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बंगाल SIR के नतीजों ने विपक्ष के फैलाए 5 भ्रम, और बीजेपी के 2 दावों की हवा निकाल दी

वो‍टर लिस्‍ट SIR को लेकर लगाए गए आरोप और किए गए दावों से जमीनी हकीकत एकदम उलट है. SIR को लेकर वोट चोरी और NRC कराने जैसे कई आरोप लगे, जो अब बेबुनियाद दिख रहे हैं. बीजेपी ने SIR के जरिए घुसपैठियों को खदेड़ने का जो दावा किया था, वह भी खोखला दिखाई देता है.

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बंगाल में एसआईआर ड्राफ्ट सामने आने के बाद क्या टीएमसी और बीजेपी की लड़ाई खत्म होगी? (Photo-ITG)
बंगाल में एसआईआर ड्राफ्ट सामने आने के बाद क्या टीएमसी और बीजेपी की लड़ाई खत्म होगी? (Photo-ITG)

पश्चिम बंगाल में वोटर लिस्‍ट के स्‍पेशल इंटेंसिव रीव्‍यू (SIR) का पहला ड्राफ्ट सामने आ गया है. राज्‍य के 7.66 करोड़ वोटरों में से 58 लाख मतदाताओं के नाम काटे गए हैं. जिसमें करीब 24 लाख मृतक, 20 लाख प्रवासी, 12 लाख मिसिंग और करीब 1.38 लाख बोगस या डुप्‍लीकेट वोटरों के नाम शामिल हैं. अभी करीब 1.33 करोड़ वोटरों का इंतेजार हो रहा है जो SIR के लिए जरूरी औपचारिकता पूरी नहीं कर पाए हैं. जिसमें करीब 20 लाख नए वोटर शामिल हैं.

इस SIR रिपोर्ट ने विपक्ष और सत्ताधारी पक्ष दोनों को आईना दिखाने का काम किया है. देश में विपक्ष खासकर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस अब तक वोटर लिस्ट के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) को लेकर आक्रामक रही है. विपक्षी दल इसे लोकतंत्र पर हमला बताकर अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिम वोटरों को निशाना बनाने का आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन बिहार और पश्चिम बंगाल के ड्राफ्ट वोटर लिस्ट के आंकड़े इन दावों की जमीनी सच्चाई कुछ और ही बयान करते हैं.

क्‍या मुसलमानों को टारगेट करने के लिए किया जा रहा था SIR?

पश्चिम बंगाल में हाल ही में जारी ड्राफ्ट रोल्स का विश्लेषण बताता है कि जिन विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी अधिक है, वहां वोटरों के नाम कटने की दर अपेक्षाकृत कम रही है. अधिकांश मुस्लिम-बहुल सीटों पर डिलीशन प्रतिशत 10 फीसदी से नीचे रहा. इसके उलट, जिन इलाकों में हिंदी भाषी आबादी और प्रवासी मतदाताओं की संख्या अधिक है, वहां नाम कटने की संख्या कहीं ज्यादा सामने आई है. यह तथ्य सीधे-सीधे उस आरोप को कमजोर करता है कि SIR किसी खास समुदाय (मुस्लिम) को निशाना बनाकर चलाया जा रहा है.

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बंगाल की 80 फीसदी मुस्लिम बहुल सीटों पर औसत डिलीशन मात्र 0.6 प्रतिशत रहा है. जबकि इसके उलट उत्‍तर प्रदेश-बिहार के प्रवासियों की बहुलता वाली कोलकाता नॉर्थ जैसी शहरी और हिंदी भाषी सीटों पर डि‍लीशन की दर 25.92 फीसदी तक भी गई है. जोरासांको सीट पर तो यह 36.8 फीसदी तक दर्ज हुई. कुलमिलाकर, विपक्ष के प्रचार के अनुरूप SIR से मुस्लिम उतने प्रभावित नहीं हुए. और विपक्ष के दावे झूठे साबित हुए.

क्‍या ये SIR के बहाने NRC था?

