बार-बार अर्जी लगाने पर भी NATO क्यों नहीं दे रहा यूक्रेन को एंट्री, सबसे ताकतवर सैन्य गुट किससे डरा हुआ?

यूक्रेन जल्द से जल्द खुद को NATO में शामिल किए जाने की दरख्वास्त कर रहा है. उसका कहना है कि इस सदस्यता से रूस और उसके बीच शांति के रास्ते बनेंगे. वो लंबे समय से इसके लिए सिफारिश लगा रहा है. रूस के खिलाफ जंग में अमेरिका से लेकर यूरोप उसके साथ हैं, फिर नाटो की सदस्यता में कौन सी बात रोड़ा बनी हुई है?

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यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की नाटो से आंशिक सदस्यता चाह रहे हैं. (Photo- AP) यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की नाटो से आंशिक सदस्यता चाह रहे हैं. (Photo- AP)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 04 दिसंबर 2024,
  • अपडेटेड 4:51 PM IST

आर्टिकल 5 में NATO का पूरा निचोड़ है. इसके मुताबिक, अगर किसी भी सदस्य देश पर हमला हो, तो ये पूरे नाटो पर अटैक माना जाएगा. यूक्रेन लगभग तीन सालों से रूस से जंग में है. वो लगातार जोर लगा रहा है कि उसे इस सैन्य संगठन की सदस्यता मिल जाए, लेकिन अब भी ये नहीं हो सका, जबकि नाटो में शामिल लगभग सारे ही देश उसे तमाम तरह की सैन्य मदद कर रहे हैं. 

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तीन सालों से नाटो की सदस्यता की कोशिश

फरवरी 2022 में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, तब यूएस राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि उनका देश यूक्रेन के हरेक इंच की रक्षा करेगा. वो कीव की सहायता कर भी रहा है लेकिन कानों को उल्टा पकड़ते हुए. दरअसल, यूक्रेन काफी समय से नाटो के अंब्रेला में आने की कोशिश में है, लेकिन उसके लिए दरवाजे अब तक बंद हैं.

अब मांग रहे आंशिक सुरक्षा

यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की ने अब कोशिश में थोड़ा बदलाव लाते हुए प्रस्ताव दिया कि सिर्फ उन्हीं हिस्सों को नाटो में शामिल कर लिया जाए, जो रूस के कब्जे में नहीं. इस हिसाब से देखा जाए तो यूक्रेन का लगभग 27 फीसदी भाग नाटो मेंबरशिप से अलग रहेगा. जेलेंस्की को उम्मीद है कि इस कदम से रूस आगे बढ़ने से रुक जाएगा. साथ ही मॉस्को से सीजफायर की बात भी हो सकेगी. 

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राष्ट्रपति जेलेंस्की जो प्रस्ताव दे रहे हैं, तकनीकी तौर पर उसमें कोई कमी भी नहीं. कई जगहों पर नाटो ने आंशिक सुरक्षा दी हुई है. उसके सपलीमेंट प्रोटोकॉल में इसका जिक्र भी है. 

फिर कहां दिक्कत है?

रूस हमेशा से ही इस बात का विरोध करता रहा. अगर यूक्रेन को नाटो की सदस्यता मिल जाए तो उसकी सीमाओं के आसपास अमेरिकी सैनिक भी होंगे, जो उसके लिए खतरा हैं. इसका बिल्कुल उलट एंगल भी है. नाटो अगर रूस की मर्जी के खिलाफ जाते हुए यूक्रेन को अपनी शरण में लेता है, तो ये जंग का खुला एलान होगा. इसी डर की वजह से यूक्रेन को सपोर्ट करने के बाद भी नाटो उसे सीधी सदस्यता नहीं दे पा रहा. रूस से युद्ध शुरू होने के बाद नाटो के पूर्व सेक्रेटरी जनरल जेन्स स्टोलटेनबर्ग ने कहा था कि यूक्रेन को मेंबरशिप तभी मिल सकेगी, जब रूस से उसकी जंग खत्म हो जाए. 

ट्रंप फैक्टर भी कर रहा काम 

डोनाल्ड ट्रंप ने भले ही अमेरिकी राष्ट्रपति के पद पर अभी शपथ भी नहीं ली, लेकिन उनका खौफ अभी से बना हुआ है. पहले कार्यकाल में भी वे नाटो के बाकी सदस्यों को उनके कम आर्थिक योगदान के लिए धमकाते रहे. ट्रंप यहां तक कह चुके कि अमेरिका नाटो की फंडिंग से हाथ खींच लेगा. यहां बता दें कि इस सैन्य संगठन में भले ही 32 देश हैं, लेकिन सबसे ज्यादा पैसे अमेरिका की तरफ से ही आते हैं. ट्रंप जनवरी में वाइट हाउस पहुंच जाएंगे. इस बीच नाटो ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहेगा, जो ट्रंप उसपर दोबारा भड़कें.

