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पाकिस्तान में रईसी का सपना दिखाकर जिंदगी खराब कर दी! बिलावल के परनाना ने इस नवाब को कैसे बरगलाया?

पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो के परनाना शाहनवाज भुट्टो का जूनागढ़ से खास रिश्ता रहा है. शाहनवाज सिंध क्षेत्र (लरकाना) के बहुत बड़े जमींदार थे. उस वक्त उनके पास लगभग ढाई लाख एकड़ से भी ज्यादा जमीन थी. उन्होंने बतौर जूनागढ़ दीवान वहां के नवाब को भारत के खिलाफ खूब भड़काया. लेकिन पाकिस्तान जाकर इस नवाब की नवाबी निकल गई.

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बिलावल के परनाना ने जूनागढ़ के नवाब को बहकाया.
बिलावल के परनाना ने जूनागढ़ के नवाब को बहकाया.

पाकिस्तान बने सिर्फ दो ही महीने हुए थे. भारत-पाकिस्तान समेत पूरे दक्षिण एशिया में गजब की सरगर्मी थी. सियासत अगस्त-सितंबर की अलसाई गर्मियों की तरह ही सबको पिघला रही थी. एक दिन की बात है. एक चार्टर्ड विमान भारत से पाकिस्तान जा रहा था. विमान की सवारियां और लगेज काफी वीआईपी थे. जहाज के पिछले हिस्से में एक रियासत के माल-असबाब लोड़ थे. हीरे-जवाहरात, सोने-चांदी. 

जहाज के बीच में कई आर्टिस्ट बैठे हुए थे और आगे की सीट पर उस दौर का एक नवाब अपनी बीवियों के साथ बैठा हुआ था. लेकिन जो सबसे अलग बात थी वो यह थी कि इस जहाज में जवाहरात के बक्सों के साथ ही दर्जनों कुत्ते भी बैठे हुए थे. मुगल खानदानों से ताल्लुक रखने वाला ये नवाब बड़ा रईस मिजाज का व्यक्ति था. 

इस नवाब का नवाबी शौक किवदंतियां बना चुकीं थीं. उसकी ये यात्रा इतिहास लिखने वाली थी. इस जहाज ने पाकिस्तान के कराची एयरपोर्ट पर लैंड किया. सब कुछ तो ठीक निकला लेकिन नवाब की दो बेगमें हिन्दुस्तान में ही छूट गईं थी. नवाब साहब ने अपने कुत्तों को नहीं भूला लेकिन घरवाली भूल गए. 

बहकावे में आ गए जूनागढ़ के नवाब

ये नवाब थे भारत के गुजरात में स्थित जूनागढ़ के आखिरी नवाब महावत खान-तृतीय. यह वही नवाब हैं जिन्होंने भारत-पाक बंटवारे के बाद भारत में विलय करने से मना कर दिया था. लेकिन जब नेहरू और सरदार बल्लभ भाई ने इनकी कान उमेठी तो ये पाकिस्तान भाग गए. 

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नवाब साहब को पाकिस्तान ले जाने के लिए बरगलाने में एक राजनीतिक परिवार का हाथ था, जो आज भी पाकिस्तान में सक्रिय है. ये परिवार है भुट्टो फैमिली. पाकिस्तान की सत्ता में साझीदार बिलावल भुट्टो के परनाना शाहनवाज भुट्टो ने नवाब महावत खान पाकिस्तान के रंगीन सपने दिखाए और नए-नए बन रहे इस्लामिक मुल्क में धन दौलत और नवाबी देने का वादा किया. 

हुमायूं के वफादार, काठियावाड़ की जमींदारी दे दी

नवाब महाबत खान का परिवार अफगानिस्तान के बाबी कबीले से जुड़ा हुआ था. यह कबीला मुगलों का वफादार था. बादशाह हुमायूं के वक्त ये लोग हिन्दुस्तान आए और अलग अलग जंगों में हुमायूं की मदद कर उसका विश्वास जीत लिया. 

