एक-एक ईंट, एक-एक अक्षर करके अपना निर्माण किया कई राष्ट्रों ने. जापान सरकार ने 1868 में अपनी पुनरुत्थान योजना के तहत एक शिक्षा समिति बनाई और अपने यहां विभिन्न इलाकों में छात्रों को दी जा रही शिक्षा का जायजा लेने के लिए विभिन्न उपसमूह बनाए. उन समूहों ने लौट कर जापान के लिए 200 साल की शिक्षा योजना तैयार की और अगले 40 साल में ही जापान एशिया का पहला पूर्ण साक्षर देश बन गया.
चीन में विश्वविद्यालय व्यवस्था
हाल में चीन में सांस्कृतिक क्रांति की अराजकता के बाद तंग श्याओपिंग ने विश्वविद्यालय व्यवस्था फिर से शुरू की. बड़े पैमाने पर कॉलेजों को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया, तेजी से कैंपस तैयार किए गए. विश्वविद्यालयों का विलय किया गया और बड़े पैमाने पर दाखिला दिया गया. नतीजाः 1977 में जहां 32 में से केवल एक ही छात्र विश्वविद्यालय में दाखिला ले पाता था, वहीं 2003 में यह संख्या बढ़कर 13.2 फीसदी हो गई.
भविष्य में विश्वास की जरूरत
कहने की जरूरत नहीं है कि अब उन युवकों में से अधिकतर बेरोजगार नहीं हैं, लेकिन सबक यह है कि शिक्षा को अल्पकालिक समाधानों या झटपट घोषणाओं की जरूरत नहीं होती. इसके लिए लक्ष्य बदलने और मानदंड को नीचे करने की जरूरत नहीं होती. इसके लिए युवाओं के प्रति निरंतर प्रतिबद्धता और भविष्य में विश्वास की जरूरत होती है. जैसा कि सैम पित्रोदा, जो जल्द ही भंग किए जाने वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के प्रमुख हैं, कहते हैं कि दुनिया भर में शिक्षा के मॉडल 200 साल पुराने हैं. हमें अब सन् 2050 के विश्वविद्यालय और स्कूल की योजना बनानी है. इसमें से काफी कुछ सरकार के लिए सिद्धांततः संभव है, जो हर साल इस क्षेत्र पर सर्वाधिक 44,528 करोड़ रु. खर्च करती है लेकिन उसके प्रयास ओछी राजनीति की भेंट चढ़ जाते हैं. अगले पन्नों पर आप देख सकते हैं कि व्यक्ति विशेष भी परिवर्तन ला सकते हैं.
प्रत्येक युवक हो उत्पादक इकाई
इस बदलाव का उद्देश्य यह होना चाहिए कि प्रत्येक बच्चा उत्पादक युवक बने. उस विडंबना को दूर करने की जरूरत है जिसके बारे में अर्थशास्त्री ए. के. शिवकुमार कहते हैं कि अमीर बच्चे सरकारी विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं और गरीब बच्चे गाढ़ी कमाई चूसने वाली निजी संस्थाओं में जा रहे हैं.{mospagebreak} उनमें से कई दोयम दर्जे की ऐसी संस्थाएं बन गई हैं जो दोयम दर्जे के छात्र तैयार करती हैं जिसकी वजह से किनारे पड़े छात्र और किनारे पड़ जाते हैं. मिसाल के तौर पर, गौर कीजिए कि एनसीईआरटी के निदेशक कृष्ण कुमार जब दिल्ली के गार्गी कॉलेज में बी.एड की कक्षा ले रहे थे तो एक छात्रा ने क्या लिखाः जब आप पढ़ाते हैं तो मैं कुछ और हो जाती हूं.
