आषाढ़ बीतने और सावन के शुरुआती दिनों में जब घर-जंगल और जमीन पर जल ही जल होता है, गंवई संस्कृति में अचानक ही एक लोक देवता प्रकट हो उठते हैं, जिनका नाम है कोनियन देव, यानी कोने के देवता.
हर कोने वाले स्थान में रहने के कारण ही उन्हें कोन देवता कहा गया और ये देवता बड़े सफाई पसंद हैं. इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा से सावन के 15 दिनों और कहीं-कहीं तो नाग पंचमी तक कोना देवता को पूजे जाने की पंरपरा बनी हुई है. बताने-समझाने की जरूरत नहीं है कि ये पूजा और किसी संस्कृति से अधिक हमारे रहन-सहन का हिस्सा है और जरूरत भी. ऐसा इसलिए क्योंकि बारिश में जब बिल पानी से लबालब हो जाते हैं, तो रेंगने वाले जीवों के रहने का आसान ठिकाना बन जाता है कोना. लिहाजा सुरक्षा के लिहाज से भी कोना देवता का पूजा जाना जरूरी हो जाता है. कोना नामके कोई देवता न भी हों तो भी इस बहाने कोने की भी साफ-सफाई हो जाए, इतना स्पष्ट उद्देश्य तो नासमझ को भी समझ आ ही जाएगा.
क्या है कोने का महत्व?
कोना जो सामानों से ढंका हुआ, उजाले के बीच भी अंधेरे में छिपा हुआ और जहां मान लिया जाए कि वहां जगह ही नहीं उसी जगह का नाम है. कोना! कहने-सुनने को छोटा सा शब्द, सिर्फ दो अक्षर और दो मात्राएं.. लेकिन मायने बहुत बड़े हैं. गणित की किताबें बताती हैं कि दो रेखाएं जब एक बिंदु पर सिर से सिर मिलाती हैं तो उनसे होता है कोने का निर्माण.
किसी घर में दो दीवारों का मिलन बिंदु होता है कोना, जहां जाते हुए आखिरी में सिर्फ एक नुकीला सिरा ही बचता है, इसी नुकीले सिरे के दो तरफ थोड़ी सी बची हुई जगह होती है जो कोने की जगह कहलाती है. ये जगह भले ही छोटी सी है, लेकिन अपने भीतर समेटे हुए है पूरा एक संसार. जो दुनिया में कहीं किसी से नहीं मिल पाते हैं, वह किसी कोने में खुद से ही मिल लेते हैं.
कोना केवल दीवारों का मिलन नहीं, बल्कि एक एहसास है, एक आश्रय है, ये वो जगह है जहां समय ठहर जाता है और अहसास धौंकनी भर-भर के सांस ले सकता है. कोना कहीं भी हो सकता है, घर में, कमरे में, बाहर, जंगल में, भरी भीड़ में और दिल के भीतर भी कहीं. वो कोना ही है, जहां जवानी के अल्हड़पन और प्रौढ़ जिम्मेदारियों के बीच भी कहीं बचपन रुककर-छिपकर खिलखिला लिया करता है.
प्रेम... जिसे बसने की जगह कोनों में ही मिली
प्रेमिकाओं के अधरों और नयनों के कोने पर ही रखे होते हैं प्रेमियों के सारे अरमान, सारी उम्मीदें. आंखों के कोने की तो दुनिया दीवानी है. ये आंखों के कोने ही तो हैं, जिनके जरिए प्रेमिकाएं अपने प्रेमियों को भर आंख देख सकीं. स्वयंवर में वरमाला लिए खड़ी दमयंती आंखों की कोर से ही तो अपने नल को पहचान सकी थीं. शकुंतला ने आंसू भरे दृगकोरों से ही तो जाते हुए दुष्यंत को देखा था और उस मिथिला की फुलवारी में खड़े सनातन के शास्वत सिरमौर राम को भी सीता जब-जब मुड़-मुड़कर देखने की कोशिश कर रही थीं, आंखों के ये कोर ही तो उनके सहायक बने थे.
जिन्हीं नहीं मिली छत, उनका भी आश्रय स्थल बना कोना
कोना अक्सर गरीब, मजलूम, कमजोर, बीमार का आश्रय भी बना. हिंदी फिल्मों के वो करुण संवाद याद कीजिए, जिसमें लाचार अबला नायिका, गिड़गिड़ाते हुए कहती है- मुझे घर से न निकालिए साहब, मैं रूखा-सूखा खाकर यहीं कोने में पड़ी रहूंगी.
