scorecardresearch
 

श्रीकृष्ण से पहले भी सुनाई जा चुकी हैं कई गीता... जानिए क्या है गणेश गीता, अष्टावक्र गीता और व्याध गीता का महत्व

ऐसा नहीं है कि भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया और जीवन संगीत सुनाया वह पहला है. बल्कि गीता की मौजूदगी शाश्वत ज्ञान के तौर पर हर युग में रही है और कई महात्मा इस ज्ञान को पहले ही सुन चुके थे. गीता का ज्ञान पहले भी कई लोगों को दिया था, और कई लोगों द्वारा दिया जा चुका था.

Advertisement
X
श्रीकृष्ण के अलावा भी चार सिद्ध पुरुषों ने सुनाई थी गीता
श्रीकृष्ण के अलावा भी चार सिद्ध पुरुषों ने सुनाई थी गीता

देशभर में जन्माष्टमी की धूम है. घरों और मंदिरों में श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव की तैयारियां चल रही हैं. उनके जीवन दर्शन की झांकियां सजाई जा रही हैं. भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की कई प्रमुख घटनाएं हैं, लेकिन कंस वध, जो उन्होंने बचपन में ही कर दिया था वह उनकी जीवन यात्रा का एक पड़ाव भर है. इसके बाद श्रीकृष्ण ने कई युद्ध लड़े और जीते. 

फिर क्षत्रियों के भीतर बस चुके राक्षसी-आसुरी भाव का एक साथ दमन करने के लिए उन्होंने महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र का मार्ग चुना. यही कुरुक्षेत्र वह भूमि बना, जिसने श्रीकृष्ण के पूर्णावतार को पूर्णता प्रदान की. युद्ध के मैदान के बीचों-बीच अर्जुन को गीता का उपदेश सुनाना, श्रीकृष्ण के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़ा कार्य है. यह उपदेश, यह ज्ञान सिर्फ युद्ध करने के लिए दी जाने वाली प्रेरणा नहीं है, बल्कि जीवन के असली अर्थ को समझने का जरिया है. 

ऐसा नहीं है कि भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया और जीवन संगीत सुनाया वह पहला है. बल्कि गीता की मौजूदगी शाश्वत ज्ञान के तौर पर हर युग में रही है और कई महात्मा इस ज्ञान को पहले ही सुन चुके थे. गीता का ज्ञान पहले भी कई लोगों को दिया था, और कई लोगों द्वारा दिया जा चुका था. सिर्फ श्रीकृष्ण ने ही गीता नहीं सुनाई, बल्कि उनसे पहले भी कई-कई लोगों ने गीता का ज्ञान दिया है. खुद श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मैंने सृष्टि के आरंभ में यह ज्ञान सूर्य को दिया था, आज मैं तुम्हें वही रहस्य समझाता हूं.

Advertisement

श्रीकृष्ण की श्रीमद्भागवत गीता के अलावा, गीता के तीन और उदाहरण मिलते हैं. जो इतने लोकप्रिय नहीं हैं, लेकिन उनमें भी यही ज्ञान समाया हुआ है. इन्हें गणेश गीता, अष्टावक्र गीता और व्याध गीता के नाम से जाना जाता है. 

जब श्रीगणेश ने दिया था मोह में पड़े एक राजा को गीता का ज्ञान
भगवान शिव के पुत्र और प्रथम पूजा के अधिकारी श्रीगणेश ने महागणपति रूप में एक राजा को दिव्य ज्ञान दिया था. इस ज्ञान को 'गणेश गीता' कहा जाता है.यह श्रीमद्भागवत पुराण के एकादश स्कंध में "गणेश गीता" के रूप में वर्णित है. इसमें 11 अध्याय और 414 श्लोक हैं, जिनमें ज्ञान, कर्म, योग, और भक्ति जैसे विषयों पर प्रकाश डाला गया है. 

क्या है गणेश गीता की कथा?
गणेश गीता का वर्णन 18 पुराणों से इतर उपपुराणों में शामिल गणेश पुराण में भी प्रमुखता से है. इस गीता ज्ञान देने के उद्देश्य के पीछे की कथा ऐसी है कि, किसी समय एक राजा हुए वरेण्य. उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर श्रीगणेश का तप किया और उनके जैसा पुत्र पाने की इच्छा जताई. महागणपति ने उन्हें वरदान दे दिया. उसी समय एक असुर सिंदूरासुर से त्रिलोक में हाहाकार मचा रखा था. उसका वध श्रीगणेश के ही खास अवतार से होना था. 

