शाहजहांनाबाद जैसे पुराने शहर दिखाते हैं कि दरवाजाबंदी और किलेबंदी भारत में सामुदायिक जीवन का एक अहम हिस्सा रही है. दूसरी ओर आधुनिकता में ज्यादा खुलेपन का विचार निहित था.
लेकिन दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, चीन, तुर्की और ब्राजील सहित दुनिया भर में ध्यान आकर्षित करने वाली एक प्रवृत्ति के साथ तालमेल बनाते हुए हम एक आत्मनिर्भर समुदाय की अनोखी धारणा की ओर फिर वापसी देख रहे हैं, एक ऐसी दुनिया की ओर जिसमें दुनिया भर की समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए चारों तरफ एक दीवार चुन ली जाती है. दरवाजाबंद रिहायशी एन्क्लेव शहरी भारत में रियल एस्टेट के विकास का एक सबसे पसंदीदा रूप हो गया है. इसके अलावा, विशाल ग्रामीण क्षेत्र हैं, जो दरवाजाबंद एन्क्लेवों में तब्दील होकर रातोरात शहरी हो गए हैं.
देश भर के कई बड़े और छोटे शहरों में दरवाजाबंद समुदायों का निर्माण हो रहा है (या वे पहले से मौजूद हैं) और इसमें चकरा देने वाले पैमाने पर जमीन इस्तेमाल हुई है. लिहाजा, सहारा कॉर्पोरेशन 'देश के 217 शहरों में सुनियोजित आत्मनिर्भर उच्च गुणवत्ता वाली टाउनशिप्स की विश्व की सबसे लंबी श्रृंखला' बनाने की योजना है (अहमदाबादः 104 एकड़; कोयंबटूर, केरलः 103 एकड़; लखनऊ: 200 एकड़). सहारा कॉर्पोरेशन पहले ही पुणे के निकट 10,000 एकड़ में एम्बी वैली टाउनशिप का निर्माण कर चुका है, जिसे 'स्वतंत्र भारत का पहला नियोजित, आत्मनिर्भर, मुग्ध करने वाला, अपनी अभूतपूर्व भव्यता और शानदार खास फीचर्स के लिए जाना-जाने वाला शहर' कहा गया है. {mospagebreak}
राजस्थान के भिवाड़ी टाउनशिप में कम-से-कम 11 रियल एस्टेट कंपनियों द्वारा अलग-अलग कीमतों वाली दरवाजाबंद रिहायशी परियोजनाएं शुरू किए जाने की खबर है, जो रिलायंस और ओमैक्स जैसी बड़ी कंपनियों द्वारा कई निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के विकास की प्रस्तावना से मुनाफा कमाने की उम्मीद कर रही हैं.
इन दरवाजाबंद एन्क्लेवों की मार्केटिंग का सबसे उल्लेखनीय पहलू इनकी आत्मनिर्भर प्रकृति के प्रचार को लेकर होता है. संभावित निवासियों को बताया जाता है कि वे यहां हर तरह के अपराध से सुरक्षित रहेंगे, 'बाहर' की दुनिया की असुविधाओं से मुक्त होकर जीवन का आनंद ले सकेंगे, एक असली शांतिपूर्ण माहौल का अनुभव कर सकेंगे और उनका वास्ता सिर्फ 'अपने जैसे' लोगों से पड़ेगा बार-बार इसे हमारे अपने रिहायशी डिज्नीलैंड का सपना कहा जाता है. आपको हाथोहाथ किसी वैश्विक प्राकृतिक नजारे में पहुंचा देने का वादा इन दरवाजाबंद एन्क्लेवों की मार्केटिंग की परीकथानुमा प्रकृति को और पुष्ट कर देता है. {mospagebreak}
'समेकित टाउनशिप्स' का निर्माण, जिसमें किसी को काम पर जाने के लिए भी गेट से बाहर न जाना पड़े, आत्म-केंद्रित विश्व की भावना को और तेज कर सकता है. तो क्या हम उस स्थिति के रू-ब-रू हैं, जिसे वह समाज बना रहा है जो यह विश्वास करता है कि सामाजिक समस्याओं को सीधे नजरों से दूर किया जा सकता है और जो इसका खर्च उठा सकते हों उन्हें इन समस्याओं से परे किलेबंद एन्क्लेव्स में चले जाना चाहिए?
यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या दरवाजाबंद समुदाय हमारे जटिल समाज की आवश्यकताओं और समस्याओं का वास्तविक समाधान हैं? फिर भी, ये दरवाजाबंद समुदाय जिस बात को रेखांकित करते हैं वह है-सुरक्षा, और रोजमर्रा की बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करा सकने की राज्य व्यवस्था की क्षमता पर अविश्वास, इस बात का सशक्त एहसास कि मध्यवर्ग को शहरी 'निम्नतर वर्गों' से खतरा है और इस बात की व्यापक मान्यता कि ऐसे खतरों का मुकाबला सिर्फ अति सुरक्षित इलाकों का निर्माण करके ही किया जा सकता है. {mospagebreak}
दरवाजाबंद एन्क्लेव हमें पश्चिम के प्रति दृष्टिकोण के बारे में भी कुछ रोचक बातें बताते हैं. यही कारण है कि बिलकुल शुरुआती एन्क्लेवों के नामकरण (रिजवुड, विंडसर, प्रिंसटन) में लगभग निरपवाद ढंग से अंग्रेजी उच्चवर्गीय जीवन की छवि की देखादेखी करने की कोशिश की गई. बाद में हुए निर्माणों को ऐसे नाम दिए गए, जो स्थान को लेकर एक ज्यादा वैश्विक एहसास दिला सकें.
उदाहरण के लिए- द आइकन, वर्ल्ड स्पा, न्यू टाउन हाइट्स. रोचक बात यह है कि यह प्रत्यक्ष वैश्विकता धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ चल रही है. उदाहरण के लिए करवा चौथ जैसे रीतिरिवाज इस नए इंडिया की दीवारों के भीतर एक नया जीवन पा गए हैं. शायद यह बॉलीवुड का असर है. नई भारतीय नारी अपने पति के स्वास्थ्य की कामना से पूजा भी करती है और निजी जिम्नेजियम में व्यायाम भी करती है. हालांकि, बॉलीवुड की पुरानी फिल्मों वाले भारत के विपरीत, दरवाजाबंद समुदाय धार्मिक विविधता रखने की कोशिश नहीं करते हैं. {mospagebreak}
रिहायशी इलाकों को भौतिक तौर पर अलग चिन्हित करने के लिए दरवाजे लगाने की बात हमारे दौर के लिए कोई नई नहीं है. दिल्ली की तमाम रिहायशी बस्तियों में अहम प्रवेश बिंदुओं पर दरवाजे लगवाने और उनका रखरखाव करने में रेजिडेंट वेलफेअर एसोसिएशंस (आरडब्लूए) विशेष तौर पर सक्रिय रहते हैं. दिल्ली के रिहायशी इलाकों में 'दरवाजाबंदी' का काम 1980 के दशक के मध्य के आसपास शुरू हुआ था और शहर के विभिन्न इलाकों में रेजिडेंट वेलफेअर एसोसिएशंस के झंडे तले चला था.
संपन्न लोगों ने 'सुरक्षा' का हवाला देते हुए आने-जाने के सार्वजनिक रास्तों पर अवरोध खड़े कर दिए और निजी किस्म के स्थानों का निर्माण कर दिया. ये कार्यवाहियां ठीक-ठीक तौर पर कानूनसम्मत तो नहीं थी, लेकिन न तो सरकार ने उनसे कोई सवाल किया और न सामाजिक संगठनों ने. गुड़गांव और बैंगलोर के दरवाजाबंद समुदायों ने पृथक्करण के ऐसे विचारों का और विस्तार किया और उन्हें और पुष्ट किया.