आगे चलकर शाहजहां ने काठियावाड़ सहित पूरे गुजरात की रियासत इन्हें दे दी. चूंकि रियासत जूनागढ़ समुद्र के पास पड़ता था इसलिए इस सूबे में समुद्री व्यापार आमद थी और इसी आमद से यहां खूब धन दौलत आया. इस वजह से ये रियासत खूब अमीर हो गया.

बिलावल भुट्टो के परनाना शाहनवाज भुट्टो का जूनागढ़ से खास रिश्ता रहा है. शाहनवाज सिंध क्षेत्र (लरकाना) के बहुत बड़े जमींदार थे. उस वक्त उनके पास लगभग ढाई लाख एकड़ से भी ज्यादा जमीन थी. 1947 आते आते शाहनवाज भुट्टो देश के बड़े मुस्लिम नेता बन चुके थे. 1947 में ही वह 
जूनागढ़ रियासत के नवाब मुहम्मद महाबत खान III के दीवान यानी प्रधानमंत्री बन गए. 

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उस समय आजाद रियासतों का भारत में विलय कराने के लिए सरदार पटेल मशक्कत कर रहे थे. जूनागढ़ एक ऐसी रियासत थी जहां की आबादी हिन्दू थी लेकिन राजा (नवाब) मुस्लिम था. शुरुआत में महाबत खान -III तो हिंदुस्तान में शामिल होने के लिए तैयार थे. लेकिन यहां शाहनवाज  भुट्टो और मोहम्मद अली जिन्ना ने चाल चल दी. 

जूनागढ़ के बदले कश्मीर की सौदेबाजी!

ये दोनों नेता जूनागढ़ के बदले कश्मीर की सौदेबाजी करना चाहते थे. इन दोनों नेताओं ने नवाब का ऐसा ब्रेन वाश कियाकि उन्होंने ठीक आजादी के दिन यानी 15 अगस्त 1947 के दिन जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी. यह माउंटबेटेन की सलाह के खिलाफ था. 

जिन्ना और शाहनवाज भुट्टो की रणनीति यह थी कि जूनागढ़ का भारत में विलय कश्मीर के लिए एक मिसाल बन सकता था. जिन्ना ने जूनागढ़ जो हिंदू-बहुल था को पाकिस्तान में शामिल करके यह तर्क देना चाहा कि अगर एक हिंदू-बहुल रियासत का शासक अपनी मर्जी से पाकिस्तान में शामिल हो सकता है, तो कश्मीर (मुस्लिम-बहुल, लेकिन हिंदू शासक) का भारत में विलय अस्वीकार्य होना चाहिए. गौरतलब है कि कश्मीर के महाराजा हरि सिंह भारत में विलय करना चाह रहे थे.

कुछ जानकारियां यह बताती है कि जिन्ना यह उम्मीद कर रहे थे कि जूनागढ़ में जनमत-संग्रह होगा, जिसमें पाकिस्तान हार सकता था. क्योंकि वहां की ज्यादा आबादी हिन्दू थी.  इस हार को स्वीकार करके, जिन्ना कश्मीर में जनमत-संग्रह की मांग को मजबूत करना चाहते थे, जहां मुस्लिम-बहुल आबादी के कारण पाकिस्तान को जीत की उम्मीद थी.

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हालांकि जिन्ना ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया क्योंकि वह कश्मीर में भारतीय सेना की मौजूदगी में जनमत-संग्रह के खिलाफ थे. 

शाहनवाज भुट्टो ने जिन्ना के निर्देशों पर काम किया. उहोंने नवाब को यह विश्वास दिलाया कि मुस्लिम मुल्क पाकिस्तान में विलय से उनकी संपत्ति और जीवनशैली सुरक्षित रहेगी. महाबत खान शाहनवाज भुट्टो के लालच में आ गए और 15 अगस्त 1947 को जूनागढ़ के भारत में विलय की घोषणा कर दी. लेकिन इसका वास्तविक असर नहीं हुआ. 