कोना वो जगह है, जहां हमारी संस्कृति की गहरी जड़ें हमें अपने अतीत से जोड़ती हैं. कोना ही हमारे घर का, मन का और आत्मा का ठिकाना है. कोने में ही तो गड़ी होती है, हमारी गर्भ नाल जो हमें समूचे घर से ही नहीं बल्कि पीढ़ियों से भी जोड़े रखती हैं. स्वच्छंद बचपन के लिए तो कोना, महज एक जगह नहीं, उनका पूरा खेल का मैदान है. वो कोना घर में सबकी नजर में होते हुए भी बिल्कुल रहस्य से भरा और गुप्त ठिकाना है. हॉलीवुड की मशहूर फंतासी फिल्म नार्निया देखी होगी आपने, उन चारों बच्चों के लिए घर का कोना सिर्फ कोना नहीं एक-दूसरी ही जादुई दुनिया में जाने का दरवाजा था. वे उस दरवाजे से होकर उस जादुई दुनिया में पहुंच जाते थे और कई साल बिताकर जब उस कोने से वापसी करते थे, उसी समय, उसी जगह उसी हाल में वापसी करते थे, जहां वह थे. जैसे कि कोने के इस पार की दुनिया का समय वहीं रुक गया था, सिर्फ उनके लिए.
कोना... जहां छिपकर खिलखिलाता है बचपन
हर बच्चे के लिए घर का कोना ऐसा ही गुप्त ठिकाना हुआ करता था. वह कोना, जहां दादी की पुरानी पेटी रखी थी, जिसके ताले की खटकन के पीछे होती थी जादू की दुनिया, चमत्कार का पूरा साम्राज्य और खुशियों का अनमोल खजाना.
बड़े-बड़े घरों में तो आंगन का भी कोना हुआ करता था. जहां मां और दादी की पुरानी साड़ियां गर्मियों की दोपहर में छांव लेकर आती थीं. जहां एक कोना झाड़ू के लिए उसका घर था, एक कोने में रखे होते थे सिल बट्टे, जहां से आती थी सौंधी-सौंधी खुश्बू.
किसी कोने वाले कमरे की खिड़की भी एक अलग ही दर्जा रखती थी. यूं तो अक्सर वो बंद रहती, लेकिन जब खुलती तो न जाने कितनी कहानियों के सफे खुल जाया करते. ये जो कोना है, असल में सिर्फ कोना नहीं है, ये दीवार को जिंदा रखने की जरूरत है. कोनों में दरार पड़ती है, तो दीवार हिल जाती है, फिर नींव भी उसे नहीं बचा सकती है. हमारी गंवई संस्कृति ये खूब जानती है, पहले से समझती है, इसलिए कोने को भी पूजती है.
गांव की संस्कृति में क्यों जरूरी बन जाते हैं कोने?
गांव की संस्कृति में देखेंगे तो बहुत सारे देवताओं का कोई चेहरा नहीं है. उनका कोई मंदिर नहीं है, उनके कोई मंत्र नहीं हैं, उनके लिए कोई पूजा-विधान नहीं हैं. वे ऐसे ही कहीं कोने में, कहीं पत्थर में, कहीं मिट्टी के ढेले में कहीं, गोबर के ढोर में जीवंत हैं. वे हैं और हमें बनाए रखते हैं. आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन जब सावन के आगमन की तैयारी हो रही होती है, तब कोनों की तरफ खास ध्यान जाता है.
कोने साफ कर लिए जाते हैं, उन्हें गोबर से लीप दिया जाता है. मां या दादी उन जगहों पर दूध-बताशे चढ़ा देती हैं. उन्हें रोली-हल्दी से टीक देती हैं. अक्षत से वार देती हैं, पिता कोने में धूपदीप जलाते हैं, एक अज्ञारी कोने वाले देवता के नाम की. मां अचरा (आंचल) से कोने को छूती हुई आंखों से लगाती हैं और कामना करती हैं. हो कोनयिन देव (कोने के देवता) तुम जो भी हो, बस बने रहो, बनाए रहो. रखे रहो-संभाले रहो. क्योंकि मां अपने अनुभव से जानती है, कोने की क्या अहमियत है. क्योंकि कई दफा कोने ने ही तो दिया था उसको सहारा. कोना देवता की जय हो.