SIR को NRC से जोड़कर देखने की कोशिश भी विपक्ष के नैरेटिव का अहम हिस्सा रही है. दावा किया गया कि यह नागरिकता जांच का छुपा हुआ रूप है. हालांकि आंकड़े इस आशंका की पुष्टि नहीं करते. SIR का मकसद मृत मतदाताओं, स्थायी रूप से पलायन कर चुके लोगों और डुप्लिकेट एंट्री को हटाकर वोटर लिस्ट को शुद्ध करना है, न कि नागरिकता तय करना. अगर यह NRC जैसी प्रक्रिया होती, तो मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सबसे ज्यादा असर दिखता, जबकि पश्चिम बंगाल के आंकड़े ठीक इसके उलट तस्वीर पेश करते हैं.

पश्चिम बंगाल में लगभग 58 लाख नाम ड्राफ्ट लिस्ट से हटाए गए, लेकिन यह कटौती समान रूप से सभी वर्गों में नहीं हुई. मुस्लिम-बहुल ज्‍यादातर सीटें अप्रभावित रहीं, जबकि प्रवासी और शहरी इलाकों में डिलीशन ज्यादा दिखा. अब कहा तो यहां तक जा रहा है कि यदि बंगाल में SIR के नाम पर NRC हुई है तो उसका हश्र असम जैसा होता दिख रहा है. जहां हुए NRC में मुसलमानों से ज्‍यादा हिंदू ही प्रभावित हुए. यह अंतर साफ करता है कि प्रक्रिया का आधार डेमोग्राफी नहीं, बल्कि प्रशासनिक सत्यापन है.

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क्‍या वाकई वोटर लिस्‍ट में एक बार नाम कट गया, मतलब कट  गया?

विपक्ष का दूसरा बड़ा दावा यह है कि ड्राफ्ट वोटर लिस्ट से नाम कटने का मतलब मताधिकार का स्थायी नुकसान है. जबकि चुनाव आयोग की प्रक्रिया इसके बिल्कुल उलट है. ड्राफ्ट रोल अस्थायी होता है. इसमें नाम हटने के बाद भी मतदाता को क्लेम और ऑब्जेक्शन दाखिल करने का पूरा अवसर मिलता है. दस्तावेज़ प्रस्तुत कर नाम दोबारा जुड़वाया जा सकता है. चुनाव आयोग ने अदालतों में भी स्पष्ट किया है कि बिना नोटिस, बिना जवाब का मौका दिए किसी भी मतदाता का नाम अंतिम सूची से नहीं हटाया जा सकता.

इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि बिहार SIR के पहले ड्रॉफ्ट में 65 लाख लोगों के नाम वोटर लिस्‍ट से काटे गए थे. लेकिन, अपील की कार्यवाही के बाद डिलीट हुए वोटरों की संख्‍या 48 लाख ही रह गई. बंगाल में भी अभी 58 लाख वोटरों के नाम कटे हैं, लेकिन माना जा रहा है कि इसमें से कई लोग अपने दावे को फिर से पेश करेंगे. और डिलीट हुए वोटरों की संख्‍या कम हो जाएगी.
 
पारदर्शिता नहीं, BLA का संकट

एक और आरोप यह लगाया जा रहा है कि SIR में कोई कानूनी सुरक्षा या पारदर्शिता नहीं है. लेकिन आयोग के दिशा-निर्देश बताते हैं कि हर डिलीशन से पहले नोटिस देना अनिवार्य है, और मतदाता के पास अपील की दो-स्तरीय व्यवस्था मौजूद है. पूरी प्रक्रिया न्यायिक निगरानी के दायरे में है, जिससे मनमानी की गुंजाइश सीमित हो जाती है. इतना ही नहीं SIR की पूरी कार्यवाही में राजनीतिक दलों द्वारा तय किए जाने वाले एजेंट (BLA) की भूमिका तय रही है.

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SIR को लेकर विपक्ष भले पारदर्शिता न होने का आरोप लगा रहा हो, जबकि हकीकत ये सामने आई कि जिन दलों ने सक्रियता से SIR की कार्यवाही में अपने BLA शामिल करवाए, उन्‍हें अब शिकायत नहीं है. जैसे यूपी के बारे में खबर आई कि यहां के कई विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस के पास BLA ही नहीं थे. इसी की छटपटाहट भाजपा को बंगाल में थी. जहां पार्टी ने अपनी झुंझलाहट मिटाने के लिए तृणमूल कांग्रेस पर ही आरोप लगा दिया कि वह SIR में धांधली करवा रही है.

