"मुझे कोई दिक्कत नहीं है, मैं बिना टेलीप्रॉम्पटर के ही भाषण दूंगा, क्योंकि टेलीप्रॉम्पटर काम ही नहीं कर रहा है. बिना टेलीप्रॉम्पटर के आप दिल की बातें ज्यादा कहते हैं, लेकिन मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि जो कोई भी इस टेलीप्रॉम्पटर को ऑपरेट कर रहा है वो बड़ी मुसीबत में है." अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने UNGA में अपनी दूसरी पारी की पहली स्पीच इन्हीं हल्के-फुल्के शब्दों के साथ शुरू की. लेकिन जैसा कि उन्होंने अपने स्पीच में कहा बिना टेलीप्रॉम्पटर के आप दिल की बातें ज्यादा कहते हैं, तो उन्होंने इस स्पीच में दिल की बातें ही कही. हालांकि वो लिखा हुआ नोट पढ़ रहे थे.
ट्रंप ने UN (संयुक्त राष्ट्र) के मंच से UN को फेल करार दिया. उसी UN को, जिसकी स्थापना में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट और बाद में हैरी ट्रूमैन का बड़ा रोल था. इन दो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने इसे विश्वव्यवस्था का आधार बताया, जहां बड़ी ताकतें मिलकर वैश्विक संकटों का समाधान करने वाली थीं.
लेकिन इसी संगठन की तीखी आलोचना करते हुए ट्रंप ने कहा कि, "संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य क्या है? ऐसा लगता है कि वे बस एक बहुत ही कड़े शब्दों वाला पत्र लिखते हैं और फिर उस पत्र पर कभी अमल नहीं करते. ये खोखले शब्द हैं और खोखले शब्दों से युद्ध का समाधान नहीं होता."
इसके बाद ट्रंप ने रूस-यूक्रेन वॉर, ईरान मुद्दे को सुलझाने में नाकाम रहने पर यूएन की आलोचना की.
माइग्रेशन के मुद्दे पर ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र पर बरसते हुए कहा कि 2024 में संयुक्त राष्ट्र ने 624,000 प्रवासियों को अमेरिका में आने और हमारी दक्षिणी सीमा में घुसपैठ करने में मदद करने के लिए 372 मिलियन डॉलर नकद खर्च किए. आगे उन्होंने कहा, "संयुक्त राष्ट्र का काम घुसपैठ को रोकना है, उन्हें बढ़ावा देना नहीं."
ट्रंप ने यूएन को सिर्फ "बातों का मंच" बताया और वास्तविक एक्शन में फिसड्डी करार दिया.
आज राष्ट्रपति ट्रंप संयुक्त राष्ट्र की जितनी भी आलोचना करें, लेकिन विडंबना यह रही कि अमेरिका दुनिया को देश रहा जिसकी स्वार्थी नीतियों ने यूएन की ताकत को कमजोर करने की सबसे बड़ी भूमिका निभाई. अमेरिका को जब भी ये मंच काम का लगा उसके इसका उपयोग किया, इसका हवाला दिया. लेकिन जब संयुक्त राष्ट्र के फैसले अमेरिका के खिलाफ रहे यूएन ने इसे अप्रासांगिक करार दे दिया.
राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने इसे एक ऐसा ढांचा माना, जो अमेरिकी हितों को बढ़ाता, लेकिन जल्द ही यूएन ने सोवियत संघ, चीन और दुनिया के दूसरे देशों को आवाज उठाने का मौका दे दिया. अमेरिका को ये रास नहीं आया.
1950 के दशक में कोरियाई युद्ध में यूएन ने अमेरिका का समर्थन किया, लेकिन 1960 के दशक में वियतनाम युद्ध के दौरान इसकी तटस्थता ने वॉशिंगटन को नाराज किया. 1980 के दशक में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने यूएन को "सोवियत प्रचार का अड्डा" कहा, और 2003 में इराक युद्ध के लिए सुरक्षा परिषद की मंजूरी न मिलने पर जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने इसे "अप्रासंगिक" ठहराया.
कोल्ड वॉर और वीटो का बेजा इस्तेमाल
संयुक्त राष्ट्र में वीटो की शक्तियों का प्रावधान ही इसके बुनियाद को कमजोर कर गया था. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के पांच स्थायी सदस्यों (अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस) को मिली वीटो शक्ति ने यूएन की प्रभावशीलता को कई तरह से कमजोर किया है. वीटो शक्ति UN चार्टर के अनुच्छेद 27(3) से संबंधित है. यह किसी भी प्रस्ताव को एक स्थायी सदस्य द्वारा निगेटिव वोटिंग से रोक देती है, चाहे उस प्रस्ताव को बहुमत ही शामिल क्यों न हो? इसे वीटो लगाना कहते हैं.
2022 तक के संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका ने 83 बार वीटो का इस्तेमाल किया है. इनमें से अधिकांश वीटो इजरायल-फिलीस्तीन के मुद्दे पर थे. हालांकि सबसे ज्यादा 143 बार वीटो लगाने का रिकॉर्ड सोवियत रूस/रूस के नाम पर है.
बार-बार वीटो के उपयोग से UNSC की विश्वसनीयता कम हुई, जिससे जनता का विश्वास डगमगाया. 2023-24 में नौ बार गतिरोध के बाद जनरल असेंबली को हस्तक्षेप करना पड़ा.
