हसीना की बनाई कोर्ट उन्हीं पर सख्त, कितनी दमदार है ढाका की घरेलू अदालत?

बांग्लादेश में आज पूर्व पीएम शेख हसीना के खिलाफ इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल फैसला सुनाने की शुरुआत कर चुका. इस कोर्ट को शेख हसीना सरकार ने ही बनाया था, जिसका मकसद था, साल 1971 में पाकिस्तान से बंटवारे के दौरान हुए नरसंहार और युद्ध अपराध पर सजा देना. अब यही ट्रिब्यूनल हसीना के खिलाफ बड़ा निर्णय लेगा.

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बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना पर मानवता के खिलाफ अपराध में ट्रिब्यूनल आज फैसला देगा. (Photo- AP) बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना पर मानवता के खिलाफ अपराध में ट्रिब्यूनल आज फैसला देगा. (Photo- AP)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 17 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 12:49 PM IST

पिछले साल अगस्त में छात्रों के विद्रोह के बाद पीएम शेख हसीना को इस्तीफा देकर बांग्लादेश छोड़ना पड़ा. फिलहाल वे भारत की शरण में हैं. इस बीच ढाका स्थित इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल हसीना के खिलाफ फैसला ले रहा है. कोर्ट की कार्रवाई शुरू हो चुकी और बस कुछ ही देर में स्थिति साफ हो जाएगी.

ट्रिब्यूनल को खुद हसीना सरकार ने लगभग डेढ़ दशक पहले बनाया था ताकि साल 1971 में पाकिस्तान से बंटवारे के समय हुए युद्ध अपराधों पर सुनवाई हो सके. तब से इसने कई बड़े नेताओं के खिलाफ फैसले लिए. कई बार एजेंसी पर राजनीतिक दुश्मनी भुनाने के लिए सत्ता का हथियार बनने का भी आरोप लगा. अब ट्रिब्यूनल अपने संस्थापक यानी हसीना के खिलाफ निर्णय ले सकता है. 

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अभी की स्थिति क्या है

लगभग डेढ़ साल पहले बांग्लादेश में सत्तापलट हुआ. मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार के नेतृत्व में उम्मीद थी कि देश स्थिर हो सकेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अब एक बार फिर ढाका में विस्फोट हो रहे हैं. लोग नाराज हैं. दरअसल, हसीना सरकार के समर्थकों को डर है कि आईसीटी उनकी नेता के खिलाफ बेहद कड़ा फैसला न ले ले. बगावत पहले की तरह सत्ता को न लील ले, इसके लिए यूनुस सरकार ने हलचल देखते ही गोली मारने के आदेश दे रखे हैं. 

जिस आईसीटी को खुद हसीना ने बनाया था, वही उनके खिलाफ दिख रहा है. यहां कई सवाल हैं. 

- पूर्व पीएम पर क्या आरोप हैं?

- ट्रिब्यूनल कितना शक्तिशाली है, जो उनपर लगे आरोपों की सुनवाई कर रहा?

- क्या उसने किसी और बड़े लीडर के खिलाफ भी सुनवाई की और फैसले दिए?

- क्यों इस संस्थान पर राजनीतिक पक्षपात के आरोप लगते रहे?

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इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल में जांच और सुनवाई बाकी अदालतों से अलग होती है. (Photo- AP)

हसीना के खिलाफ आईसीटी में कई मामले दर्ज हैं. उनपर आरोप है कि उन्होंने राजनीतिक द्वेष में विपक्षी नेताओं को गायब करवाया. इसके अलावा पूर्व पीएम पर नरसंहार का भी आरोप रहा. पिछले साल गर्मियों में स्टूडेंट आरक्षण के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे, तब भी कथित तौर पर हसीना सरकार ने उनपर हिंसा की. 

इन्हीं आरोपों को लेकर जिस ट्रिब्यूनल में उनके खिलाफ जांच चलती रही, उसे हसीना ने ही बनवाया था. दरअसल पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के बंटवारे के दौरान भारी हिंसा हुई थी. इसके बाद सत्ता में आए हसीना के पिता शेख मुजीबुर्रहमान ने वादा किया था कि वे युद्ध अपराधियों को सजा देंगे. तब किया हुआ वादा उनकी बेटी ने निभाया और डेढ़ दशक पहले आईसीटी की नींव रखी. वैसे आईसीटी एक्ट 1973 में ही बन चुका था लेकिन एजेंसी बनने का काम हसीना सरकार के दौरान हुआ. 

कितना ताकतवर है ये संस्थान

यह घरेलू तौर पर बेहद ताकतवर अदालत मानी जाती है. इसे संसद के कानून से बनाया गया था, इसलिए इसके फैसले सीधे लागू होते हैं और पुलिस-प्रशासन को तुरंत कार्रवाई करनी होती है. ट्रिब्यूनल को यह हक है कि वो किसी भी शख्स, भले ही वह मंत्री हो, सांसद हो या पूर्व प्रधानमंत्री, के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट, ट्रायल और सजा का आदेश दे सकता है.

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क्या इसके फैसलों को चुनौती मिल सकती है

अपील के लिए सुप्रीम कोर्ट में जाया जा सकता है, लेकिन चूंकि ट्रिब्यूनल खुद एक पूरी अदालत की तरह काम करता है इसलिए इसका खास फायदा नहीं. 

ढाका में हसीना के खिलाफ फैसले के बाद हिंसा की आशंका में भारी सुरक्षा तैनात की जा चुकी. (Photo- PTI)

अब तक किन बड़े नेताओं पर निर्णय ले चुका 

साल 2010 में अपनी स्थापना के साथ ही ट्रिब्यूनल ने कई नामचीन और शक्तिशाली नेताओं को दोषी ठहराया. इसमें सबसे ज्यादा फैसले जमात-ए-इस्लामी और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के नेताओं के खिलाफ हुए. इनमें गुलाम आजम से लेकर मीर कासिम अली और सलाहुद्दीन कादिर चौधरी शामिल हैं. 

चूंकि ये सारे ही नेता हसीना के खिलाफ थे, इसलिए आरोप लगा कि यह कोर्ट असल में सरकार के वेपन की तरह काम कर रही है. हालांकि हसीना सरकार इन आरोपों से इनकार करती रही. आईसीटी बिना दबाव काम कर सके, इसके लिए शुरुआत से ही कुछ खास कदम उठाए. सबसे पहले, इसके जजों का चयन सामान्य अदालतों की तरह नहीं, बल्कि एक अलग प्रक्रिया से किया गया, ताकि उन पर सरकार या राजनीतिक पार्टियों का असर कम पड़े. ट्रिब्यूनल के जजों को काम के दौरान हटाया या बदला नहीं जा सकता था, जिससे वे स्वतंत्र फैसले ले सकें.

इसकी जांच एजेंसी भी अलग बनाई गई, जिनका काम सीधे ट्रिब्यूनल को रिपोर्ट करना था, न कि किसी मंत्री या मंत्रालय को. इससे राजनीतिक हस्तक्षेप की गुंजाइश कम रही. कोर्ट की पूरी कार्रवाई, एफआईआर से लेकर गवाहों के बयान तक, कानूनी प्रक्रिया के तहत सार्वजनिक रिकॉर्ड पर रखी जाती थी, ताकि पारदर्शिता बनी रहे.

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