लोकजीवन जिनका पीछा करता रहा, डॉ तुलसीराम की जयंती पर आत्मकथा 'मुर्दहिया' का अंश
डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा 'मुर्दहिया' अनूठी साहित्यिक कृति होने के साथ ही पूरबी उत्तर प्रदेश के दलितों की जीवन स्थितियों तथा साठ और सत्तर के दशक में इस क्षेत्र में वाम आंदोलन की सरगर्मियों का जीवंत खजाना है.
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डॉ तुलसीराम की आत्मकथा 'मुर्दहिया' का कवर [ सौजन्यः राजकमल प्रकाशन]
डॉ. तुलसीराम का ताल्लुक आजमगढ़ से था. उनका जन्म 1 जुलाई, 1949 को हुआ था. दलित समुदाय में पैदा होने के चलते उनका बचपन कथित मान्यताओं और बंधनों से जूझने के साथ ही सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाइयों में बीता. ग़रीबी और अभाव उनकी ज़िदगीं में साये की तरह रहा, लेकिन आरंभिक जीवन में उन्हें जो आर्थिक, सामाजिक और मानसिक पीड़ा झेलनी पड़ी, उसने उन्हें लेखक बना दिया. उनके साहित्य में उस दौर की मुखर अभिव्यक्ति हुई है.
बचपन से किताबों के शौकीन डॉ. तुलसीराम को मार्क्सवाद से बहुत संबल और साहस मिला. बनारस आने के बाद वह कुछ लेखकों से जुड़ गए और डॉ. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं का गहन अध्ययन किया. इससे उनकी रचना-दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन हुआ. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय' से पढ़ाई समाप्त करने के बाद वह दिल्ली चले आए और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्यापन करने लगे और बाद में प्रोफ़ेसर भी हुए.
डॉ. तुलसीराम ने अपने लेखन में दलित जीवन के कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़ना आदि की खुलकर अभिव्यक्ति की और सामाजिक बंधनों पर जमकर हमला बोला. उनके अचेतन पर महात्मा बुद्ध का गहरा प्रभाव था, जिसका उदाहरण उनकी आत्मकथा 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' में दिखता है. गीत और कविताएं डॉ. तुलसीराम के जीवन का अभिन्न अंग रहे, इसीलिए उनके 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' दोनों की ही लेखन शैली में इन दोनों के बहाव दिखते हैं. ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ दो खंडों में बंटी उनकी आत्मकथा अनूठी साहित्यिक कृति होने के साथ ही पूरबी उत्तर प्रदेश के दलितों की जीवन स्थितियों तथा साठ और सत्तर के दशक में इस क्षेत्र में वाम आंदोलन की सरगर्मियों के जीवंत खजाना हैं.
अपनी इस आत्मकथा में बाबासाहब भीमराव अंबेडकर के सामाजिक आत्म को प्रोफ़ेसर तुलसीराम ने अपनी स्मृतियों का सहारे अपने आत्म से जोड़ कर प्रस्तुत करने की कोशिश की है. " 'मुर्दहिया' पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा था- ‘मुर्दहिया’ हमारे गांव धरमपुर (आजमगढ़) की बहुद्देशीय कर्मस्थली थी. चरवाही से लेकर हरवाही तक के सारे रास्ते वहीं से गुजरते थे. इतना ही नहीं, स्कूल हो या दुकान, बाजार हो या मंदिर, यहाँ तक कि मजदूरी के लिए कलकत्ता वाली रेलगाड़ी पकड़ना हो, तो भी मुर्दहिया से ही गुजरना पड़ता था.
"हमारे गांव की ‘जिओ-पॉलिटिक्स’ यानी ‘भू-राजनीति’ में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केन्द्र जैसी थी. जीवन से लेकर मरन तक की सारी गतिविधियाँ मुर्दहिया समेट लेती थी. सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुर्दहिया मानव और पशु में कोई फर्क नहीं करती थी. वह दोनों की मुक्तिदाता थी. विशेष रूप से मरे हुए पशुओं के मांसपिंड पर जूझते सैकड़ों गिद्धों के साथ कुत्ते और सियार मुर्दहिया को एक कला-स्थली के रूप में बदल देते थे. रात के समय इन्हीं सियारों की ‘हुआं-हुआं’ वाली आवाज उसकी निर्जनता को भंग कर देती थी. हमारी दलित बस्ती के अनगिनत दलित हजारों दुख-दर्द अपने अंदर लिये मुर्दहिया में दफन हो गए थे. यदि उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती, उसका शीर्षक ‘मुर्दहिया’ ही होता.