वोटरों का मास डिलीशन होगा?

विपक्ष का दावा था कि SIR से करीब  30 फीसदी मतदाताओं के नाम वोटर लिस्‍ट से उड़ा दिए जाएंगे. खासतौर पर गरीब और अल्‍पसंख्‍यक इलाकों में. जबकि हकीकत ये है कि सुप्रीम कोर्ट में दाखिल ECI के हलफनामे में साफ कहा गया है कि इस प्रक्रिया में हर वोटर तक पहुंचने की कोशिश होगी. और चुनाव आयोग की मंशा है कि सभी पात्र वोटरों का नाम लिस्‍ट में शामिल हो. यह कार्यवाही वोटर लिस्‍ट के शुद्धिकरण की है, ना कि वोटरों के नाम काटने की.

बंगाल में 99.77% वोटरों तक पहले से भरा हुआ SIR फॉर्म पहुंचाया गया. जिसमें से महज 58 लाख यानी 7.6 फीसदी वोटरों के नाम ही काटे गए, ना कि 30 फीसदी. बिहार में 47 लाख नाम काटे गए थे. वहां की कुल मतदाता संख्‍या का वे 6 प्रतिशत ही थे. यानी 30 फीसदी नाम वहां भी नहीं कटे.

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क्‍या घुसपैठियों को लेकर कितना असरदार रहा SIR?

सबसे दिलचस्‍प है घुसपैठियों को लेकर किया गया SIR से जुड़ा दावा. बीजेपी, खासकर सुवेंदु अधिकारी कहते रहे हैं कि 'SIR के चलते करीब  एक करोड़ वोटरों की छंटनी हो जाएगी. ये बांग्‍लादेशी और रोहिंग्‍या घुसपैठिए हैं, जो ममता बनर्जी के कोर वोटर हैं.' ऐसा ही दावा बिहार SIR के दौरान भी किया गया था.

हकीकत ये है कि बंगाल के डिलीट हुए 58 लाख वोटरों में से करीब 20 लाख के बारे में  कहा जा रहा है कि वे कहीं और चले गए हैं. यानी प्रवासी हैं. जबकि 1.38 लाख वोटरों को बोगस या डुप्‍लीकेट के रूप में मार्क किए गए हैं. बंगाल SIR के पहले ड्राफ्ट ने घुसपैठियों को लेकर बीजेपी के तमाम दावों की हवा निकाल दी है. तृणमूल कांग्रेस की ओर से तो बीजेपी से माफी की मांग की गई है. 

सीमावर्ती इलाकों पर पड़ेगा सबसे ज्‍यादा असर?

भाजपा की ओर से दावा किया गया था कि SIR का सबसे ज्‍यादा असर बंगाल के सीमावर्ती जिलों मालदा, मुर्शीदाबाद, नादिया में देखने को मिलेगा. क्‍योंकि, इन्‍हीं इलाकों में सबसे ज्‍यादा घुसपै‍ठ हुई है. जबकि हकीकत ये है कि इन सीमावर्ती जिलों में वोटरों के बारे में कुछ गड़बडि़यां जरूर सामने आईं. जैसे बच्‍चों और माता-पिता की उम्र में फर्क को लेकर. यहां कोई बहुत बड़े पैमाने पर वोटरों के नाम नहीं काटे गए हैं. बल्कि सबसे ज्‍यादा नाम कटे हैं हिंदी भाषी शहरी क्षेत्रों में ही.

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निष्कर्ष साफ है कि SIR को लेकर फैलाए गए कई सियासी भय, शंकाएं और दावे तथ्यों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते. ड्राफ्ट रोल से नाम कटना अंतिम फैसला नहीं है, और न ही यह किसी एक समुदाय को निशाना बनाने की साजिश के ठोस प्रमाण देता है. बिहार और पश्चिम बंगाल के अनुभव बताते हैं कि SIR को राजनीतिक चश्मे से देखने के बजाय, इसे मतदाता सूची को दुरुस्त करने की एक प्रशासनिक कवायद के रूप में समझना ज्‍यादा उचित होता. SIR को लेकर लड़ाई में पक्ष-विपक्ष के बजाय निर्वाचन आयोग अपनी जगह सही और संवैधानिक साबित हुआ है.

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