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योर ऑनर! कोर्ट से तो हटा देंगे, समाज से कैसे हटाएंगे स्त्रीविरोधी शब्दावली?

एक संविधान ही तो है जो हमेशा हम औरतों के सम्मान, बराबरी और हक-हुकूक की बात करता रहा. ये न होता तो हम औरतें इस समाज में आज भी एक 'कोख' बनकर चहारदीवारी में कैद 'मादा' से ज्यादा कुछ नहीं होतीं. अब इस नई हैंडबुक से उम्मीद जगी है कि शायद कभी इस समाज के लिए भी कोई ऐसी हैंडबुक बने और लोग हम औरतों के लिए अपमानित शब्दों का इस्तेमाल बंद कर पाएं. 

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Illustration by: Vani Gupta
Illustration by: Vani Gupta

कल से सुप्रीम कोर्ट की हैंडबुक पर खूब बातें हो रही हैं. हों भी क्यों न, बरसों बरस अदालतों में 'वैश्या' और 'रखैल' जैसे शब्दों से जलील होती रही औरत जात के लिए कुछ नया सोचा गया है. शीर्ष अदालत ने महिलाओं के लिए इस्तेमाल होने वाले आपत्तिजनक शब्दों को बोलने से परहेज करने को कहा है. अब वैश्या और रखैल जैसे कई शब्दों के विकल्प देते हुए हैंडबुक जारी की है.

योर ऑनर! मैं तो बस इतना कहूंगी कि ये बहुत अच्छा हुआ. एक संविधान ही तो है जो हमेशा हम औरतों के सम्मान, बराबरी और हक-हुकूक की बात करता रहा. ये न होता तो हम औरतें इस समाज में आज भी एक 'कोख' बनकर चहारदीवारी में कैद 'मादा' से ज्यादा कुछ नहीं होतीं. अब इस नई हैंडबुक से उम्मीद जगी है कि शायद कभी इस समाज के लिए भी कोई ऐसी हैंडबुक बने और लोग हम औरतों के लिए अपमानित शब्दों का इस्तेमाल बंद कर पाएं. 

पूरे समाज में स्त्री विरोधी शब्दों का पूरा जंजाल आज भी फैला हुआ है. ये अपमानजनक भाषा जिसे आम भाषा में मां-बहन की गालियां कहते हैं. इन गालियों ने हम औरतों को कैसे दोयम दर्जे में खड़ा किया हैं, काश कोई अदालत इसे भी महसूस कर पाए. मैं बचपन का एक वाकया बताती हूं. मैं चौथी या पांचवीं कक्षा में पढ़ती थी. इससे पहले मैं कई बार आसपास के लोगों को एक दूसरे को गाली देते सुन चुकी थी. लेकिन, उस दिन स्कूल से लौटते वक्त मैंने मां शब्द के साथ गाली सुनी, और मां से पूछने की ठान ली. जाते ही मां से सवाल किया कि वो रिक्शावाला अपने पास खड़े आदमी को ऐसा शब्द क्यों बोल रहा था. मां ने बताया कि बिट‍िया, इसे दोबारा न बोलना, ये गाली है. लोग गुस्से में एक दूसरे की मां, बहन या बेटी के रिश्ते पर गाली देते हैं ताकि सामने वाला बेइज्जत हो. मैं बहुत देर सोचती रही कि ऐसा क्या है कि किसी की सीधे बेइज्जती करने के बजाय उसकी मां-बहन या बेटी या परिवार की दूसरी औरतों का सहारा लिया जाए. 

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खैर, उम्र बढ़ने के साथ ही इन अल्फाजों को सुनने की आदत-सी पड़ गई. मैंने ये चलन भी देखा कि कई औरतें भी ताकतवर मर्द की ही तरह गालियां देती हैं. मर्दों की दुनिया से जूझते जूझते धीरे-धीरे वो मर्दों की ही भाषा बोलने लगती हैं. ये गालियां स‍िर्फ गुस्से या बड़े झगड़ों में ही नहीं बल्क‍ि मर्दों की दुनिया में महिमा मंडन कई और बेहतर तरीकों से होता है. कई बार तो ऐसा लगता है जैसे ये औरतों के लिए बनी गालियां या अपशब्द न होकर कोई जोशीले स्लोगन हों. मसलन लोग यूं कहते पाए जाएंगे कि यार हमारे दिल्ली में बहन की गाली तकियाकलाम जैसी है तो कोई कहता है कि हमारे शहर में मां की गाली का चलन है. वाह रे चलन... 

वहीं, गालियों का ये चलन ओटीटी (ओवर द टॉप ) प्लेटफॉर्म में भी खूब फल-फूल रहा है. ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मनोरंजन परोसने वाले समाज का सो कॉल्ड 'रियल' फील देने वाले कंटेंट परोसने का दावा करते हैं. इस कंटेंट में गालियों में न कोई सेंसर होता है, न कोई लिमिट, इसे लोग मजे ले-लेकर देखते हैं. उनकी नजर में यही न्यू सिनेमा है. न्यू सिनेमा जिसमें सब नया है, बस पुराना और घिसा-पिटा कुछ है तो वो हैं ये गालियां और औरतों को कोसते अपशब्द... 

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मुझे समझ नहीं आता कि गालियों का ये कैसा मनोविज्ञान है. जिसमें औरत के लिए कठोर, वासनात्मक, क्रूर या अवमानित नजरिया होते हुए भी कोई इनका विरोध नहीं करता. इसे जीव विज्ञान की नजर से देखें तो प्रजनन के लिए की जाने वाली क्र‍िया में नर और मादा दोनों समान प्रकृति में हैं. लेकिन यौन क्र‍ियाओं को औरत से जोड़कर 'अपमान' की परंपरा कैसे बनी. मुझे लगता है ये शायद कबीलाई दौर में शुरू हुआ होगा, जब स्त्री पूरी तरह से पुरुष की प्रॉपर्टी बन गई होगी. आद‍िम समाज के लोग फिर धीरे धीरे परिवार व्यवस्था में ढलने लगे होंगे, उनमें मां बहन बीवी बेटी जैसे रिश्तों की समझ पनपी होगी. फिर कबीलों की आपसी लड़ाई और हमलों में स्त्र‍ियों को लूटा गया होगा, उनके बलात्कार किए होंगे, हिंसा हुई होगी. बाद में फिर विजेता कबीलों के ताकतवर मर्दों ने दूसरे मर्दों को ऐसी ही वारदातों का भय दिखाकर धमकाना डराना शुरू किया होगा.

लेकिन अब समय काल परिस्थ‍ितियां धीरे-धीरे बदल रहे हैं. यहां तक कि सामाजिक, आर्थ‍िक, भौगोलिक और पर्यावरणीय परिस्थ‍ितियां भी बदल गईं है. स्त्री के परिप्रेक्ष्य में देखें तो उसने अपने आपको हर क्षेत्र में साबित किया है. लेकिन, इन गालियों, द्विअर्थी संवादों, अपशब्दों से छुटकारा नहीं पा सकी.
 
अंत में मैं कहूंगी कि योर ऑनर, क्या आपको पता है कि स्त्री के बाल मन को कितनी ठेस लगती है, जब बचपन में उसे पता चलता है कि उसकी लैंगिक पहचान गालियों से जुड़ी है. बहुत बुरा लगता है जब जवान होने के क्रम में उसे द्विअर्थी शब्दों से टारगेट किया जाता है. धीरे-धीरे उसे गालियों के महासमर में ऐसे धकेल दिया जाता है कि वो भूल ही जाती है कि ये गालियां उसकी पहचान पर धब्बा हैं.

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