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ब्रिटेन में 'राइट टू रिमूव' के समर्थन में आए कई सांसद

ऑनलाइन अतीत को मिटाने की मुहिम ब्रिटेन और यूरोप के अधिकांश हिस्सों में तेजी पकड़ रही है. 'राइट टू रिमूव' के तहत ब्रिटेन चाहता है कि 18 साल से कम उम्र के इंटरनेट यूज़र्स को पुराने पोस्ट हटाने का अधिकार मिले.

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इंटरनेट आज की जीवनशैली का हिस्सा है लेकिन क्या इंटरनेट पर सक्रियता का अतीत किसी के लिए मुश्किल बन सकता है. हां, यूरोप में आज ये सवाल एक बड़ी चर्चा को जन्म दे चुका है. ऑनलाइन अतीत को मिटाने की मुहिम ब्रिटेन और यूरोप के अधिकांश हिस्सों में तेजी पकड़ रही है. 'राइट टू रिमूव' के तहत ब्रिटेन चाहता है कि 18 साल से कम उम्र के इंटरनेट यूज़र्स को पुराने पोस्ट हटाने का अधिकार मिले.

यूरोप में 'राइट टू फ़ॉरगोटेन'
यूरोप में पांच साल से लोग 'राइट टू फ़ॉरगोटेन' का इस्तेमाल कर रहे हैं. इसी का विस्तार 'राइट टू रिमूव' है. लेकिन इस प्रस्ताव को लेकर विवाद भी शुरू हो गया है. आप इंटरनेट पर एक ऐसे बटन के बारे में कल्पना करें जो आपकी पिछली ऑनलाइन गतिविधियों को हमेशा के लिए हटा दे.

ब्रिटेन में हाल में अभियान शुरू
ब्रिटेन में इसे लेकर एक अभियान हाल ही में शुरू किया गया है. 'आई राइट्स' नाम की इस मुहिम की शुरुआत इस विचार पर आधारित है कि युवाओं के पास ख़ुद के बनाए गए इंटरनेट कंटेट को आसानी से संपादित या मिटाने का अधिकार होना चाहिए. इस मुहिम को ब्रिटेन के इंटरनेट सुरक्षा मामलों के मंत्री का भी समर्थन मिल गया है. इस कदम का मक़सद आज की डिजिटल पीढ़ी को सशक्त करना है.

उम्र में परिपक्वता के साथ बदलाव
इस मुहिम को शुरू करने वाले बारोनेट बीबन कीडरॉन के अनुसार-, 'नाबालिग किशोर और नौजवान सामाजिक और विकास संबंधी बदलावों से गुजरते ये पाते हैं कि 14-15 साल की उम्र में किए गए उनके काम सही नहीं थे.' इंटरनेट पर लंबे वक्त तक मौजूद रहने वाले ये ग़लत फ़ैसले और परेशान करने वाले सबूत असहज कर देते हैं और कभी-कभी तो फंसा भी देते हैं. इनसे पीछा छुड़ाने का 'आसान और सीधा' तरीका होना चाहिए.

समाज में गहरे बदलावों से जुड़ा
उनका मानना है कि इंटरनेट पर बचपन के निशान स्थायी नहीं होने चाहिए. उनका कहना है, 'व्यक्तिगत प्रयोग बचपन का एक जरूरी हिस्सा होता है. इंटरनेट से यह ना कभी हटता है और ना ही इंटरनेट इसे कभी सही करता है.' राइट टू रिमूव समाज में होने वाले गहरे बदलावों को दर्शाता है.

डिजिटल युग का बदलाव
इस मामले पर ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर विक्टर मेयर स्कोनबर्गर का कहना है, 'यह डिजिटल युग में होने वाला एक बड़ा बदलाव है.' प्रोफेसर विक्टर मेयर स्कोनबर्गर 'डिलीट: द वर्चू ऑफ़ फ़ॉरगेटिंग इन द डिजिटल एज' किताब के लेखक हैं. इंटरनेट की स्थायी रूप से एक मेमोरी तैयार हो जाती है जिसे कभी भी देखा जा सकता है. ट्विटर और फ़ेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट से हटाए गए पोस्ट फिर से ऑनलाइन सर्च में आ सकते हैं.

कानूनी विवाद भी आते हैं सामने
ये पोस्ट असहज कर देने वाली तस्वीरों के अलावा आपराधिक दोष और क़ानूनी विवाद के रूप में हो सकते हैं. यौन हिंसा, धौंस या दूसरी तरह के उत्पीड़न के शिकार पीड़ितों के लिए ख़ासतौर पर यह स्थिति तनावपूर्ण होती है. आई राइट्स मुहिम के तहत मिलने वाला 'डिलीट ऑप्शन' नाबालिगों को निजता के अधिकार के मामले में एक विशेषाधिकार साबित होगा.

कितना कारगर होगी मुहिम?
इस फ़ैसले ने इस बहस को जन्म दिया है कि अतीत को मिटाना कितना कामयाब हो सकता है. कंप्यूटर एंड कम्युनिकेशन एसोसिएशन से जुड़े फ़ेसबुक, गूगल और माइक्रोसॉफ्ट के सदस्यों का कहना है कि यह मामला यूरोप में 'निजी सेंसरशिप को बड़े स्तर' पर बढ़ावा देगा. 'डिलीट बटन' के साथ ही भूल जाने का अधिकार और अभिव्यक्ति की असीमित स्वतंत्रता के बीच बहस छिड़ गई है.

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