सरदार वल्लभभाई पटेल ने सैन्य हस्तक्षेप और जनमत-संग्रह के जरिए जूनागढ़ को भारत में मिला लिया. 20 फरवरी 1948 को हुए जनमत-संग्रह में 99% से अधिक मतदाताओं ने भारत के पक्ष में मतदान किया.

इस बीच 25 अक्टूबर 1947 को नवाब मुहम्मद महाबत खान अपने खजाने, गहनों, कई बेगमों, और लगभग 200 कुत्तों को लेकर एक चार्टर्ड विमान से कराची भाग गए. 

कराची पहुचने के बाद महाबत खान का सामना पाकिस्तान की हकीकत से हुआ. नवाब को वह सम्मान या रईसी नहीं मिली, जिसका सपना शाहनवाज भुट्टो ने दिखाया था. किताब The Princely States and the Making of Modern India के अनुसार, पाकिस्तान सरकार ने उन्हें कुछ जमीन दी, लेकिन कोई विशेष महत्व नहीं दिया. नवाब और उनके परिवार को धीरे-धीरे उपेक्षा का सामना करना पड़ा.

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पाकिस्तान में गर्दिश में गुजरे दिन 

जहां भारत में अपनी रियासत का विलय भारतीय गणराज्य के साथ करने वाले नवाबों को सरकार ने पूरा सम्मान दिया वहीं पाकिस्तान गए नबावों की हालत खस्ता थी. भारत में ऐसे नवाबों को बहुत सम्मान मिला, सरकार उन्हें ढाई लाख तक का प्रीवी पर्स दिया करती थी. लंबे समय तक नवाबों के महल, उनकी अकूत संपत्तियां उन्हीं के पास रहीं. 

वहीं दूसरी तरफ अपने महलों और अपनी रियासतों को छोड़कर पाकिस्तान जाने वाले नवाबों को वहां वादे के मुताबिक कोई अलग से रियासत नहीं मिली.

ऐसे नवाब अपनी जमीन और महल भारत में पहले ही छोड़ चुके थे. पाकिस्तान सरकार उन्हें कुछ पैसे दिया करती थी लेकिन वह बहुत कम हुआ करता था. नवाब के लिए पाकिस्तान ने जो प्रिवी पर्स की रकम बांधी वो पाकिस्तान के प्रिंसली स्टेट के पूर्व राजाओं और नवाबों के मुकाबले कम थी. उन्हें वैसा महत्व भी नहीं मिलता था.

महावत खान भारत में रहते तो उन्हें करीब दो लाख रुपये मिलते और उनकी अरबों की जायदाद का भी बहुत हिस्सा सुरक्षित रहता. लेकिन पाकिस्तान में उन्हें कुछ नहीं मिला. 

वहीं पाकिस्तान की राजनीति में भुट्टो का सितारा बुलंद हो रहा था शहनवाज आगे चलकर पाकिस्तान के पीएम बने लेकिन नवाब को पहचानने वाला कोई भी नहीं था. 1959 में नवाब महाबत खान ने आखिरी सांस ली और उनके जाने के बाद उनके बेटे जूनागढ़ के एक ऐसे नवाब बने जिसके पास अपनी कोई रियासत नहीं थी. 

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चपरासी से कम मिलता है गुजारा भत्ता

महावत खान के निधन के बाद पाकिस्तान में उनके वंशजों की हालत दयनीय है. उन्हें गुजारे के तौर पर महीने का जो पैसा मिलता है, वो आज के चपरासी के वेतन से भी है. अर्थात केवल 16 हजार. इसको लेकर उनके वंशज कई बार विरोध भी जता चुके हैं. पाकिस्तान में इससे जुड़ी खबरें आती रहती हैं. 

ये परिवार रह-रहकर वो पाकिस्तान में मीडिया और लोगों को बताने की कोशिश करते हैं कि पाकिस्तान के लिए उन्होंने कितनी बड़ी कुर्बानी दी है लेकिन ये मुल्क उन्हें किनारे कर चुका है. पाकिस्तान के कराची शहर में अब नवाब महाबत खान की तीसरी पीढ़ी गुरबत में रह रही है. 

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