"मुर्दहिया सही मायनों में हमारी दलित बस्ती की जिंदगी थी. जमाना चाहे जो भी हो, मेरे जैसा कोई अदना जब भी पैदा होता है, वह अपने इर्द-गिर्द घूमते लोक-जीवन का हिस्सा बन ही जाता है. यही कारण था कि लोकजीवन हमेशा मेरा पीछा करता रहा. परिणामस्वरूप मेरे घर से भागने के बाद जब ‘मुर्दहिया’ का प्रथम खंड समाप्त हो जाता है, तो गांव के हर किसी के मुख से निकले पहले शब्द से तुकबंदी बनाकर गानेवाले जोगीबाबा, लक्कड़ ध्वनि पर नृत्यकला बिखेरती नटिनिया, गिद्ध-प्रेमी पग्गल बाबा तथा सिंघा बजाता बंकिया डोम जैसे जिन्दा लोक पात्र हमेशा के लिए गायब होकर मुझे बड़ा दुख पहुंचाते हैं."
प्रस्तुत है डॉ. तुलसीराम की जयंती पर उनकी आत्मकथा 'मुर्दहिया' का एक अंशः
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मेरे घर वालों की एक ऐसी बकेना भैंस थी, जो मुझे देखते ही बांवां- बांवां बोलते हुए मेरे पास आ जाती थी और मुझे चाटने लगती थी. उसका मुझसे बेहद लगाव था. मेरी एक विचित्र आदत थी. मुर्दहिया पर जब भी चराने जाता, मैं उसकी पीठ पर एक घुड़सवार की तरह बैठ जाता. उसे किसी भी तरह कोई एतराज नहीं होता. मैं उसकी पीठ पर बैठा रहता तथा वह घूमती-फिरती चरती रहती थी. इसी दौरान एक दिन गांव के ही चिखुरी ने भैंस के थन में लकड़ी से खोद दिया. भैंस बिदककर बड़ी तेजी से उछल पड़ी. मुझे जरा भी पता नहीं चला कि मैं कैसे एक झाड़ी के पास जमीन पर कुछ देर के लिए बेहोश पड़ गया ?
झाड़ी से सटी एक कब्र थी. होश आने पर मेरे होश उड़ गए. भूतों के डर से में कांप गया. यह खबर बस्ती में फैल गई. सभी कहने लगे कि भैसों पर भूत चढ़कर घूमते हैं किन्तु वे दिखाई नहीं देते. लोग मेरे बारे में कहते कि इसके चढ़ने से वे नाराज हो गए, इसीलिए इसे उठाकर जमीन पर पटक दिया. अपने चिर परिचित अंदाज में नग्गर चाचा मेरे ऊपर बरस पड़े. मेरी यह समझ में नहीं आ रहा था कि मैं चिखुरी को भूत समझूँ या कि जो मुर्दहिया में दफन थे उनको? चाहे जो भी हो, इस घटना के बाद मैंने कभी भैंस पर बैठकर मुर्दहिया के भूतों को गुस्सा नहीं दिलाया. इस दुर्घटना से किसुनी भौजी बहुत दुखित हो गई थी. एक दिन अपने घर बुलाकर मुझे समझाया कि 'हे बाबू ई सब ‘हवा-बतास' से बचि के रहिहा. इनकर गुस्सा जान लेउवा होला.'
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हमारे क्षेत्र में भूत पिशाच को दलित ‘हवा-बतास' भी कहते थे. इसी किसनी भौजी के ससुर का नाम था ‘जैदी’ जो अपने बेटे से अलग रहते थे. जेदी चाचा अपनी जवानी के दिनों में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उसी बंसू पांडे के खानदान की हरवाही करते थे. विश्वयुद्ध के दौरान एक दिन वे हल जोत रहे थे. वहीं खेत से ही वे गायब हो गए. गांव वाले कहते थे कि अंग्रेज ढेर सारे मजदूरों का अपहरण करके लड़ाई के लिए विलायत ले गए थे. यह तो साफतौर पर मालूम नहीं कि जैदी कैसे गायब हो गए वे स्वयं किसी को असली बात नहीं बताते.
