भारतीय भक्ति परंपरा में राधा का स्थान सिर्फ श्रीकृ्ष्ण की प्रेमिका के तौर पर नहीं है. उन्हें श्रीकृष्ण की नित्य लीला सहचरी बताया जाता है. इस आधार पर उन्हें कई जगहों पर योगमाया का अवतार, प्रकृति का स्वरूप और कही जगहों पर तो प्रेम की ही साकार प्रतिमा बताया जाता है.
इस आधार पर भी उन्हें केवल श्रीकृष्ण की प्रिया या ब्रज की गोपी कहकर सीमित नहीं किया जा सकता. राधा असल में भक्ति का वह शिखर हैं, जहां स्वार्थ और अहंकार समाप्त हो जाते हैं. उनकी कथाएं हमें प्रेम का सबसे शुद्धतम और सरलतम रूप सामने रखती हैं और लोक में यह धारणा स्थापित करती हैं कि प्रेम केवल पाने का नाम नहीं, बल्कि त्याग और समर्पण की पूर्णता का ही नाम है.
जब श्रीकृष्ण पर आया संकट
लोककथाओं में एक प्रसंग आता है कि एक बार श्रीकृष्ण को भयंकर सिरदर्द हो गया. वे बेसुध हो गए और बोले कि यदि कोई गोपी अपनी चरण-रज मेरे मस्तक पर मल दे तो मैं ठीक हो जाऊंगा.
सभी गोपियां प्रेम का दावा करती थीं, परंतु इस समय सभी पीछे हट गईं. उनका तर्क था—“हम अपने स्वामी, अपने प्रिय के मस्तक पर अपने पैरों की धूल कैसे रख सकते हैं?” लेकिन राधा का नजरिया उनसे अलग था. उन्होंने यह पाप, नर्क का अभिशाप या किसी लोक-लाज लिहाज को लेकर नहीं सोचा. बल्कि वह तो भाई चली आईं और बिना देर किए अपनी चरण-रज श्रीकृष्ण के मस्तक पर रख दी. उसी समय कृष्ण का दर्द शांत हो गया.
यह प्रसंग राधा के प्रेम और त्याग की अद्भुत पराकाष्ठा है. उनके लिए स्वर्ग-नर्क की कोई अलग धारणा नहीं थी. कृष्ण के सुख में ही उनका स्वर्ग था और कृष्ण की पीड़ा में ही उनका नर्क.
शाक्त परंपरा में राधा का स्थान
केवल लोककथाओं में ही नहीं, बल्कि शास्त्रों में भी राधा की महिमा को शक्ति के रूप में बताया गया है. शाक्त परंपरा में कहा गया है कि सारी सृष्टि की गतिविधियां एक परमशक्ति के अधीन हैं, जिसे त्रिपुरसुंदरी, दुर्गा, महामाया, महालक्ष्मी और महाकाली के रूप में जाना जाता है. दस महाविद्याओं में प्रथम महाविद्या देवी काली को माना गया है और राधा को भी उसी परमशक्ति का रूप बताया गया है.
देवी भागवत पुराण का क्या नजरिया
देवी भागवत पुराण में यह उल्लेख मिलता है कि भगवान विष्णु भी देवी भगवती के अधीन हैं और उन्हीं के आदेश से अवतार लेते हैं. द्वापर युग में जब अधर्म बढ़ा, तो देवी भगवती के काली अंश से ही विष्णु ने कृष्ण रूप में अवतार लिया. इस दृष्टि से कृष्ण केवल विष्णु के अवतार नहीं थे, बल्कि देवी काली के स्वरूप अवतार थे. तब राधा उस पराशक्ति का ही दूसरा रूप बन कर अवतार लेती हैं. यानी कृष्ण और राधा दोनों ही शक्ति और शक्ति-पुंज के अवतार हैं.
प्रेम और शक्ति का संगम
जब हम राधा को केवल एक प्रेमिका के रूप में देखते हैं तो उनकी आध्यात्मिकता का पूरा अर्थ समझ नहीं पाते. राधा का स्वरूप शक्ति का स्वरूप है. वह वही शक्ति हैं जिनसे सृष्टि चलती है, और वही शक्ति हैं जो कृष्ण के प्रेम में ढलकर निस्वार्थ भक्ति का आदर्श बन जाती हैं. उनकी भक्ति केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक है. इसमें व्यक्ति और ईश्वर, आत्मा और परमात्मा का भेद मिट जाता है.
मथुरा से लेकर बंगाल तक कई लोककथाओं में राधा और काली का यह संबंध दिखता है. वृंदावन के कृष्णकाली मंदिर और कोलकाता के कृष्णकाली विग्रह इसका प्रमाण माने जाते हैं. इनमें कृष्ण को काली रूप में पूजा जाता है, जिनका मुख कृष्ण जैसा और स्वरूप काली जैसा है. इस लोककथा में भी राधा की उपस्थिति की अलग ही व्याख्या है. कृष्ण और राधा का संबंध ऐसा माना गया है कि जिसे अलग-अलग तौर पर नहीं देखा जा सकता है.
राधा केवल एक ऐतिहासिक या पौराणिक चरित्र नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुभव का प्रतीक हैं. उनके जीवन और कथा से हमें यह संदेश मिलता है कि प्रेम में स्वार्थ नहीं होता. सच्चा प्रेम वही है जिसमें प्रिय की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझा जाए और प्रिय का सुख ही अपना सुख बन जाए. यही कारण है कि राधा को भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप कहा गया है.
राधा का प्रेम, त्याग और समर्पण हमें भक्ति का सच्चा अर्थ समझाता है. राधा को न केवल कृष्ण की प्रिय बल्कि परमशक्ति का स्वरूप बताया गया है. यही राधा का असली परिचय है—भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप के रूप में सामने आता है.