जुझारूपन की ज्यादा जरूरत
स्कूल छोड़ने वाले छह से 14 वर्ष के 20 करोड़ बच्चों को इस विशेषाधिकार से वंचित क्यों किया जाना चाहिए? हर छात्र को पूर्वी सिंहभूम की 17 वर्षीया स्वप्ना पटनायक की तरह क्यों नहीं होना चाहिए, जिसने जमशेदपुर में टिस्को की मदद से तैयार मुफ्त शिक्षा वाले स्कूल प्रेम ज्योति प्रांगण में पढ़ाई की और दसवीं के बोर्ड में 83 प्रतिशत अंक लाकर उत्तीर्ण हुई? 42 वर्षीय ऑटोरिक्शा चालक का बेटा रंजीत कुमार बाहरी दिल्ली के भारतीय विद्या भवन में कंप्यूटर कोर्स करके कम से कम 10,000 रु. महीने वाली किरानी की नौकरी करने में सक्षम क्यों नहीं है?
कई बदलाव हैं उलझनों से भरे
एक ओर जहां हम बुनियादी शिक्षा के मुद्दों से जूझ रहे हैं (स्कूल छोड़ने वाले केवल 11 फीसदी बच्चे कॉलेज में दाखिला ले पाते हैं), वहीं नए विचार इस पूरे मकड़जाल को साफ कर रहे हैं. नए मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल काफी उत्साह में तो हैं लेकिन एक साथ कई उलझनपूर्ण बदलावों की पहल करते दिख रहे हैं. वैसे, यह साफ है कि बातें करने का समय निकल गया है. शिक्षा के कार्य-व्यापार में सुधार के पर्याप्त उपाय किए जा चुके हैं. कुछ लोग बस बदलाव करने में जुटे हैं. थर्मैक्स की अध्यक्ष अनु आन्नगा को ही लें, जिन्होंने पुणे के दो पालिका स्कूलों को गोद ले लिया और उन्हें अंग्रेजी माध्यम के स्कूल बना दिया. इसी तरह के सेवाभाव से काम करने वाली एक और शख्स रोहिणी नीलेकणी ने पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया में अपना दांव लगा दिया है, जो गुड़गांव, गांधीनगर और हैदराबाद में किराये पर लिये गए भवनों में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर पाठ्यक्रम चलाता है ताकि इस क्षेत्र में पेशेवरों की कमी पूरी की जा सके.
कुछ विश्वविद्यालय घाटे में
प्रौद्योगिकी के परिदृश्य के ऊपरी तथा निचले, दोनों छोरों पर कई व्यक्तियों ने मेधा का साम्राज्य निर्मित किया है. मसलन, एनआइआइटी के विजय थडानी और राजेंद्र पवार को लें. उन्होंने 15 लाख रु. की निजी बचत समेत कुल 1 करोड़ रु. से मैक्डॉनल्ड की फ्रैंचाइजी के मॉडल पर सॉफ्टवेयर तैयार करने वाली बड़ी कंपनी बनाई. दूसरे छोर पर जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च को लें जिसकी स्थापना दिग्गज रसायनशास्त्री सी.एन.आर. राव ने 1989 में 4 करोड़ रु. से की थी ताकि उच्च-स्तरीय वैज्ञानिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण को बढ़ावा मिले. कभी-कभी कोई शख्सियत नरेंद्र जाधव की तरह स्वायत्तता के अपने अधिकार का प्रयोग करती है. उन्होंने पुणे विवि के कुलपति के तौर पर उसके एक-एक पैसे का सही मकसद के लिए इस्तेमाल किया हालांकि वह 156 करोड़ रु. के घाटे में है.