वर्षों बाद जब द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो गया, तो वे गांव वापस आए थे. उनकी वापसी से गांव वाले बहुत खुश थे. वे थे तो बिल्कुल अनपढ़ किन्तु बातें ऐसी करते थे कि लगता था कि वे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हों. जैदी चाचा एक चित्र शैली में 'चरचेलवा' का जिक्र करते थे और उसे बहादुर बताते थे. वे अनेक हथियारों के नाम के बिगडैल शब्द भी बीच-बीच में अकारण ही बोलने लगते थे, जैसे-'सबमरी' फैटर पलेन, डमडम, टंक, बनेठी, बम आदि-आदि. कुछ शब्द ऐसे भी बोलते थे, जैसे-मसपोटम, सटल, बसरा, बगदाद, दुबई, चुम्मा, दजला आदि-आदि. इस तरह के अनेक शब्द वे बिना वाक्य के स्वतंत्र रूप से ऐसे बोलते थे कि जैसे किसी को डांट रहे हों. हम सबको उस समय कुछ भी समझ में नहीं आता था कि वे क्या बोल रहे हैं.
वर्षों बाद जब मैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा ग्रस्त था, तब समझ सका कि जैदी चाचा चर्चिल को चर्चेलवा, सब मैरिन को सबमरी, फाइटर प्लेन को फैटर पलेन, डमडम बुलेट को डम डम, टैंक को टंक, बैनेट को बनेठी, मेसोपोटामिया को मसपोटम, शत् अल् अरब को सटल, रास अल खैमा को खम्मा आदि-आदि कहते थे. हकीकत यह कि जेदी चाचा को अंग्रेज विश्वयुद्ध के दौरान एक अस्थायी टहलुवा के रूप में बगदाद ले गए थे. बाद में जैसे-तैसे वे गांव वापस आ गए थे.
वास्तविकता यह थी कि जैदी चाचा का मूल नाम 'लूरखूर' था. किन्तु बगदाद पहुँचने पर किसी अंग्रेज़ अफसर ने उन्हें शिया मुसलमानों के लोकप्रिय उपनाम 'जैदी' के नाम से पुकारना शुरू कर दिया. वहां यही उनका प्रचलित नाम था. किन्तु लुरखुर चाचा अपने को ‘जैदी’ समझने लगे थे. गांव में भी लोग ‘जैदी' के रूप में ही उन्हें पुकारने लगे थे. वे विश्वयुद्ध की अनेक कहानियां सुनाया करते थे, जिसे सुनकर मैं बहुत मंत्रमुग्ध हो जाता था. उनकी यह कहानियां मुझे ललचा-ललचाकर मारती थी. इन्हें सुनकर उत्कट इच्छा होती थी कि मैं भी पांचवीं के आगे पढूं और सारी दुनिया के बारे में जानूं. किंतु पढ़ाई छूटने की निरंतर दुविधा एवं चिन्ता ने मुझे एकदम मनहूस बना दिया था.
इस ऊहापोह के दौरान एक अजीब हादसा हो गया. जैदी चाचा वहीं बंसू पांडे के यहां फिर से हरवाही करने लगे थे. उचित बनि की मांग के कारण वे अक्सर झगड़ पड़ते थे. उनके इस स्वभाव के कारण बंसू ने बकरी चोरी के आरोप में सबक सिखाने के लिए चिरैयाकोट थाने के एक ब्राह्मण सिपाही, जिससे उनकी दोस्ती थी, को बुलाकर जैदी चाचा को बहुत पिटवाया और डोरी में बांधकर थाने ले जाने की तैयारी करने लगे. विचित्र तथ्य यह था कि बंसू के पास कोई बकरी थी ही नहीं. किसी तरह जैदी चाचा पांच रुपया घूस देकर पुलिस से छुटकारा पाए. पुलिस से इस बार भी हम सभी बुरी तरह से डर गए थे.
