अगर 15 अगस्त को आप घूमने का प्लान बना रहे हैं तो क्यों न ऐसी जगह जाएं जहां आजादी की असली कीमत दिल से महसूस हो. फतेहपुर में स्थित 'बावनी इमली' वो जगह है, जहां 28 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों ने एक इमली के पेड़ पर 52 क्रांतिकारियों को फांसी दी थी. यह पेड़ आज भी खड़ा है, लेकिन कहते हैं उस दिन के बाद से इसमें नया पत्ता नहीं आया . यह सिर्फ एक पेड़ नहीं, बल्कि आजादी की सबसे दर्दनाक कहानियों का गवाह भी है.
यहां पहुंचकर आपको केवल इतिहास नहीं, बल्कि वो कसक भी महसूस होगी जिसने स्वतंत्रता की नींव रखी. इस बार आपका सफर आजादी के असली नायकों से एक भावुक मुलाकात बन सकता है.
1857 की क्रांति बैरकपुर से शुरू हुई तो उसकी लहर उत्तर प्रदेश के फतेहपुर तक पहुंची. यहां जोधा सिंह अटैया ने डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खां के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजा दिया. सबसे पहले उन्होंने कचहरी और खजाने पर कब्जा किया. फिर पांडु नदी के किनारे अंग्रेजी फौज को हराकर कानपुर तक क्रांतिकारी झंडा फहरा दिया. जोधा सिंह यहीं नहीं रुके, उन्होंने पुलिस चौकियों पर हमला किया, अंग्रेज अफसरों को सजा दी और बुंदेलखंड और अवध के वीर योद्धाओं को एकजुट कर आजादी की लड़ाई को और तेज कर दिया था.
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जोधा सिंह का ठिकाना खजुहा था. अंग्रेज कई बार हमला करते, लेकिन उनकी गुरिल्ला लड़ाई की रणनीति हर बार उन्हें हरा देती. लेकिन जैसा अक्सर होता है, वीरों के बीच गद्दार भी निकल आते हैं. ऐसा ही हुआ, किसी ने अंग्रेजों को खबर दे दी. फौज ने घेराबंदी की और जोधा सिंह अपने 51 साथियों के साथ पकड़ लिए गए.
28 अप्रैल 1858 की सुबह, मुगल रोड के किनारे एक इमली के पेड़ के नीचे सभी को फांसी पर चढ़ा दिया गया. इतना ही नहीं अंग्रेजों ने ऐलान किया कि जो भी शव उतारेगा, उसका भी यही अंजाम होगा. ऐसे में कई दिनों तक लाशें लटकी रहीं, गिद्ध उन्हें नोचते रहे और गांव वाले डर और आंसुओं में सब देखते रहे.
आखिरकार महाराजा भवानी सिंह ने हिम्मत जुटाई. उन्होंने साथियों के साथ शवों को पेड़ से उतारा और उनका अंतिम संस्कार किया. आज वह जगह एक शहीद स्मारक बन चुकी है. पेड़ अब भी खड़ा है, लेकिन उसमें नए पत्ते नहीं आते. इतना ही नहीं वहां की हवा भी भारी लगती है, जैसे हर झोंके में 52 गले रुकने की आवाज अब भी गूंज रही हो.
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