घुटने टेकने की आदत बुरी
ये वो शख्स हैं जिन्होंने लालफीताशाही के आगे घुटने नहीं टेके, जैसे सरकार को अपने महती कार्य से हार नहीं माननी चाहिए. कई विद्वानों ने संकेत किया है कि प्रायः हर चीज प्राथमिकता के दायरे में है, चाहे यह स्कूली शिक्षा हो या रोजगारोन्मुख शिक्षा या उच्च शिक्षा. विभिन्न स्तरों, खासकर व्यावसायिक शिक्षा में सुस्त नियमन के कारण, जैसा कि दीपक नायर कहते हैं, चोरी-छिपे निजीकरण हो गया है. {mospagebreak}नए मंत्री ने शिक्षा में सुधार के लक्ष्य स्पष्ट रूप से तय कर दिए हैं-हर स्तर पर शिक्षा को सबके लिए उपलब्ध करना, जो कि विश्व औसत के मुकाबले बहुत कम है; समानता, जिसका स्तर अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और कुछ अल्पसंख्यक तबकों के लिए राष्ट्रीय औसत के मुकाबले भी काफी नीचे है; स्तरीयता, जो कुछ गिने-चुने उत्कृष्ट शिक्षा केंद्रों में ही पाई जाती है.
दोराहे पर खड़ा है हमारा देश
बेशक कई सवाल भी हैं, जिनके ऊपर बहस की जरूरत है. क्या, जैसी कि वैज्ञानिक आर. नरसिम्हा की चिंता है, भारत को कामगारों के ही देश में बदल दिया जाए या जैसी कि जवाहरलाल नेहरू की ख्वाहिश थी, यहां विशुद्ध विज्ञान के लिए उपक्रम को जीवित करने की कोशिश की जाए? क्या कंपनियां सरकार की मंजूरी का इंतजार किए बिना शिक्षा संस्थानों को पैसे की मदद करें और डिप्लोमा की पेशकश करके व्यवस्था को दरकिनार करने के रास्ते तलाशें या वे राज्य के विश्वविद्यालय से मान्यता दिलाने की व्यवस्था करें या फिर वे तब तक इंतजार करें जब तक नियमन की व्यवस्था चाक-चौबंद न हो जाए? क्या हम इसी बात से अपना सीना फुलाते रहें कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने यहां के स्कूली बच्चों को हिदायत देते हैं कि वे भारत से कुछ सीखें (''चीनी, भारतीय, ये सब हमारे लिए कड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं. उनके अंदर भूख है और वे वाकई कमर कस चुके हैं.''). या हम कारखानों, चाय की दुकानों, गली-कूचों से तमाम बच्चों को निकाल कर स्कूलों में भर दें?
विचारों की नहीं है कोई कमी
जैसा कि टीमलीज सर्विसेज के मनीष सभरवाल कहते हैं, विचारों की कोई कमी नहीं है. उनकी कंपनी ने खास-खास कामों के लिए नए स्नातकों को प्रशिक्षित किया और फिर उन्हें नौकरी पर रखा और इस तरह अपनी इक्विटी में इजाफा किया. वे कहते हैं कि विचार तो बस टपके पड़ रहे हैं और तरक्की का रास्ता यह है कि नसीहत और अमल के बीच होने वाली गड़बड़ी को कम किया जाए. असली सवाल है विचारों को लागू करने का. अगले पन्नों पर जिन शख्सियतों और संस्थानों की मिसालें दी गई हैं वे यही बताती हैं कि कभी-कभी सबसे अच्छी बात यह होती है कि शुरुआत कर दी जाए, भले ही वह छोटी-सी ही क्यों न हो.
हालात का जायजा
-भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रशिक्षित फैकल्टी की 40 प्रतिशत कमी है.
-2007 में सरकारी स्कूलों के आधे बच्चे चार-पांच साल तक पढ़ाई करने के बाद भी ठीक-ठीक पढ़-लिख नहीं पाते थे.
-उच्च शिक्षा लेने वाले छात्रों की संख्या में चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरे नंबर पर है.
-भारत में शिक्षा लेने आए 50,000 विदेशी छात्रों से हर साल 2000 करोड़ रु. की आय होती है.
-भारतीय विश्वविद्यालय बिजनेस मैनेजमेंट के कोर्स के लिए 10,000 डॉलर की फीस लेते हैं. अमेरिका में फीस 80,000 डॉलर.
-गांवों के 9.19 फीसदी प्राथमिक तथा उच्च माध्यमिक स्कूलों में 2007-08 तक एक ही कमरा था.