Advertisement

उधर, राजा को दिया वरदान पूरा करने के लिए भगवान गणेश उनके घर में गजमुख के साथ और चार हाथ वाले दिव्य स्वरूप में बालरूप में अवतरित हुए. इस तरह के बालक को देखकर राजा की पत्नी मूर्छित हो गईं. राजा ने भी बालक को अशुभ लक्षणों वाला जानकर वन में छोड़ दिया.वन में ऋषि पाराशर ने गजमुख बालक का पालन किया और गजानन नाम दिया. 

Ganesh Geeta

इसी गजानन बालक ने आगे सिंदूरासुर का वध किया. अब इधर, दैवयोग से राजा को पता चला कि गजानन उनका ही पुत्र है और श्रीगणेश का अवतारी भी तो उन्हें पश्चाचाप हुआ और मोह भी. तब श्रीकृष्ण की ही तरह गणेश जी ने ज्ञान के बाद उनका मोह दूर करने के लिए अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराए थे और महागणपति स्वरूप में प्रकट हुए थे. 

गणेश गीता में क्या है खास?
गणेशगीता' में 11 अध्याय हैं, जिनमें 414 श्लोकों में ज्ञान की बातें कही गई हैं. गणेशगीता के पहले अध्याय 'सांख्यसारार्थ' में गणपति ने राजा वरेण्य को योग का ज्ञान दिया. इसके दूसरे अध्याय में गणेश जी ने राजा को कर्म की प्रधानता बताई और इसका मर्म समझाया. तीसरे अध्याय में गणेश जी ने राजा वरेण्य को अपने अवतार धारण करने का रहस्य बताया. गणेशगीता में योगाभ्यास तथा प्राणायाम से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातें भी शामिल हैं. छठां अध्याय 'बुद्धियोग' है, जिसमें इच्छाओं का प्रबल तंत्र समझाया गया है. गणेशगीता में भक्तियोग का वर्णन भी है. इसमें भगवान गणेश ने राजा वरेण्य को अपने विराट रूप का दर्शन कराया.

Advertisement

नौवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान तथा सत्व, रज, तम तीनों गुणों का परिचय, दसवें अध्याय में दैवी, आसुरी और राक्षसी तीनों प्रकार की प्रकृतियों के लक्षण बतलाए गए हैं. इस अध्याय में गजानन कहते हैं कि काम, क्रोध, लोभ और दंभ ये चार नरकों के महाद्वार हैं, अत: इन्हें त्याग देना चाहिए तथा दैवी प्रकृति को अपनाकर मोक्ष पाने का यत्न करना चाहिए. अंतिम ग्यारहवें अध्याय में कायिक, वाचिक तथा मानसिक भेद से  तप के तीन प्रकार बताए गए हैं. गणेशगीता का ज्ञान पाने के बाद राजा वरेण्य को मोक्ष प्राप्त हुआ था. 

अष्टावक्र गीता... ऋषि अष्टावक्र ने राजा जनक को दिया था आत्मा का ज्ञान
त्रेतायुग में अवतरित श्रीराम के पिता समान श्वसुर (ससुर) थे मिथिला के राजा महाराज जनक. राजा जनक का दरबार सिद्धों-संतों, ज्ञानियों और सत्पुरुष ऋषियों से भरा रहता था. उनके दरबार में शास्त्रार्थ और ज्ञानचर्चा के लंबे दौर चला करते थे. एक बार राजा जनक के दरबार में ऐसा ही एक शास्त्रार्थ चल रहा था. शास्त्रार्थ कर रहे थे ज्ञानी पुरोहित बंदी और ऋषि कहोल. बंदी ने शर्त रख दी कि हारने वाले को जल समाधि लेनी होगी. शास्त्रार्थ में ऋषि कहोल हार गए और उन्होंने अपमान में जल समाधि ले ली.

इन्हीं ऋषि कहोल के पुत्र थे अष्टावक्र. वह शरीर के आठ अंगों से टेढ़े थे, इसलिए उनका यह नाम पड़ा था. युवा होने पर ऋषि अष्टावक्र अपने पिता की मृत्यु का कारण जानने राजा जनक के दरबार में पहुंचे. राजा ने ऋषि का सत्कार तो किया, लेकिन उनके विचित्र और टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर राजा के मन में एक घृणा का भाव भी आया. ऋषि अष्टावक्र इसे पहचान गए. 

Advertisement

तब उन्होंने कहा- वहां ऊपर देखिए राजन, क्या आकाश टेढ़ा है? राजा ने आश्चर्य करते हुए गर्दन टेढ़ी कर आकाश की ओर देखा. फिर बोले- नहीं तो
अष्टावक्र ने कहा- लेकिन देखिए, आपकी गर्दन टेढ़ी हो गई. गर्दन टेढ़ी करने से भी आकाश टेढ़ा नहीं हुआ. वह वैसा ही रहा, जैसा है.
बल्कि आकाश तो है भी नहीं, फिर भी वह हमेशा से ऐसा ही दिखता आ रहा है. 

