मुश्ताक अहमद युसूफी ने लिखा, लाहौर की बाज़ गलियां इतनी तंग हैं कि अगर एक तरफ से औरत आ रही हो और दूसरी तरफ से मर्द तो दरमियान में सिर्फ निकाह की गुंजाइश बचती है. लेकिन कालांतर में ये गलियां भी बनारस की गलियों की तरह चौड़ी हुईं. चबूतरे हटाए गए, दरवाजे खिसकाए गए और जब निकाह से अतिरिक्त कुछ गुंजाइश बनी तो जिहाद के कुछ बीज अंकुरित हुए. असगर और नईम ऐसे ही दो नौ-ख़ेज़ जिहादी थे, जो आतंकी बनने का सपना लिए लाहौर की गलियों में बड़े हुए थे.
यूं तो यह सपना उनके घरवालों का था लेकिन 25 तक आते-आते वे दोनों भी इसमें संभावनाएं खोजने लगे थे. एक दिन किसी बड़ी इमारत को दहलाएंगे, किसी पुलिसिया गाड़ी पर हमला करेंगे, किस्मत मेहरबां हुई तो तारों के नीचे से सरहद पार जाएंगे, बीबीसी-सीएनएन पर नाम आएगा, खबरों में 'सांकेतिक तस्वीर' की जगह 'फाइल फोटो' लगेगी, खबरिया चैनल 'क्या लौट आया असगर', 'कहां छिपा है नईम' जैसे थंबनेल से वीडियो चलाएंगे. लेकिन अगर बात नहीं बनी तो... 25 की उम्र तक करियर को लेकर चिताएं, घरवालों की अपेक्षाएं और समाज का दबाव अपने चरम पर पहुंच जाता है.
घरवाले अपने लहीम-शहीम बेटों को देखकर दिन-ब-दिन मायूस होते जा रहे थे. इस हद तक जवान हो गए और अभी तक किसी धमाके में अंग-भंग भी नहीं हुए. रिश्तेदारी में अब सब पूछने लगे थे, 'बशीर मियां, लड़कों का कहीं हुआ?' रिश्ते और नातेदारों को तो फिर भी टाला जा सकता था. लेकिन पड़ोसियों का क्या करें.
घर के ठीक सामने 63 साल के कामिल चचा की दुकान थी. यूं तो उनका खानदानी पेशा खतने करने का था लेकिन अब वो सुरमा बेचते थे. बालाकोट में ट्रेनिंग के दौरान एक हाथ की दो उंगलियां गंवा चुके कामिल चचा आतंकी कैंप से वॉलंटरी रिटायरमेंट ले चुके थे.
प्लास्टिक की सफेद चप्पल जिसकी नीली परत भी अब जाने को थी, हाथ में लिए कामिल चचा टोक ही देते, 'अरे बशीर मियां, लड़के कहां हैं आजकल?'
इस सवाल के पीछे छिपा उनका आत्मविश्वास उनके बेटे से आया था जिसे अब आतंकियों के ट्रेनिंग कैंप में क्लाउड किचन का काम मिल गया था. नए-नए जिहादी पहले तो उसका खाना खाने से परहेज करते लेकिन जब देखते कि सीनियर कमांडर भी उसका खाना खा रहे हैं तो वो भी एक थाल ले ही लेते.
दबाव अब बढ़ रहा था. असगर और नईम अब करियर को लेकर सीरियस हो चुके थे. इस हद तक सीरियस की उन्होंने बाजार से छोटे चेक वाला स्कार्फ खरीद लिया था जिसे दोनों रोज आईने के सामने खड़े होकर बांधते थे. दीवारों पर अब लादेन और बगदादी की तस्वीरें आ चुकी थीं.
करियर को गति देने के लिए दोनों ने एक स्टार्टअप जॉइन किया. लाहौर का लोकल टेरर प्लेटफॉर्म, जो ये दावा करता था कि उसके तार लश्कर से जुड़े हैं और उसके अधिकारी लश्कर के अधिवेशनों में जाते रहते हैं.
वक्त बीता, दिन गुजरे... इस संस्था में अब असगर और नईम को दो साल हो चुके थे और अब वो समय आ चुका था जब भीतर से आवाज आती है 'मजा नहीं आ रहा है'.
कुछ दिन फील्ड के बाद अब दोनों डेस्क पर थे. दो साल में भी इस संस्था से उन्हें कुछ खास हासिल नहीं हुआ. जब भी कोई जिहादी अप्रेजल यानी नए हथियार या नई सेकेंड हैंड गाड़ियों की बात करता तो संस्था बजट का हवाला देकर उन्हें चुप करा देती और मायूस होने पर मकसद याद दिलाकर फिर से उत्साह भर देती.
'तुम कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा', इस नारे से कितना नुकसान हुआ ये अब असगर और नईम समझ रहे थे. 'अगर हर घर से अफजल निकलेगा भाईजान तो कम्पटीशन कितना बढ़ जाएगा?' 'हां नईम, वैसे भी भीड़ अब बहुत बढ़ चुकी है और कुछ खास मार्जिन भी नहीं. हम उनका एक मारते हैं वो हमारे तीन मार देते हैं.'
एक साल ट्रेनी रहने के बाद अब दोनों की पोस्ट 'जूनियर टेरर होल्डर' की थी. उनका काम बस इतना था कि रेकी करने वाले जो सामान और सूचना लेकर आएं उसे रिकॉर्ड में चढ़ा देना और आगे बढ़ा देना.
लाहौर के इस आतंकी संगठन की हालत वाकई बहुत खराब थी. शुरुआती दिनों में जो कुकर बम बनाने के लिए खरीदे गए थे उनमें अब दम आलू बिरयानी बनती थी. पूरी संस्था में सिर्फ दो कलाश्निकोव गन थीं. साफ निर्देश थे कि 'बाहर जाते वक्त इन्हें ले जाएं. जहां तक संभव हो गोली न चलाएं और वापस आकर शराफत से अलमारी में रख दें. ये बंदूक आपके मकसद से ज्यादा महंगी है.'
हर साल 11 सितंबर को ऑफिस में एक छोटी सी पार्टी का आयोजन किया जाता. हर बार की तरह इस बार भी एचआर ने गिफ्ट में सिर्फ मुल्क का झंडा दिया और कहा 'संभालकर रखिएगा'. 'अरे भाईजान, फिर झंडा, क्या करेंगे इतने झंडों का, देना है तो हथगोला दें कि जाओ अगले चौराहे पर मार के आओ.' 'हथगोले की बात करते हो नईम, डेढ़ साल से ऊपर हो गया. इन हाथों ने एक गोली तक नहीं चलाई. पिछली बार जेल भी ट्रिपलिंग के लिए पकड़े गए तब गए थे. और अम्मी-अब्बू को लगता है सब सही चल रहा.'
आमतौर पर एक आतंकी संगठन से किसी जिहादी के बाहर जाने के क्या रास्ते हैं? या तो वो मुठभेड़ में मारा जाएगा या फिर पकड़ा जाएगा. लेकिन लाहौर की इस आतंकी संस्था ने आज डार्कवेब पर कुछ ऐसा ऐलान किया जिसने सभी को हैरान कर दिया. छंटनी की घोषणा हो चुकी थी.
संस्था का तर्क था कि 'मुल्क के नए हुक्मरान पश्चिम और पड़ोसी से हाथ मिलाना चाहते हैं और अब लश्कर को और पैसा नहीं देना चाहते इसलिए हम कुछ लोगों के साथ कंटीन्यू नहीं कर पाएंगे. लेकिन मकसद के लिए हम एकजुट रहेंगे'. हालांकि लश्कर को अगर पैसा मिलता भी तो वो इस संस्था तक कभी आने वाला नहीं था लेकिन 'कॉस्ट कटिंग' के लिए ट्रंप की वापसी एक अच्छा बहाना थी.
ये इतिहास में पहली बार था जब कोई आतंकी संगठन छंटनी करने जा रहा था. असगर और नईम जैसे नाकाबिल जिहादी तो इस खबर को सुनकर मानो सुप्तावस्था में चले गए. दोनों ने तय किया वो निकाल जाने की राह नहीं देखेंगे और स्विच करेंगे. ये इतिहास में पहली बार था जब कोई आतंकी स्विच करने जा रहा था.
'लेकिन जाएंगे कहां?' असगर और नईम के सामने अब सबसे बड़ा सवाल ये था.
'भाईजान कुछ बड़ा किया जाए. बोको हराम का नाम सुना है... क्यों न पाकिस्तान में उसकी फ्रेंचाइजी ले लें. स्कोप बहुत है. क्लाउड किचन के दम पर फूलने वाले कामिल चचा का तो मुंह ही बंद हो जाएगा.'
'अरे नहीं नईम, वहां टारगेट बहुत ज्यादा है. रोज के 12 मारने पड़ते हैं.'
'भाईजान 12?'
'कमांडर 12 बोलता है लेकिन एवरेज 10 भी अगर मार दो तो चलेगा.' असगर और नईम के लिए ये टारगेट उनकी क्षमता से ज्यादा था.
'भाईजान सुना है इस्लामिक स्टेट के पाकिस्तान हेड की पोस्ट काफी टाइम से खाली है और आप उसके लिए बड़े माकूल मालूम पड़ते हैं.'
'अरे नहीं नईम, पाकिस्तान हेड का मतलब समझ रहे हो. पूरा मुल्क कवर करना पड़ेगा, स्टाफ रखना पड़ेगा, ऑफिस लेना पड़ेगा और हमें वो नहीं लेंगे.'
'क्यों भाईजान?'
'सुना है हमारे जैसे जिहादी उनके यहां पैखाना साफ करते हैं.'
'भाईजान पैखाना साफ करने में बुराई क्या है. हिंदुस्तानियों के वजीर-ए-आजम मोडी भी सफाई पर जोर देते हैं. हमारे क़ायदे-आज़म के दौर के एक नेता थे हिंदुस्तान में गांधी, वो भी साफ-सफाई को खूब तरजीह देते थे... भाईजान सफाई ही दुनिया में इकलौती ऐसी चीज है जो गांधी, मोदी और बगदादी को एकसाथ लाती है.'
'नईम ये सब तुमने कहां पढ़ा?'
'अरे भाईजान... टेलीग्राम पर. हमारा एक ग्रुप है 'लाहौरी बाइकर्स' करके उसमें कविता भी चलती है- बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराते पैखाने.'
इस बीच पता चला कि बालाकोट के पास कोई नया आतंकी संगठन खुल रहा है.
'क्या नाम है नईम उसका?'
'भाईजान तहरीक या लबैक'
'हां... लेकिन फिर कोई स्टार्टअप जॉइन ठीक रहेगा'
'भाईजान आपकी सीवी देखकर लश्कर और जैश तो आपको लेंगे नहीं. पहले सीवी पर कुछ जोड़िए तो'
'पता करो नईम इस लबैक में क्या-क्या मिलेगा'
'अरे भाईजान, वहां की पॉलिसी बहुत अच्छी हैं. सुसाइड जैकेट्स, हैंड ग्रेनेड, निजी पिस्टल. ऑफ सीजन में तस्करी भी करवाते हैं और इंडस्ट्रियल विजिट में ट्रेनिंग कैंपों में भी ले जाते हैं.'
'इतना सब... फंडिंग कहां से आ रही?'
'ऐसे नेता-मंत्री जो हुक्मरानों की नई नीतियों के खिलाफ हैं, उनका पैसा लगा है भाईजान'
'कितना मिलेगा?'
'भाईजान सुनते हैं महीने की एक झड़प, छह महीने में एक गिरफ्तारी और साल का एक बड़ा हमला पक्का है'
'और अप्रेजल मिलेगा या वहां भी छंटनी हो जाएगी?'
'भाईजान वाजिद जॉइन किया है, बता रहा था कि एचआर ने बोला है कि अगले साल अगर परफॉर्मेंस अच्छा रहा, अंग-भंग हो गए तो इनाम रखवा दिया जाएगा और लंबा टिकेंगे तो हिंदुस्तानियों और गोरों की लिस्ट में भी नाम आ सकता है.'
असगर ने लंबी फूंक मारी और कहा, 'कैसे होगा?'
'देखिए भाईजान, सीवी तो ऐसे सेलेक्ट होगी नहीं, लेकिन वाजिद के खालू हैं उनकी दुकान पर एक ग्राहक आता है हर महीने जुमे के दिन, वो करवा सकता है. वाजिद भी उसी के जरिए गया है'
'ठीक है नईम, बात करो, अब बहुत हो गया निकला जाए यार यहां से.'
एक नए आतंकी संगठन को जॉइन करने का प्लान दोनों इस हद तक आत्मसात कर चुके थे कि नोटिस पीरियड मोड में आ गए. मसलन रेकी के लिए भेजा जाता तो चाय-सुट्टे में दिन खर्च कर देते और कहते 'थानेदार छुट्टी पर चल रहा है'. कभी भी सिक लीव ले लेना, कभी भी आना, कभी भी जाना. मकसद का खुलकर दोहन हो रहा था.
महीना भर बीता, छंटनी के बादल छंटे, कोई नहीं गया लेकिन सबका टारगेट बढ़ा दिया गया. असगर और नईम मन ही मन मुस्कुरा रहे थे. 'हां-हां, बढ़ाएं टारगेट, हम तो रवाना होने वाले हैं.'
तभी खबर आई कि बालाकोट के पास सुरक्षाबलों ने ऑपरेशन चलाया और एक नए आतंकी संगठन के भर्ती मॉड्यूल का भंडाफोड़ कर दिया.
दरअसल फूट तो नईम और असगर की उम्मीदें गई थीं. उन्हें समझ आ चुका था कि यहां स्विच करना कितना मुश्किल है और वो एक गलत इंडस्ट्री में आ चुके हैं. दोनों ने मन को मारा, दिल को संभाला और अगले दिन से उन लापरवाहियों की भरपाई में लग गए जो उन्होंने कथित नोटिस पीरियड के दौरान की थीं.
वो जिहाद में कभी कामयाब नहीं हुए क्योंकि आतंकवाद उनका पैशन कभी था ही नहीं. उन्हें तो कव्वाल बनना था क्योंकि दीवार पर अब्बू को खुश करने के लिए टंगी लादेन और बगदादी की तस्वीरों के नीचे एक वॉकमैन कहीं दब गया था जिस पर छुप-छुप कर दोनों कभी-कभी अज़ीज़ मियां को सुनते थे जो गा रहे थे,
हुस्न और इश्क़ दोनों में तफ़रीक़ है
पर इन्हीं दोनों पे मेरा ईमान है
गर ख़ुदा रूठ जाए तो सज्दे करूं
और सनम रूठ जाए तो मैं क्या करूं