कौन- कौन बनेगा कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य? जाहिर है ग्रैंड ओल्ड पार्टी में कार्यसमिति ही अहम फैसले लेने वाला शीर्ष निकाय है इसलिए पार्टी का हर दिग्गज नेता कार्यसमिति के सदस्यों में अपना नाम देखना चाहता है.
कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के सामने एक अहम काम पार्टी कार्यसमिति के गठन को अंजाम देना है. कार्यसमिति में कांग्रेस अध्यक्ष समेत कुल 25 सदस्य होते हैं. इनमें 12 सदस्य मनोनीत होते हैं और 12 का चुनाव होता है. लेकिन पार्टी सूत्रों की मानें तो सभी 24 सदस्य मनोनीत ही होने वाले हैं. या फिर अगर चुनाव वाली 12 सीटों पर राहुल की जिद पर चुनाव हुआ भी तो उसी तर्ज पर होगा जैसे कि राहुल का पार्टी अध्यक्ष के लिए हुआ था. यानि 12 लोग ही नामांकन दाखिल करेंगे और बिना वोटिंग के यानि निर्विरोध ही चुन लिए जाएंगे. उन्हें ही निर्वाचित सदस्य घोषित कर दिया जाएगा.
हालांकि, इस मुद्दे पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल का कहना है कि, 16 से 18 मार्च को दिल्ली में होने वाले प्लेनरी सेशन में पीसीसी डेलिगेट और एआईसीसी के सदस्य मौजूद रहेंगे. वहीं एआईसीसी के सदस्यों की राय के मुताबिक फैसला होगा कि कार्यसमिति की 12 चुनाव वाली सीटों के लिए वास्तव में चुनाव होगा या नहीं. वैसे हर 7 पीसीसी डेलिगेट (प्रदेश कांग्रेस समिति) में 2 एआईसीसी के मेंबर चुने जाते हैं और वही कार्यसमिति के चुनाव में वोटिंग करते हैं.
सूत्रों की मानें तो पार्टी की कोशिश यही है कि, एआईसीसी मेंबर ही सभी कार्यसमिति के सदस्यों को चुनने का अधिकार एक सुर से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को सौंप दें, फिर राहुल अपनी कार्यसमिति का गठन अपने हिसाब से करें.
कांग्रेस में अधिकतर नेताओं का मानना है कि क्योंकि इस वक्त पार्टी को एकजुट होकर राहुल के नेतृत्व में बीजेपी से टकराने की जरूरत है, ऐसे में पार्टी के भीतर कार्यसमिति की 12 सीटों के लिए चुनाव कराकर नेताओं में आपसी खींचतान जैसा कोई संदेश देने की कोई तुक नहीं है.
कांग्रेस में होता लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का पालन
वैसे इस मुद्दे पर कांग्रेस नेता आरपीएन सिंह का कहना है- ‘बीजेपी में तो चुनावी प्रक्रिया ही नहीं होती, उस पर मीडिया चुप रहता है, जबकि कांग्रेस में तो बाकायदा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का पालन होता है. कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में भी सबके सामने हुआ और आगे भी होगा.’
कुल मिलाकर राहुल भी समझ गए हैं कि, आदर्शवाद और यथार्थवाद की सियासत में भरोसा यथार्थवाद पर ही करना होगा. इसीलिए बदलाव करके हल्के फुल्के तरीके से यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई में तो राहुल का प्रयोग चल रहा है, लेकिन मूल कांग्रेस में वही होता दिख रहा है जो पहले भी होता आया है.
राहुल गांधी ने बदला सियासत का तरीका
करीब 14 साल पहले राजनीति में आगाज करने से कांग्रेस अध्यक्ष बनने तक का सफर तय करते हुए राहुल बदले हैं. साथ ही उनकी सियासत का तरीका भी बदला है. राजनीति में आते ही राहुल कांग्रेस में लोकतंत्र को बढ़ावा देने की मुहिम चलाते दिखे. टीम राहुल अमेरिका और इंग्लैंड की तर्ज पर पार्टी के भीतर चुनाव कराने की वकालत करती नजर आई.