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असल में ट्रंप के रूसी राष्ट्रपति से अच्छे संबंध हैं. वो भले की यूक्रेन की मदद करें या न करें लेकिन रूस के खिलाफ शायद ही जाएंगे. इस नाजुक वक्त पर नाटो सारे कदम फूंक-फूंककर रख रहा है. वॉल स्ट्रीट जर्नल ने किसी सोर्स के हवाले से दावा किया कि ट्रंप यूक्रेन की नाटो में एंट्री को 20 साल पीछे कर सकते हैं. 

पीछे के दरवाजे से नाटो सदस्य कर रहे मदद

नाटो का मानना है कि यूक्रेन पर रूस का हमला खुद नाटो के सदस्य देशों के लिए खतरा है. हालांकि इतने बड़े बयान के बाद भी नाटो ने अपनी सेना कीव में नहीं भेजी. इसकी बजाए हर देश अपने स्तर पर मदद करने लगा. इसी जुलाई में जर्मन रिसर्च संस्थान कील इंस्टीट्यूट ने दावा किया कि अकेले अमेरिका ने जंग शुरू होने से लेकर अब तक यूक्रेन 42 बिलियन डॉलर से ज्यादा की मदद दी. वहीं यूरोपियन देशों ने 27 बिलियन डॉलर दिए. इसके अलावा हथियारों की मदद अलग से दी गई. लेकिन जैसा कि हम बता चुके, ये सहायता देशों ने अपने स्तर पर की, न कि नाटो नाम के अंब्रेला के नीचे. 

क्या है नाटो, क्या काम करता है

ये एक मिलिट्री गठबंधन है. पचास के शुरुआती दशक में पश्चिमी देशों ने मिलकर इसे बनाया था. तब इसका इरादा ये था कि वे विदेशी, खासकर रूसी हमले की स्थिति में एक-दूसरे की सैन्य मदद करेंगे. अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा इसके फाउंडर सदस्थ थे. ये देश मजबूत तो थे, लेकिन तब सोवियत संघ (अब रूस )से घबराते थे. सोवियत संघ के टूटने के बाद उसका हिस्सा रह चुके कई देश नाटो से जुड़ गए.

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रूस के पास इसकी तोड़ की तरह वारसॉ पैक्ट है, जिसमें रूस समेत कई ऐसे देश हैं, जो पश्चिम पर उतना भरोसा नहीं करते.

कैसे मिलती है नाटो मेंबरशिप

इसके लिए जरूरी है कि देश में लोकतंत्र हो. चुनावों के जरिए लीडर बनते हो. आर्थिक तौर पर मजबूत होना भी जरूरी है. लेकिन सबसे जरूरी है कि देश की सेना भी मजबूत हो ताकि किसी हमले की स्थिति में वो भी साथ दे सके. मेंबर बनने के लिए देश खुद तो दिलचस्पी दिखाता है, साथ ही पुराने सदस्य उसे न्यौता भी दे सकते हैं. इसके बाद ही मंजूरी मिलती है.

क्या नया सैन्य गठबंधन हो सकता है? 

माना जा रहा है कि नाटो का रुतबा बढ़ने के साथ ही रूस भी अपनी ताकत बढ़ाने पर ध्यान दे सकता है. चीन फिलहाल उसके पाले में दिख ही रहा है. कई दूसरे कम्युनिस्ट देश, जो अमेरिका के खिलाफ रहे, वे मिलकर एक नई संधि भी बना सकते हैं, जो वारसॉ पैक्ट से भी एक कदम आगे होगी. हालांकि फिलहाल ऐसी बात रूस या उसके किसी साथी देश ने नहीं कही.

भारत क्यों नहीं नाटो का सदस्य? 

चूंकि भारत आर्थिक और सैन्य तौर पर काफी मजबूत है इसलिए उसे कई बार इसकी सदस्यता का ऑफर मिल चुका, लेकिन वो हर बार इससे इनकार कर देता है. नाटो फिलहाल दुनिया का सबसे मजबूत सैन्य अलायंस माना जाता है. इसमें शामिल होना भारत के लिए फायदे और नुकसान दोनों ला सकता है. सीधा-सीधा फायदा ये है कि उसकी सीमाएं और ज्यादा सेफ रहेंगी. 

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इस मेंबरशिप के अपने खतरे भी हैं

नाटो में अमेरिका और ब्रिटेन का अब भी दबदबा है, जबकि भारत काफी बड़ी अर्थव्यवस्था और न्यूट्रल ताकत के तौर पर उभर रहा है. ऐसे में नाटो से जुड़ना उसकी इमेज पर असर डाल सकता है. दूसरा, रूस से भी हमारे ठीक संबंध है और कई चीजों का आयात-निर्यात होता है. इसमें भी रुकावट आ जाएगी. इसके अलावा सबसे अहम वजह ये है कि हमारी अपनी विदेश नीति है. नाटो से जुड़ने पर विदेश नीति में कई बदलाव लाने होंगे, जो मौजूदा समय में भारत नहीं चाहता.

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