वियतनाम युद्ध
वियतनाम युद्ध वह घटना है जहां अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के नियमों और प्रथाओं की अवहेलना की. अमेरिका ने इस युद्ध की शुरुआत और विस्तार के लिए यूएन की मंजूरी नहीं ली. अमेरिका ने दक्षिण वियतनाम सरकार का समर्थन करते हुए अपने सैन्य बलों को बड़ी संख्या में भेजा और घातक हथियारों का इस्तेमाल किया. अमेरिका ने युद्ध को एकतरफा तरीके से अपने राष्ट्रीय हितों के लिए बढ़ाया और वैश्विक शांति व्यवस्था में यूएन की भूमिका को दबा दिया.
इराक युद्ध
इराक युद्ध एक और उदाहरण है जब अमेरिका ने यूएन की मंजूरी को नजरअंदाज किया. अमेरिकी सरकार ने इराक पर हमला करने के लिए यूएन सुरक्षा परिषद से आधिकारिक अनुमति नहीं ली. अमेरिका ने दावा किया कि इराक के पास "विनाशकारी हथियार" हैं, लेकिन यूएन के हथियार निरीक्षकों ने इस दावे को साबित नहीं किया था. इसके बावजूद 2003 में अमेरिका ने अपनी सेना के साथ इराक पर हमला कर दिया. संयुक्त राष्ट्र ने इस हमले की समीक्षा की लेकिन अमेरिका ने यूएन के आपत्तियों और प्रस्तावों को अनदेखा कर दिया. इससे यूएन की भूमिका और प्रभावशीलता को बड़ा झटका लगा और यह संगठन असहाय दिखा.
फंडिंग में भारी कटौती
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ का नाम रखा था तो 26 देशों ने शक्तियों के ध्रुवीकरण के विरुद्ध लगातार एकजुट हो कर लड़ने की शपथ ली थी.
1945 में पचास देशों के प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणा-पत्र बनाने के लिए सैन फ़्रॉसिस्कों में जमा हुए थे. तब मांग हुई कि संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय न्यूयार्क में होना चाहिए. इस मांग को लेकर अमेरिका का आग्रह यह था कि अमेरिका आने वाले भविष्य में इस संस्था के प्रति कटिबद्ध रहेगा.
लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रति अमरीका का स्नेह धीरे-धीरे कम होता गया.
ट्रंप ने अपनी प्राथमिकता सूची में UN को लगभग तिलांजलि दे दी. ट्रंप ने यूएन की फंडिंग में भारी कटौती की. जबकि अमेरिका का ये नैतिक कर्तव्य था कि इस संस्था का संस्थापक होने के नाते वह इसके हितों का भरण-पोषण करता रहे. लेकिन ट्रंप ने अमेरिकी कमिटमेंट की परवाह किए बिना इसकी फंडिंग में कटौती की.
2025 में अमेरिका ने यूएन के नियमित बजट में 13 बिलियन डॉलर का योगदान दिया. जो इसके कुल बजट का एक-चौथाई है. लेकिन ट्रंप ने UNRWA, UNHRC और UNESCO से फंडिंग वापस ले ली. 5 फरवरी 2025 को जारी एक आदेश के तहत इन संगठनों की समीक्षा और फंडिंग रोकने का निर्देश दिया गया, जिससे यूएन की परिचालन क्षमता कमजोर हुई.
ट्रंप ने वैश्विक शासन और बहुपक्षीय सहयोग को खारिज करते हुए "अमेरिका फर्स्ट" नीति पर जोर दिया जिससे यूएन के मूल्यों को चुनौती मिली. क्योंकि यूएन वैश्विक भाईचारे के फलसफे के साथ बना था. लेकिन ट्रंप ने इसकी कदर नहीं की.
UN के संगठनों से अलग हुआ अमेरिका
ट्रंप ने अपने कार्यकाल में संयुक्त राष्ट्र (UN) से जुड़े कई संगठनों से खुद को अलग कर लिया. इसके ट्रंप ने कभी 'अमेरिका फर्स्ट' पॉलिसी का हवाला दिया तो कभी उन्होंने इन संगठनों की कार्य प्रणाली पर सवाल खड़ा किया.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO): ट्रंप ने 20 जनवरी 2025 को एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से अमेरिका को WHO से बाहर कर लिया, ट्रंप ने इसके लिए COVID-19 महामारी में कुप्रबंधन और चीन के प्रभाव का तर्क दिया
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC): 4 फरवरी 2025 को ट्रंप ने UNHRC से अमेरिका की वापसी की घोषणा की. ट्रंप ने इसके लिए इजरायल के खिलाफ पक्षपात और मानवाधिकार उल्लंघन करने वाले देशों को संरक्षण देने का आरोप लगाते हुए.
यूनेस्को (UNESCO): 22 जुलाई 2025 को अमेरिका ने यूनेस्को से हटने की घोषणा की, ये फैसला 2026 के अंत में प्रभावी होगा. ट्रंप ने इस संस्था पर इजरायल विरोधी होने का आरोप लगाया.
पेरिस जलवायु समझौता: ट्रंप ने अमेरिका को पेरिस जलवायु समझौते से भी वापस ले लिया, उन्होंने इसे अमेरिकी हितों के खिलाफ बताया.
निश्चित रूप से दुनिया के सबसे ताकतवर देश के इन संगठनों से बाहर होने की वजह से UN और इससे जुड़े एजेंसियों की ताकत कम हुई, इसके प्रभाव पर असल पड़ा.
यहां एक गहरी विडंबना है कि जिस अमेरिका ने यूएन को जन्म दिया और उसे वैश्विक राजनीति का केन्द्र बताया, वही अमेरिका इसे कमजोर करने में सबसे आगे रहा. सुरक्षा परिषद की संरचना को सुधारने की मांगें लंबे वक्त से उठती रही हैं, लेकिन अमेरिका अपने वीटो अधिकार को खोने का जोखिम कभी नहीं लेना चाहता है.