2006 में हैदराबाद अधिवेशन में पार्टी के महासचिव बने राहुल को पार्टी के छात्र संगठन एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस का प्रभार मिला. यहां राहुल ने मनोनयन की प्रक्रिया को खत्म करके चुनाव कराने शुरू कर दिए. राहुल के इस कदम की पार्टी के भीतर ही काफी आलोचना हुई. राहुल की इस नीति पर नेताओं का कहना रहा क़ि, सोच अच्छी है, लेकिन अभी हिंदुस्तान की सियासत इसके लिये तैयार नहीं है. साथ ही ज़्यादातर जगहों पर पैसों के अंधाधुंध इस्तेमाल की खबरें आईं और नेताओं के बच्चों- रिश्तेदारों को आसानी से पद मिल गए.
2014 के बाद से ठंडे बस्ते में है योजना
राहुल यहीं नहीं रुके, साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर 15 सीटों पर प्राइमरी योजना लागू की. इसके तहत लोकसभा सीट से पार्टी टिकट दावेदारों के बीच चुनाव कराके उम्मीदवार का चयन किया गया. वैसे तो 2014 के चुनाव में कांग्रेस विरोधी माहौल था ही, लेकिन प्राइमरी वाली सीटों में से कांग्रेस सब पर हार गई. हालांकि, 2014 के बाद से ये योजना पूरी तरह ठंडे बस्ते में है.
दरअसल, पार्टी के पुराने रणनीतिकारों का मानना है कि, इस तरह का तरीका अपनाने से चुनाव से पहले ही पार्टी के भीतर फूट और झगड़ा बढ़ जाता है, जिसका नुकसान पार्टी को होता है. अभी अमेरिका या इंग्लैंड की तर्ज पर भारत में सियासत नहीं हो सकती. साथ ही जब हर पार्टी इस सिस्टम से चले तो ही इसको कांग्रेस में लागू किया जाये. जैसा क़ि, अमेरिका या इंग्लैंड में होता है.
किए गए कई बदलाव
इसके बाद राहुल का पायलट प्रोजेक्ट पूरी तरह बंद तो नहीं हुआ, लेकिन यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनावी प्रक्रिया में काफी बदलाव कर दिए गए. हां, मूल कांग्रेस में राहुल की चुनाव कराने की योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. शायद राहुल भी हिंदुस्तान की सियासत की हकीकत से रूबरू हो चुके हैं. लेकिन अपने दिल की ख्वाइश को राहुल भला कैसे पूरी तरह मार देते. इसीलिए पार्टी अध्यक्ष मनोनीत होने की नेताओं की सलाह को उन्होंने नकार दिया, वो चाहते तो आसानी से सोनिया गांधी के बाद पार्टी अध्यक्ष मनोनीत हो सकते थे. राहुल की ज़िद के बाद ही पार्टी अध्यक्ष के चुनाव की पूरी प्रक्रिया हुई. हालांकि, उम्मीद के मुताबिक, राहुल के सामने किसी नेता ने नामांकन ही नहीं भरा और राहुल बिना मतदान के पार्टी अध्यक्ष का चुनाव जीत गए.
दरअसल, पार्टी नेताओं का कहना है कि, पार्टी में लोकतंत्र का मतलब है कि, पहले आपसी बातचीत से, मिल बैठ कर फैसला हो जाए वही अच्छा है. पार्टी के भीतर के चुनाव और आम चुनाव में फर्क होता है. आम चुनाव के बाद भी हर पार्टी के जीते हारे उम्मीदवारों को एक होकर किसी से मुकाबला नहीं करना होता, जबकि पार्टी के भीतर चुनाव होने के बाद दिलों में खटास आ जाती है, आपसी आरोप प्रत्यारोप होते हैं, जिसके बाद एक होकर दूसरी पार्टी से लड़ने में परेशानी आना तय है.