अष्टावक्र गीता

ऐसी ही हमारी आत्मा भी है. शरीर कैसा भी हो, आत्मा स्वच्छ और शुचिता से संपन्न वैसी ही ज्योति स्वरूप रहती है. इसलिए मेरे टेढ़े शरीर को देखकर घृणा न कीजिए. मुझे शरीर नहीं आत्मा ही जानिए. राजा जनक ने यह सुना तो उनकी आंखें खुल गईं और खुद पर ग्लानि भी हुई. उन्होंने ऋषि अष्टावक्र के चरण पकड़ लिए और उनसे आत्मा का यही ज्ञान जानने की लालसा की. तब ऋषि अष्टावक्र ने पहले शास्त्रार्थ में पुरोहित बंदी को हराया फिर उन्हें क्षमाकर जल समाधि लेने से रोका और महाराज जनक को आत्मा का ज्ञान दिया. यही ज्ञान अष्टावक्र गीता नाम से प्रसिद्ध है.

कहते हैं कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने भी नरेंद्र को अष्टावक्र गीता का ही ज्ञान दिया था, जिसके बाद वह परमहंस के शिष्य बने और स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए. इस गीता का आरंभ राजा जनक द्वारा किये गए तीन प्रश्नों से होता है. पहला यह कि ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? दूसरा प्रश्न, मुक्ति कैसे होगी? और तीसरा प्रश्न वैराग्य कैसे प्राप्त होगा? ये तीन शाश्वत प्रश्न हैं जो हर काल में पूछे जाते रहे हैं.

Advertisement

कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भविष्यति,
वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद, ब्रूहि मम प्रभो।।

ऋषि अष्टावक्र ने इन्हीं तीन प्रश्नों का संधान राजा जनक के साथ संवाद के रूप में किया है जो अष्टावक्र गीता के रूप में प्रचलित है. ये सूत्र आत्मज्ञान के सबसे सीधे और सरल वक्तव्य हैं. इनमें एक ही पथ प्रदर्शित किया गया है जो है ज्ञान का मार्ग. कोई आडम्बर नहीं, आयोजन नहीं, यातना नहीं, यत्न नहीं, बस हो जाना वही जो हो. इसलिए इन सूत्रों की केवल एक ही व्याख्या हो सकती है, मत मतान्तर का कोई झमेला नहीं है. अष्टावक्र गीता में बीस अध्याय हैं.

व्याध गीता... जब एक शिकारी ने एक तपस्वी को बताया कर्म का सिद्धांत

व्याध गीता का जिक्र और संपूर्ण वर्णन तो महाभारत में ही है. महाभारत के वन पर्व में व्याध गीता की कथा का जिक्र आता है. जहां एक व्याध यानी शिकारी ने एक तपस्वी को जीवन और कर्म का ज्ञान दिया था. वन में शोक से ग्रस्त युधिष्ठिर को कर्म का रहस्य समझाने के लिए ऋषि मार्कंडेय (मार्कण्डेय) ने व्याध गीता के ज्ञान का बखान किया था. यानी युधिष्ठिर को अर्जुन से पहले ही गीता का ज्ञान प्राप्त हो गया था. व्याध, शिकारी को कहते हैं, जो पशुओं का शिकार कर उनका मांस बेचता था.

Advertisement

महाभारत के वन पर्व में शामिल है व्याध गीता
व्याध गीता की मुख्य शिक्षा यह है कि कोई भी काम नीच नहीं है. कोई भी कार्य अशुद्ध नहीं है. वास्तव में कार्य कैसे किया जाता है उसी से उसका महत्त्व कम या अधिक होता है. इसकी कहानी कुछ ऐसी है कि एक ब्राह्मण कुमार ने कई वर्षों की तपस्या से कुछ सिद्धियां पा ली थीं. एक दिन एक चिड़िया ने उस पर बीट कर दी. तपस्वी ने यूं ही गुस्से में चिड़िया को देखा तो वह भस्म हो गई. 

इससे तपस्वी को अपनी सिद्धि का पता चला और फिर उसे अभिमान हो गया. अब उसने तपस्या छोड़ दी और सिद्ध हो जाने के अभिमान वह घूमने लगा. वह एक बस्ती में गया और एक घर में जाकर उसने भिक्षा के लिए आवाज लगाई. घर के भीतर से गृहिणी बोली- ठहरिए महाराज! अभी आ रही हूं. मैं अपने पति को भोजन परोस रही हूं. तपस्वी इतना सुनकर इंतजार करने लगा. उसने तुरंत ही दोबारा आवाज लगा दी, अंदर से फिर से यही उत्तर आया. तपस्वी को तुरंत क्रोध आ गया. वह कहने लगा तुम्हें पता नहीं, मैं कौन हूं.

