमाता ने आदेश दिया कि कृष्ण-सुदामा, तुम दोनों वन को चले जाओ और रसोई के लिए लकड़ियां बटोर लाओ.
क्या था चने की पोटली का रहस्य?
कृष्ण और सुदामा जब चलने को हुए तो माता ने रोककर कहा- अरे रुको! लो ये चने लेते जाओ. वर्षा का समय है, न जाने कितनी देर लगे. ऐसा कहते हुए माता ने आले में रखी एक पोटली उठाकर दे दी. सुदामा ने गुरुमाता से वह चने लिए और अपनी कमर में पोटली बांध ली. कृष्ण-सुदामा की कहानी का सारा रहस्य इसी चने की पोटली में है.
दोनों मित्र जब वन में पहुंचे तो लकड़ियां बीनते-बीनते कुछ देर हो गई. गरज-धमक के साथ वर्षा भी होने लगी. कृष्ण सुदामा ने आस-पास एक-एक पेड़ का आसरा लिया और बारिश रुकने की प्रतीक्षा करने लगे. इसी दौरान सुदामा को भूख लगी. उन्होंने पोटली में बंधे चने निकाले और अकेले ही खाने लगे.

क्या सुदामा ने किया था कृष्ण से छल?
जब चने खाने की वजह से दांतों से कट-कट की आवाज आती थी, तब कृष्ण ने पूछा कि- अच्छा सुदामा! अकेले-अकेले चने खाए जा रहे हो. इस पर सुदामा ने कहा- नहीं मित्र, वर्षा हो रही है तो ठंड बढ़ गई है, इससे मेरे दांत किटकिटा रहे हैं. कृष्ण यह सुनकर मुस्कुराने लगे. सुदामा ने सारे चने अकेले ही खा लिए और कृष्ण को कुछ न दिया.
इसके बाद दोनों आश्रम पहुंचे. सुदामा को रात भर नींद नहीं आई. अगली सुबह वह गुरु को अपना पाप बताकर प्रायश्चित पूछने गए. सारी बात सुनकर गुरु सांदीपनि मुनि ने बहुत दुखी होकर कहा- यह तुमने क्या किया सुदामा? तुमने तो अपने हाथों से अपने भाग्य में दरिद्रता लिख ली. तुम निर्धन जरूर जन्मे थे, लेकिन भाग्य की प्रबलता और कर्म की शक्ति के कारण तुम जीवन के उत्तरार्ध में राजा होने वाले थे, लेकिन परब्रह्म के साथ छल करना इतना भारी होगा कि अब तुम सा कोई रंक भी नहीं होगा. इसका क्या प्रायश्चित बताऊं, केवल एक ही उपाय है कि मित्रता के इस दीपक को जीवन भर जलाए रखना.
सांदीपनि मुनि ने सुदामा को जो कहा, लोक भाषा में वह एक छंद के तौर पर बहुत कहा-सुना जाता है...
गुरु से कपट मित्र से चोरी,
या होई निर्धन, या होई कोढ़ी।
श्रीकृष्ण से चुराकर चने खाने के कारण सुदामा बड़े रंक हो गए. हालात ऐसी थी कि उनके घर एक कठौती थी, वो भी फूटी हुई थी. उनकी पत्नी सुशीला उसी कठौती में पहले दान में मिले थोड़े से आटे को सानती, किसी तरह उपलों पर ही रखकर उसकी रोटी बनाती और सुदामा और सुशीला उसी कठौती में एक-एक करके रूखी-सूखी खा लेते थे. इसीलिए घरों की रसोई में टूटे-फूटे बरतन रखने की मनाही है और किसी को भी ऐसे टूटे बरतनों में भोजन-पानी नहीं दिया जाता है. कहते हैं कि इससे सुदामा की दरिद्रता अपने घर में छा जाती है.
सुदामा की दरिद्रता को कृष्ण भक्त कवि नरोत्तम दास ने देखिए कितने भावपूर्ण शब्दों में पिरोया है...
कोदों, सवां जुरितो भरि पेट, तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
सीत बितीतत जौ सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी कठौती॥॥
(सुदामा की पत्नी कह रही हैं- खाने के ऐसे लाले हैं कि कोदों और सवां जैसे त्यागे हुए अन्न भी नहीं मिलते है, वही मिलते रहते तो मुझे दही-दूध मट्ठा की भी लालसा नहीं होती. मैं सिसियाकर (कांपकर) ठंड का मौसम भी काट लेती. अगर मैं अपने बच्चों की माता न होती तो तुमसे क्यों ही कुछ मांगती, और मेरे प्रिय, हालत तो ऐसी है कि हमारे घर से कभी टूटा तवा और फूटी कठौती तो बाहर ही नहीं निकाला गया, यानी उन्हें बदलकर कुछ मोल देकर दूसरा भी न लिया गया)
कैसे श्रापित हो गए पोटली के चने?