दरवाजाबंद एन्क्लेव एक स्पष्ट समाधान की जगह उन समस्याओं का प्रतीक ज्यादा नजर आते हैं, जिनका एक समाज के तौर पर हम सामना कर रहे हैं. गलियों और बाजारों के 'खतरों' की तुलना में, विशेषकर महिलाओं के लिए, उनमें एक मुक्त स्थान उपलब्ध होता है, लिहाजा उन्हें प्रायः ज्यादा पसंद किया जाता है. इसके बावजूद यह साफ नजर आना चाहिए कि हमें जिस चीज से निबटना है वह हमारे सार्वजनिक स्थानों की खतरनाक या कहिए कि मर्दाना संस्कृति है. हमें यह नहीं मान बैठना चाहिए कि समाधान मेलजोल के कृत्रिम स्थानों के निर्माण में है. {mospagebreak}
दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि जनसंख्या के सबसे बड़े वर्ग के लिए (या उन महिलाओं के लिए जो काम के वास्ते निकलती हैं) दरवाजाबंद समुदाय सार्वजनिक हिंसा से बचने का कोई विकल्प नहीं पेश करता है. फिर उस प्रचुरता के वादे का क्या कहेंगे, जो दीवारों में सीमित समुदाय का एक मुख्य आकर्षण है? निश्चित तौर पर एक सुखद अस्तित्व के लिए दैनंदिन की सुविधाओं को जुटाने में गलत कुछ नहीं है.
लेकिन, जैसा कि हाल की मीडिया खबरों से संकेत मिलता है, गुड़गांव में साझी मिल्कियत वाली बस्तियों में पानी और बिजली की निर्बाध आपूर्ति भारी-भरकम निजी और सामाजिक लागत से सुनिश्चित की जाती है, और इसमें से सामाजिक लागत को लेकर हमें खास तौर पर चिंतित होना चाहिए. निजी तौर पर उत्पादित बिजली और भूमिगत जल के भारी-भरकम शोषण की पर्यावरणीय लागत को बिजली के बिलों और पानी के शुल्क के आंकड़ों से पूरा नहीं किया जा सकता है. {mospagebreak}
निजी सुविधा की दीर्घकालिक सामाजिक लागत पर विचार करना होगा. हर हालत में, गुड़गांव में रहने वाला कोई भी यह तो जानता ही है कि कभी खत्म न होने वाले पानी की आपूर्ति के वादे अंततः फतेहपुर सीकरी का रास्ता पकड़ लेंगे. इस तरह के समुदायों से सामुदायिक जीवन और सामाजिक मेलजोल की प्रकृति को लेकर जिस किस्म की सोच पैदा हो सकती है, वह संभवतः इन दरवाजाबंद समुदायों का सबसे अहम पहलू है. दरवाजे दुनिया को बाहर छोड़ देने और स्वयं को उन लोगों की समस्याओं से खुद को अलग रखने के प्रतीक हैं, जो दरवाजों के भीतर आने में समर्थ नहीं होते हैं.
यह देखते हुए कि भारतीय समाज को सामाजिक स्तरों और विशिष्टता के सबसे विस्तृत नए प्रतीक गढ़ने में विशेषज्ञता हासिल है, विश्व भर में प्रचलित होने के बावजूद दरवाजाबंद एन्क्लेव संभवतः एक विशुद्ध भारतीय घटना हैं. लेकिन अगर मध्यवर्गीय भारतीयों की अगली पीढ़ी दरवाजाबंद एन्क्लेवों के फाटकों के बीच से अनुभव की गई बातों के आधार पर ही अपनी विश्व दृष्टि का निर्माण करती है, तो यह दुखद होगा.
लेखक द इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं