ब्राह्मणों और दलित-मुसलमानों की पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस ओबीसी पार्टी की पहचान बनाने के लिए मचल रही है.राहुल गांधी कोई ऐसा मौका नहीं छोड़ रहे हैं जिसमें उन्हें ओबीसी का हितैषी बनने की वजह मिलती हो.महिला आरक्षण पर लोकसभा में बोलते हुए उन्होंने ओबीसी कैटेगरी के लिए अलग से सीट देने की डिमांड की ही, जातिगत जनगणना की डिमांड भी वे लगातार कर रहे हैं.
सवाल यह है कि क्या ओबीसी कॉडर वाली पार्टियों को छोड़कर पिछड़ी जाति के वोट कांग्रेस में शिफ्ट होंगे.सवाल यह भी है क्या ओबीसी कल्याण के नाम पर बनी पार्टियों के मुखिया यह बर्दाश्त कर सकेंगे कि उनकी जगह कांग्रेस या राहुल गांधी इन लोगों को नेता बन जाएं. अगर इंडिया गठबंधन के तहत पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ती हैं तो भी क्या तेजस्वी यादव, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव और मायावती जैसे नेताओं को ये बर्दाश्त होगा कि उनका कोर वोटर किसी और के झंडे के नीचे चला गया.
मंडल के बाद की राजनीति में कांग्रेस हुई कमजोर
आजादी के बाद की राजनीति में कभी कांग्रेस पिछड़े वर्ग की पार्टी नहीं रही. मंडल कमीशन की रिपोर्ट के लागू होने के पहले तक दरअसल देश में दो ही वर्ग था सामान्य और अनुसूचित . देश में जब गैरकांग्रेसी सरकार में मोरार जी देसाई पीएम बने तो उन्होंने 1979 में समाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग आयोग या मंडल आयोग का गठन किया . बीपी मंडल की अध्यक्षता वाले आयोग ने 1980 में ही अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी. 1980 में इंदिरा गांधी सरकार और 1984 से 1989 तक राजीव गांधी सरकार ने इस आयोग की रिपोर्ट की सुधि नहीं ली. 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व में बनी गैर कांग्रेसी सरकार ने इस रिपोर्ट को लागू किया और पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की.
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, लालू यादव , नीतीश कुमार , शरद यादव जैसे पिछड़ी जाति के नेताओं का वर्चस्व बढ़ता गया. इस दौर में बीजेपी ने तो बनियों की पार्टी से पिछड़ों की पार्टी बनने में देर नहीं कि पर कांग्रेस ब्राह्मणों की पार्टी बनी रही. उसका हश्र हुआ कि पार्टी उत्तर प्रदेश और बिहार से साफ हो गई.
यूपीए सरकार बनने तक कांग्रेस को पिछड़े वोटों का अंदाजा लग चुका था. नींद से जागी कांग्रेस नीत मनमोहन सिंह सरकार ने आईआईटी, आईआईएम, एम्स जैसी उच्च शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी को पहली बार शैक्षणिक आरक्षण दिया. लेकिन, कांग्रेस इसे कभी भुना नहीं सकी.हो सकता है कि राहुल गांधी उस गलती को सुधारने के लिए ऐसा कर रहे हों. पर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यू जैसी पार्टियों के रहते कांग्रेस कैसे पिछड़ों का नेतृत्व छीन सकेगी?
सपा , आरजेडी और जेडीयू जैसी पार्टियों को क्या है खतरा
कांग्रेस द्वारा जातिगत जनगणना की डिमांड रखने और लगातार ओबीसी लोगों के अधिकारों के लिए बात करने पर अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश के रीवा में कहा कि, कांग्रेस द्वारा जाति जनगणना की बात करना भारतीय राजनीति में चमत्कार से कम नहीं है. पहले तो उनका लहजा व्यंग्यात्मक था, लेकिन अगले पल ही उन्होंने खुद को संभालते हुए कहा कि इस तथ्य से अधिक खुशी की क्या बात हो सकती है कि कांग्रेस भी जातिगत जनगणना की बात करती है और समाजवादियों के रास्ते पर चलने का फैसला करती है. दरअसल जो चिंता अखिलेश को है वही चिंता तेजस्वी और नीतीश कुमार को भी होगी. लालू परिवार और कांग्रेस की नजदीकियां जगजाहिर हैं . इसलिए अभी फिलहाल लालू यादव या तेजस्वी इस बारे में कुछ नहीं बोलेंगे भले ही उन्हें अपने वोटों के फिसलने का डर हो. नीतीश कुमार भी भीष्म की तरह अभी अपने वचनों से बंधे हुए हैं. ये सभी जानते हैं कि कांग्रेस एक सोता हुआ विशाल जीव है जिस दिन जाग गया उसकी आंधी में उनके वोट बह जाएंगे.
कांग्रेस ने राजस्थान और छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में पिछड़ा वर्ग के सीएम बनाए हैं.मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में कई पिछड़े नेताओं को टॉप नेतृत्व में जगह दिया गया है.अगर इसी तरह लगातार हर मंच पर कांग्रेस ओबीसी-ओबीसी करती रही तो किसका नुकसान होगा यह सभी जानते हैं.
ओबीसी पॉलिटिक्स , कौन पार्टी कितने पानी में
सीएसडीएस के एक सर्वे के आधार पर गणना करें तो 2019 के लोकसभा चुनावों में यूपी में बीजेपी ओबीसी वोट के मामले में फायदे में रही.ओबीसी में शामिल यादव में से 60 फीसदी से सपा-बसपा गठबंधन को तो 23 फीसदी यादवों ने बीजेपी को भी पसंद किया.केवल 5 फीसदी यादव मतदाताओं ने कांग्रेस को वोट किया था. कोइरी-कुर्मी के 80 फीसदी वोट बीजेपी को मिले तो केवल 14 फीसदी कुर्मी-कोयरी वोट वोट सपा-बसपा को गए. कांग्रेस भी 5 फीसद वोट पाने में सफल रही.ओबीसी की शेष जातियों ने 72 फीसदी बीजेपी को सपोर्ट किया. केवल 18 फीसदी ने सपा-बसपा को. यहां भी कांग्रेस ने 5 फीसदी वोट पाने में सफलता हासिल की थी.
आंकड़ों को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि जब कांग्रेस कहीं लडाई में थी ही नहीं तो भी 5 परसेंट वोट पाने में सफल हुई. अगर कांग्रेस हर सीट पर प्रत्याशी खड़ी करती और लड़ाई में रहती है तो निश्चित ही वोट परसेंट बढेगा. इसका सीधी असर समाजवादी पार्टी पर ही पड़ने वाला है. पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि चूंकि बीजेपी का पिछडा वोटर हिंदुत्व के चलते वोट देता है. इसलिए उसके शिफ्ट होने की संभावना कम ही है. पर कांग्रेस मजबूत होती है तो यूपी में समाजवादी पार्टी के लिए जरूर खतरा है.
2019 के आंकड़े बताते हैं कि ओबीसी राजनीति करने वाली लालू और नीतीश जैसे नेताओं की पार्टियों को 33 और 20 फ़ीसदी वोट मिले थे. 1996 के मुक़ाबले बीजेपी के ओबीसी वोट करीब दोगुना मिल रहा है. कांग्रेस को ओबीसी वोट में 50 फ़ीसदी की कमी आई है.
बीजेपी के लिए कितना मुश्किल
यह सही है कि बीजेपी के उत्थान में ओबीसी वोटों की बड़ी भूमिका रही है. पर बीजेपी को राजस्थान -मध्यप्रदेश- छत्तीसगढ़ में ओबीसी वोट इस बार आसान नहीं दिख रहे हैं. कर्नाटक का उदाहरण बीजेपी के सामने है.राजस्थान और छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में कांग्रेस के पिछड़ी जाति वाले मुख्यमंत्री हैं. एमपी में ओबीसी वोट कांग्रेस के साथ जा सकते हैं इसके दो कारण मुख्य हैं. 2019 में कमलनाथ ने अपने अल्प काल के शासन में 27 परसेंट आरक्षण देकर ओबीसी के लिए संदेश दे दिया था. दूसरे एमपी में बीजेपी का ओबीसी चेहरा उमा भारती की नाराजगी भी नुकसान पहुंचा सकती है. उमा भारती ने महिला आरक्षण मुद्दे पर ओबीसी के लिए कोटा में कोटा की डिमांड का समर्थन किया है. भारती को चुनाव प्रचार समितियों में न रखा जाना भी बीजेपी के लिए शुभ संदेश नहीं है.
हालांकि बीजेपी ने कांग्रेस के ओबीसी दांव से मुकाबले के लिए विश्वकर्मा योजना लांच किया है.मोदी सरकार रोहिणी कमिशन भी लागू करने की तैयारी है. ओबीसी कोटा में कोटा एक गेमचेंजिंग आइडिया हो सकता है पर उल्टा पड़ने की आशंका भी कम नहीं है.शायद यही कारण है कि बीजेपी इस मामले में फूंक-फूंक कर रख रही है.