अब उस चने का रहस्य समझिए. हुआ यूं कि एक बार कुछ चोरों ने एक गांव में धावा बोला. उन्होंने गांव के कई घरों में चोरी की. इसी दौरान एक बुढ़िया ब्राह्मणी कहीं से भिक्षा में मिले चने लेकर आ रही थी. उसने कुएं से पानी पीने के लिए चने वहीं पेड़ के नीचे रख दिए. चोरों ने देखा कि पोटली सुंदर है तो सोचा कि ब्राह्मणी को दान में किसी धनी व्यापारी से मोती मिले हैं. उन्होंने वह पोटली भी चुरा ली.
बेचारी बुढिया ने जब पेड़ के नीचे अपनी पोटली नहीं पायी तो भूख से व्याकुल हो उसने उन चनों पर श्राप लगा दिया. कहा- जिस किसी ने मेरे हिस्से के वे चने खाए वह जन्म-जन्म का भूखा हो जाए. निर्धन हो जाए. उधर, चोर राजा के सैनिकों से छिपने के लिए गुरु सांदीपनि के आश्रम में पहुंच गए. वहीं आपा-धापी में पोटली उनसे छूट कर गिर पड़ी. चोर तो भाग गए, लेकिन किसी शिष्य को वह पोटली मिली तो गुरुमाता को दे दी. गुरुमाता ने समझा कि शिष्य को कहीं से भिक्षा में मिली होगी तो उन्होंने रसोई के आले में रख दी.
सुदामा ने अकेले क्यों खा लिए थे चने?
यही वह चने की पोटली थी, जो उन्होंने कृष्ण और सुदामा को वन जाते हुए दी थी. सुदामा ने जैसी ही चने की पोटली हाथ में ली तब अपनी ज्योतिष विद्या से वह इसके श्राप और नकारात्मक शक्तियों को समझ गए. वह यह भी समझ गए कि इन चनों का कोई उपाय नहीं है. क्योंकि श्राप ऐसा प्रबल था कि अगर चने फेके जाते भूमि बंजर हो जाती, नदी बाढ़ ले आती, तालाब सूख जाता और कोई भी खाता तो उसका वही हाल होता जैसा उस दुखिया ने कहा था.
इसलिए सुदामा ने वह चने खुद ही खा लेने का फैसला किया. क्योंकि सुदामा ने सोचा कि अगर श्रीकृष्ण ने भी ये चने खा लिए तो सारी त्रिलोकी ही निर्धन हो जाएगी. इसलिए चने खाना सुदामा का छल नही था, बल्कि उनका त्याग था.
उन्होंने समय आने पर अपने त्याग के फलस्वरूप दुखी ब्राह्मणी का श्राप झेला और वैसा ही जीवन काटा, जैसा उसने कहा था. फिर जैसा कि गुरु ने कहा था कि जीवन के उत्तरार्ध में वह राजा हो सकते थे, तब सही समय आने पर वह अपनी पत्नी के बहुत कहने पर द्वारिका गए थे.
देखिए, उनकी पत्नी उन्हें कैसे-कैसे समझाती हैं.
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु,
लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार,
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं।
नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो,
देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥॥
(हरि यानी कृष्ण को ब्राह्मणों के प्रिय बंधु हैं. वह ऐसे महादानी हैं कि सभी की सुधि लेते हैं. और आप तो कई बार कह चुके हैं कि गुरु आश्रम में आपने एक ही थाली में भोजन किया है और चटखारे लिए हैं. फिर तो उनकी दुनिया को देखने की कई आंखें हैं, वह तुम्हें कैसे नहीं पहचानेंगे. एक तो वह दीनबंधु, फिर वह कृपा करने वाले कृपासिंधु और आपके तो गुरुबंधु यानी गुरुभाई हैं, तो वह तुम्हारे सिवा किसका भला करेंगे. आपका तो नाम सुनकर ही आपके प्रति उनका प्रेम चौगुना, द्वार पर जाते ही सौगुना और आपको देखते ही हजार गुना बढ़ जाएगा)
अपनी पत्नी के बहुत कहने पर सुदामा, श्रीकृष्ण के पास पहुंचते हैं और जैसा उनकी पत्नी ने कहा था, श्रीकृष्ण ने उससे कहीं अधिक सुदामा का मान-सम्मान किया. वह रोते-बिलखते दौड़ते हुए द्वार तक नंगे पांव आए और सुदामा को गले से लगा लिया. फिर महल में ले गए. वहां उन्हें चंदन, दही, नीमगिरि के तेल और सुगंधित पुष्पों के जल से स्नान कराया गया. ऐसा मान मिलते ही सुदामा की सारी निर्धनता तन से मैल की तरह निकल गई और उनके भीतर का पांडित्य तेज के रूप में निखर आया.