अभिमानी तपस्वी को सिखाया कर्म का ज्ञान
तब स्त्री अन्दर से ही बोली, मुझे पता है आप कौन हैं लेकिन आप मुझे चिड़िया मत समझिएगा कि मैं आपसे भस्म हो जाऊं. इस एक बात से तपस्वी का सारा गुस्सा उड़ गया और वह आश्चर्य के साथ उसकी प्रतीक्षा करने रुक गया. तपस्वी ने पूछा - देवी ! हमें भिक्षा तो बाद में चाहिए, पहले यह हमें बताओ कि तुम्हें कैसे पता चला कि मैंने चिड़िया को भस्म कर दिया. उसने कहा, मेरे पास इतना समय नहीं है कि आपको बताऊं. आपको यह सब जानना ही है तो आप नगर में चले जाइए. वहां एक वैश्य (व्यापारी) मिलेंगे उनसे यह सब जान लीजिएगा.

Janmashtami


तपस्वी वहां से नगर को चला और वैश्य के पास पहुंचा. वैश्य उस समय हिसाब-किताब में लगा हुआ था. उसने देखा तो ब्राह्नण का सत्कार किया और बैठने को कहा. तपस्वी ने कहा- मैं कुछ पूछने आया हूं. तब वैश्य बोला- हां मुझे पता है कि आपको उस स्त्री ने भेजा है, क्योंकि आपने चिड़िया के भस्म कर दिया था, लेकिन अभी मैं अपना हिसाब-किताब कर रहा हूं 

अगर आपको जल्दी ही जानना है तो आप दो गांव आगे चले जाइए, वहां एक व्याध जी रहते हैं. शायद वह आपको तुरंत ही समझा देंगे. ब्राह्मण को रहस्य जानने की जल्दी थी, वह कहता है अच्छा! मैं उसी के यहां चला जाता हूं. तपस्वी ब्राह्मण व्याध के पास गया तो वह मांस काट-काट कर बेच रहा था. व्याध बोला - आइए पंडित जी! बैठिए! आपको सेठजी ने भेजा है. कोई बात नहीं, विराजिए. मैं बस ये दो टुकड़े मांस और बेच लूं फिर आपका उत्तर देता हूं.

तपस्वी बड़ा हैरान हुआ. अब वह वहीं बैठ गया और सोचने लगा अब कहीं नहीं जाना, यहीं निर्णय हो जाएगा. जब सच्चा गुरु मिल जाता है तो मन से आवाज आ जाती है कि अब यहीं ठहरना है. व्याध (शिकारी) ने अपने सारे कार्य और कर्तव्य पूरे किए और फिर तपस्वी के पास आया. तपस्वी ने पूछा कि आप किस देवता की उपासना करते हैं. तब व्याध उन्हें घर के भीतर ले गया. तपस्वी ने देखा व्याध के वृद्ध माता और पिता एक पलंग पर बैठे हुए थे.

व्याध ने उनको दण्डवत् प्रणाम किया. उनके चरण धोए, उनकी सेवा की और भोजन कराया. पण्डित कुछ कहने लगा तो व्याध बोला - आप बैठिए, पहले मैं अपने देवताओं की पूजा कर लूं, बाद में आपसे बात करूगा. पहले मातृदेवो भव फिर पितृ देवो भव और आचार्य देवो भव तब अतिथि देवो भव, आपका तो चौथा क्रम है भगवन्! अब वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि यह तो शास्त्र का ज्ञाता है.

दूर हुआ तपस्वी का अभिमान
अब तपस्वी पूरी तरह नतमस्तक था. फिर भी उसने एक प्रश्न किया. उसने पूछा कि हे महात्मा आप तत्वज्ञानी होते हुए भी मांस बेचने का निकृष्ट कर्म क्यों करते हैं. व्याध ने तब तपस्वी को कर्म का ज्ञान दिया. उसने कहा - भगवन्! कर्म कोई निकृष्ट नहीं होता. मैं व्याध के यहां पैदा हुआ. मेरे पिता भी मांस बेचते थे, उनके पिता भी और यह कर्म हमें अपने पूर्वजों से मिला है, इसलिए हमें इससे कोई घृणा नहीं है क्योंकि जब तक इस दुनिया में कोई मांस खाने वाला होगा तो उसके लिए बेचने वाला भी होगा.

व्याध गीता बताती है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, और हर काम को ईमानदारी और समर्पण से करना चाहिए. व्याधगीता महाभारत का ही एक अंग है, इसलिए इसमें अलग से अध्याय या प्रकरण नहीं हैं, लेकिन व्याध गीता कर्म के सिद्धांत को सामने रखती है और जीवन में कर्म के महत्व को सबसे ऊपर रखती है.

श्रीकृष्ण जी की गीता के साथ-साथ तीनों ही गीता का अपना अलग ही महत्व है.

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement