Ayodhya Ram Mandir Dhwajarohan 2025: अयोध्या के श्री रामलला मंदिर पर 25 नवंबर को धर्म ध्वजा फहराई गई. मंदिर के शिखर पर ध्वज स्थापना के साथ ही उस पर अंकित कोविदार वृक्ष भी चर्चा में आ गया है. चर्चा बढ़ी तो अलग-अलग मत सामने आए, कुछ विद्वानों ने कहा कि यह कोविदार है, जबकि कुछ ने इसे कचनार बताया. इसके बाद यह तथ्य भी सामने आया कि महर्षि कश्यप ने पारिजात और मंदार वृक्षों के गुणों के संगम से कोविदार वृक्ष की रचना की थी, यानी यह एक तरह का हाइब्रिड वृक्ष है.
अपने दिव्य और औषधीय गुणों के कारण यह वृक्ष प्राचीन काल से ही लोकप्रिय और लोकपूजित रहा है. अयोध्या में श्री रामलला के मंदिर परिसर में भी यह दिव्य वृक्ष इक्ष्वाकु वंश यानी रघुकुल की तेजस्विता, त्याग, तपस्या, शौर्य, समृद्धि और संस्कृति का प्रतीक माना जाता है. कई औषधीय गुणों से भरपूर यह वृक्ष अवध क्षेत्र में स्वाभाविक रूप से पाया जाता है. इसे कचनार, कचनाल या कंछनार के नाम से भी जाना जाता है.
धर्मग्रंथों में मिलता है इस पूजनीय वृक्ष का उल्लेख
उत्तर भारत में हिमालय की तराई में भी यह सघन छायादार और मादक सुगंध वाले फूल–फलों वाला वृक्ष बहुतायत में पाया जाता है. इसका उल्लेख महाकवि कालिदास की रचनाओं रघुवंश और मेघदूतम् में भी मिलता है. इसके अलावा, प्राचीन भारतीय चिकित्सा ग्रंथों में भी कोविदार का विस्तृत वर्णन मिलता है. पौराणिक ग्रंथों में कोविदार को उसके गुणों के कारण समरसता, शौर्य और विजय का प्रतीक माना गया है. इक्ष्वाकु वंश यानी रघुकुल के ध्वज पर भी कोविदार वृक्ष अंकित था. रामायण और रामचरितमानस, दोनों में इसका जिक्र मिलता है.
कथा के अनुसार, श्री राम के वनगमन से व्यथित भरत, अवध के पुरजन-परिजन और सैन्य बल के साथ पूछते-पाछते चित्रकूट के समीप पहुंचे. सैन्य कोलाहल से सतर्क होकर लक्ष्मण जी ऊंची पहाड़ी पर स्थित एक ऊंचे वृक्ष पर चढ़ गए. वहां से उन्हें रघुकुल का ध्वज दिखाई दिया. यह देख वे चिंतित हो उठे कि कहीं भरत सेना के साथ हमला करने न आ रहे हों.
अयोध्या में मिलता है कोविदार वृक्ष का जिक्र
महर्षि वाल्मीकि ने अयोध्या कांड में लिखा है कि लक्ष्मण जी ने श्रीराम से कहा कि ''यथा तु खलु दुर्बुद्धिर्भरतः स्वयमागतः। स एष हि महाकायः कोविदारध्वजो रथे।।'' अर्थात निश्चित ही दुष्ट-दुर्बुद्धि भरत स्वयं सेना लेकर आया है. यह कोविदार युक्त विशाल ध्वज उसी के रथ पर फहरा रहा है. यानी, त्रेता युग में कोविदार अयोध्या का राजवृक्ष था और भरत की सेना के ध्वज पर भी यह अंकित रहता था, जिससे लक्ष्मण जी ने उसे तुरंत पहचान लिया. स्थिति को देखकर लक्ष्मण जी उत्तेजित और क्रोधित हो उठे और उन्होंने इस ध्वज तथा सेना के शोर को भरत के मन के कलुष का संकेत माना. उन्होंने श्रीराम से कहा कि सेना का कोलाहल और पारिजात और कोविदार अंकित ध्वज यह दर्शाता है कि भरत किसी गलत इरादे से आ रहे हैं.
क्या है कोविदार वृक्ष?
अब पारिजात को लेकर उठे मतभेद का समाधान आधुनिक विज्ञान ने भी कर दिया है. वनस्पति विज्ञान (Botany) के अनुसार कोविदार और कांचनार/कचनार, दोनों एक ही कुल Bauhinia के वृक्ष हैं. इन्हें कई बार एक-दूसरे के पर्याय के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. परंपरागत रूप से कचनार उस पेड़ को कहा जाता है, जिसके फूल बैंगनी या रतनार लाल रंग के होते हैं. इसका वनस्पति नाम Bauhinia purpurea है. वहीं, कोविदार के फूल सफेद होते हैं और इसका वैज्ञानिक नाम Bauhinia variegata है. आयुर्वेद और संस्कृत साहित्य में कई बार इन दोनों नामों का उपयोग उनकी उप-प्रजातियों के संदर्भ में भी किया गया है.
औषधीय गुणों की दृष्टि से- कचनार त्वचा विकारों और पाचन से जुड़े विकारों में उपयोगी माना जाता है जबकि कोविदार पेट, बवासीर और गले के रोगों में लाभदायक बताया गया है. इसके अलावा, कचनार के पत्ते अधिक दूर तक दो हिस्सों में बंटे रहते हैं और कोविदार के पत्ते केवल एक-तिहाई या एक-चौथाई तक ही अलग होते हैं.