अब बारी आई सुदामा को श्रीमान बनाने की. कृष्ण ने मजाक-मजाक में सुदामा की वो पोटली खींच ली, जिसमें वह कच्चे-टूटे चावल लेकर भेंट स्वरूप आए थे. कृष्ण ने वह चावल ले लिए मुट्ठी में भरकर बड़े स्वाद से खाने लगे.
कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥
आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥
(कृष्ण बोले- जो भाभी ने मेरे लिए भेजा वह तुम मुझे देते क्यों नहीं. बचपन में भी गुरुमाता के दिए चने अकेले खा गए थे. चोरी की आदत गई नहीं तुम्हारी. इतने मीठे चावल तुमने अब तक छिपा कर रखे हैं और पिछली बार की तरह मुझे फिर नहीं देना चाह रहे हो)
अब जब श्रीकृष्ण सुदामा के चावल चाव से खाने लगे तो तीनों लोक कांप उठे. उन्हें डर सताया कि अपने राम अवतार में इन्होंने सिर्फ भावभरे शबरी के जूठे बेर खाकर उसे मोक्ष दे दिया था. यहां तो सुदामा चावलों की पोटली लिए बैठा है, जिनकी गिनती ही करना असंभव है. ऐसे में प्रभु सारा ब्रह्मांड ही न दान कर दें. भक्त कवि नरोत्तम दास का ये सुंदर वर्ण देखिए
कांप उठी कमला मन सोचत मों सों कहा हरि को मन ओंको।
ऋद्धि कंपी नवनिद्ध कंपी सब सिद्धि कंपी ब्रह्म नायक धोंको॥
शोक भयो सुरनायक के जब दूसरी बार लयो भरि झोंकों।
मेरु डरै बकसै जिन मोहि कुबेर चबावत चामर चोंको॥॥
(कृ्ष्ण ने मुट्ठी भरकर पहली बार चावल खा लिया और इस तरह उन्होंने सुदामा को एक धाम दे दिया. अब वह दूसरी मुट्ठी भरकर उठाने लगे. ये देखते ही कमला कांप उठी और हरि का मन आंकने लगी. ऋद्धि भी कांप उठी, सब निधियां डर गईं और चौंक गईं कि ब्रह्मांड का यह नायक उनसे क्या धोखा करने वाला है. इंद्र को भी यह देखकर शोक हो गया कि जो मेरे रक्षक हैं, उनके कारण ही मेरा स्वर्ग छिन जाने वाला है, क्योंकि दूसरी बार तो उन्होंने बहुत झोंक के मुट्ठी में चावल उठा लिया है. पर्वत डर गए कि अब उनकी ऊंचाई नहीं रही और उन पर रहने वाले कुबेर तो डर के मारे चामर (पंखा झलने वाला कपड़ा) ही चबाने लगे)
हाथ गह्यो प्रभु को कमला कहै नाथ कहा तुमने चित धारी।
तंदुल खाय मुठी दुइ दीन कियो तुमने दुइ लोक बिहारी॥
खाय मुठी तिसरी अब नाथ कहा निज बास की आस बिसारी।
रङ्कहि आप समान कियो तुम चाहत आ पहि होन भिखारी॥॥
(यह सब देखकर कमला यानी विष्णु की पत्नी लक्ष्मी रूप रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया. और बोलीं कि दो मुट्ठी खाकर आपने दो लोक अपने मित्र के नाम कर दिए हैं. अब तीसरी मुट्ठी खाकर अपने आवास के बारे में क्या सोचा है, क्या रंक को अपने समान करने के बाद आप खुद को तीनों लोकों का सबसे बड़ा भिखारी बना लेना चाहते हैं)
कैसे समाप्त हुआ सुदामा का श्राप?
श्रीकृष्ण को समझा-बुझाकर रुक्मिणी ने उन्हें रोका और उनकी आत्मिक शक्ति लक्ष्मी ने रिद्धि-सिद्धि को आदेश दिया कि वह सुदामा की दरिद्रता को अब हर लें. उनका श्राप समाप्त हुआ. अब उनका जीवन सभी सुखों से भरा हो. कहते हैं कि द्वारका में तो सुदामा को इस बात का पता नहीं चला, लेकिन जब वह अपने गांव लौटे तबतक उनके पीछे उनके जीवन की स्थिति पूरी तरह बदल चुकी थी.
श्रीकृष्ण और सुदामा ने मित्रता का मोल ऐसे चुकाया कि यह धार्मिक कथा भी लोक व्यवहार में आजतक मित्रता की आदर्श कथा बनी हुई है.