सनातन परंपरा में व्रत-त्योहार और तिथियों के आधार पर रहन-सहन का बहुत महत्व है. इसे ऐसे समझिए कि कभी एकादशी का उपवास, कभी चतुर्थी की पूजा, किसी तिथि में सिर्फ फलाहार तो वहीं किसी खास तिथि में छप्पन भोग जैसी व्यवस्था.
एक सामान्य जीवन जीने के साथ ही सनातन तपस्या और भोग के बीच संतुलन बना कर चलने का आग्रह करता है. हालांकि बदली हुई जीवन शैली में हम इन परंपराओं से दूर तो हो ही गए हैं, साथ ही इसके सही मर्म को भी भूल चुके हैं.
व्रत-परंपरा और त्योहार भी सिर्फ एक खास दिन के आयोजन की तरह बीतने लगे हैं और इसके पीछे के विज्ञान को न समझ पाने के कारण हम इसके वास्तविक लाभ से अछूते रह रहे हैं. विडंबना ये है कि आजकल इन तिथियों और उनके व्रतों के पालन का भी चलन बढ़ गया है, लेकिन जिस सिद्धांत के आधार पर इन व्रत-परंपराओं को बनाया गया रहा होगा, वो सिद्धांत ही इन परंपराओं से खो चुका है.
चातुर्मास से क्या समझते हैं आप?
उदाहरण के लिए, अगर बात करें कि आजकल चातुर्मास चल रहा है. आप किसी से भी पूछ लीजिए कि चातुर्मास क्या है? तो उनके पास एक जवाब होगा कि भगवान विष्णु चार महीनों के लिए विश्राम के लिए चले जाते हैं और सृष्टि का संतुलन शिवजी संभाल रहे होते हैं. यही चातुर्मास है. अब पूछिए कि इससे असर क्या पड़ता है, इस दौरान क्या होता है? इस सवाल का जवाब मिलेगा कि इस दौरान तामसिक भोजन नहीं करना चाहिए. विवाह जैसे मांगलिक कार्यक्रम नहीं होते हैं, आदि-आदि, लेकिन इनकी मनाही क्यों है, भोजन का परहेज क्यों है? इन सवालों के सटीक जवाब शायद ही कहीं से मिल पाएं?

लखनऊ में आयुर्वेदिक केंद्र शतभिषा के डॉक्टर प्रदीप चौधरी इस विषय को बड़ी बारीकी से समझाते हैं. वह कहते हैं कि सनातन परंपरा में जो भी विधान हैं, और उनके जो भी कारण लोगों के बीच मौजूद हैं वह भ्रम की स्थिति पैदा करते हैं. जरूरत है इन परंपराओं की वजह डीकोड करने की और इन वजहों का जवाब आयुर्वेद में मिलता है.
अब जैसे आजकल के समय को ही देखें तो यह वर्षाकाल है. ऋतु परंपरा में चार माह का समय वर्षा ऋतु के लिए तय है. इस दौरान गठिया आदि के मरीजों में दर्द बढ़ जाता है. इसके अलावा सामान्य लोग भी यह महसूस करते होंगे कि उनका पेट भारी हो रहा है. गैस की समस्या है, पाचन प्रक्रिया ठीक नहीं है.
क्यों चार महीनों में होता है भोजन में परहेज का विधान
इन सभी व्याधियों (रोग) का कारण है मंद अग्नि. मंद अग्नि का मतलब है हमारे पेट में भोजन को पचाने का काम करने वाली जो जठराग्नि है, वह मंद हो जाती है और इन चार महीनों तक थोड़ी मंद ही रहती है. यह प्रभाव वर्षा के कारण ही होता है. इसलिए ,अगर आप भारतीय खान-पान को देखेंगे तो इस मौसम में हल्का भोजन करने को कहा जाता है, इसलिए कई सारे व्रत भी इस मौसम में रहते हैं. खास तौर पर पहले आषाढ़ में, फिर पूरे सावन में मांसाहर का निषेध बताया जाता है, इसके बाद भाद्रपद में भी कुछ व्रत और त्योहार, क्वार में पहले पितृपक्ष और फिर नवरात्रि के नौ दिन.
इसके अलावा, ध्यान देने वाली बात है, इन सभी व्रतों और त्योहारों का होना तब हो रहा होता है, जब भगवान विष्णु विश्राम के लिए चले जाते हैं यानी हरिशयनी एकादशी से, जो कि आषाढ़ की एकादशी की तिथि होती है. देवशयनी के बाद जब भगवान विष्णु सोने चले जाते हैं और फिर जब चार माह बाद उठते हैं तो इस टाइम ड्यूरेशन को ही चातुर्मास कहते हैं, यानी वही समय जब पेट की पाचक अग्नि कमजोर हुई रहती है. इस दौरान तला-भुना, गरिष्ठ भोजन ठीक से पच नहीं पाता है, इसलिए इन सभी का निषेध और परहेज बताया जाता है.
भगवान विष्णु के नाम वैश्वानर का आयुर्वेद से संबंध
इस तथ्य को परंपरा से बड़ी खूबसूरती से जोड़ा जा सकता है. भगवान विष्णु के एक हजार नामों में से एक प्रमुख नाम है वैश्वानर. ऋग्वेद में अग्नि को भी वैश्वानर कहा गया है. भगवद् गीता में एक महत्वपूर्ण संदर्भ में इसका उल्लेख भी आता है. गीता के अध्याय 15 में श्लोक 14 में इसका विवरण मिलता है. यहां भगवान कृष्ण (जो विष्णु का अवतार हैं) खुद को वैश्वानर कहते हैं.
श्लोक देखिए-
'अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापान समायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥'
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, 'मैं वैश्वानर अग्नि हूं, अर्जुन, और मैं सभी जीवों के शरीर में निवास करता हूं. प्राण और अपान वायु के साथ मिलकर मैं चार प्रकार के भोजन को पचाता हूं.' यहां, वैश्वानर को पाचन अग्नि के रूप में वर्णित किया गया है, जो सभी जीवों में भगवान की उपस्थिति को दर्शाता है.

ऋग्वेद में अग्नि का नाम है वैश्वानर
ऋग्वेद में, वैश्वानर को मुख्य रूप से अग्नि देवता के साथ जोड़ा गया है, विशेष रूप से अग्नि के रूप में जो यज्ञों में उपयोग किया जाता है. ऋग्वेद (10.79, 80) में अग्नि वैश्वानर का वर्णन है. मांडूक्य उपनिषद में, वैश्वानर को आत्मा के चार पहलुओं में से एक के रूप में वर्णित किया गया है, जो जागृत अवस्था (जाग्रत) से संबंधित है. यह आत्मा का एक सार्वभौमिक रूप है और पुराणों में इसी अग्नि के तेज होने पर इसे जागृत अवस्था में और मंद होने पर इसे ही सुप्त अवस्था के तौर पर वर्णन किया गया है. यहीं से देवशयनी, यानी चार महीने के लिए भगवान विष्णु के सोने का कॉन्सेप्ट आया है.
छांदोग्य उपनिषद में वैश्वानर विद्या का उल्लेख है, जो वैश्वानर को सार्वभौमिक आत्मा के रूप में वर्णित करता है. भगवान विष्णु को यह नाम विश्व और अनर के संयुक्त रूप से पिता या स्वामी होने के तौर पर मिला है. अनर का अर्थ होता है वायु. इसलिए प्राणवायु विष्णु ही हैं और वही वैश्वानर भी हैं.
आयुर्वेद में औषधि है वैश्वानर चूर्ण
आयुर्वेद में एक औषधि भी है, वैश्वानर चूर्ण. यह चूर्ण पेट में मंद हुई अग्नि को तेज करने की औषधि के तौर पर दिया जाता है, जिसके पाचन की क्रिया ठीक से हो सके. इसका मतलब यही है, सृष्टि में भगवान विष्णु सो गये यानी शरीर में अग्नि मंद हो गई है. इस दौरान शिवजी की सत्ता होने का अर्थ ये है कि जिस तरह महादेव सिर्फ बेलपत्र और आक-धतूरा जैसे सहज प्रयास से प्रसन्न हो जाते हैं, इसी तरह मनुष्य भी कम से कम भोजन के मामले में बहुत स्वाद और विधान न खोजे, जो हल्का-फुल्का सुपाच्य आसानी से उपलब्ध हो जाए उसे खाकर समय बिताएं.
व्रत-परंपरा और त्योहार की संस्कृति यूं ही नहीं है, इसका आस्था और मान्यता से भी अधिक लेना-देना नहीं है, लेकिन इन मान्यताओं के पीछे का सिद्धांत सिर्फ इतना भर है 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः' यानी सभी सुखी रहें, सभी निरोगी रहें.