बंसू पांडे के इस छलिया कपट से आघातित होकर जैदी चाचा प्रतिरोध स्वरूप एक नए किस्म का सत्याग्रह करने लगे. वे सब काम-धाम बंद कर दाढ़ी-मूंछ बढ़ाना शुरू कर दिए तथा निचंड धूप में चारपाई डालकर एक चादर ओढ़कर दिन भर सोते रहते थे. पूछने पर कहते थे कि जब तक बाभन न्याय नहीं करते, मैं दाढ़ी मूंछ बढ़ाता रहूंगा तथा धूप में ही सोऊंगा. वे इस मामले में निहायत जिददी थे. पंचायत आदि द्वारा किसी अन्य समझौते को वे मानने से साफ इनकार कर दिए थे. धीरे-धीरे वे बीमार पड़ने लगे. अंततोगत्वा उसी अकाल में वे प्राण त्याग दिए. उनकी मृत्यु से बड़ा शोकमय वातावरण हो गया था.
जैदी चाचा गुरमुख थे. वे शिव नारायण पंथ को मानने वाले थे. जब-जब हमारे घर गादी लगती थी, जैदी चाचा संतौवा गायकी में माहिर थे. उनकी बड़ी बुलंद आवाज थी. जब संतोबा ढोल-मजीरे के साथ अपनी चरम सीमा पर होता था, तो जैदी चाचा अचानक खड़े होकर बहुत जोर से डांटने की शैली में 'ह्वै' बोल पड़ते थे. उनके इस जोरदार 'ह्वै' से तौबा का आकर्षण बेहद रोचक बन जाता था. ऐसे अवसरों पर मैं इंतजार करता रहता था कि कब जैदी चाचा 'ह्वै' कहकर डांटते हैं?
जब उनकी लाश दफनाने के लिए मुर्दहिया पर ले जाई जा रही थी, तो शिवनारायण पंथ की परम्परा के अनुसार संतौवा के दौरान कई लोगों ने उनकी इस डांटने वाली शैली का अनुसरण करना चाहा, किन्तु वो बात कहां जो जैदी चाचा में थी. मैं भी उनकी लाश के पीछे-पीछे मुर्दहिया पर गया था. उनके दफन के साथ ही वहां के भूतों की आबादी में एक और नाम जुड़ गया. उनकी कब्र से लौटते हुए मेरे मस्तिष्क में उनके ये शब्द- चरचेलवा, मसपोटम, फैटर, डमडम, खम्मा, दजला आदि शोर मचाते रहे.
आज जब मैं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के एक बड़े सेंटर का प्रोफेसर एवं अध्यक्ष बन चुका हूं, तो यह स्वीकारने में गर्व होता है कि इसके पीछे मेरी प्रेरणा के असली जनक वे तीन गरीब मजदूर थे, जिन्होंने मुझे छोटी उम्र में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की तरफ अनजाने में ही खींचा था. इनमें एक थे सोवियत संघ में ‘समोहीखेती' वाले मुन्नर चाचा, दूसरे डागे को ‘डंगरिया' कहने वाले सोनई तथा तीसरे थे, दढ़ियल जैदी चाचा.
उनके दाढ़ी-मूंछ रखने का रहस्य मेरे मस्तिष्क में तब खुला जब सन् 1978-79 में ईरान पर शोध के दौरान मुझे पता चला कि वहां के गिलान प्रांत के मिर्जा कुचेक खां नामक एक क्रांतिकारी के नेतृत्व में सन् 1910 तथा 20 के दशक में हजारों युवकों ने कसम खाई थी कि जब तक वे अंग्रेज साम्राज्यवाद को ईरान की धरती से भगा नहीं देंगे तब तक वे दाढ़ी-मूंछ बढ़ाते रहेंगे तथा घर छोड़कर जंगल में रहेंगे. ईरान में उनके इस आंदोलन को ‘जंगल आंदोलन' तथा क्रांतिकारियों को जंगली कहा जाता है.
मिर्जा कुचेक खां लेनिन से पत्र व्यवहार भी करते थे. जाहिर है, जैदी चाचा ने अपने बगदाद प्रवास के दौरान इन ईरानी जंगलियों के बारे में अवश्य कुछ सुना होगा, इसीलिए उन्होंने उनका रास्ता अपनाते हुए बंसू पांडे के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था, जिसके चलते उन्होंने जान दे दी, किन्तु क्रांतिकारी आदर्श नहीं छोड़ा. ऐसे थे भुक्खड़ क्रांतिकारी बगदाद रिटर्न 'जैदी' चाचा.
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पुस्तकः मुर्दहिया लेखकः डॉ. तुलसीराम विधाः आत्मकथा प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन मूल्यः 195/- रूपए पेपरबैक पृष्ठ संख्याः 185