पिछले साल 28 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में अपना भाषण संस्कृत के एक श्लोक से खत्म किया था. उन्हीं दिनों मानव संसाधन विकास मंत्रालय केंद्रीय विद्यालयों में बतौर तीसरी भाषा जर्मन की जगह संस्कृत को लाने के अपने एक सबसे विवादस्पद फैसले को अंतिम रूप दे रहा था, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि मोदी के गृह राज्य गुजरात में 19 कॉलेजों के तकरीबन 100 संस्कृत शिक्षक दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहे हैं. इनमें से कई शिक्षक प्रोफेसर हैं और उन्हें एक दशक से भी ज्यादा पढ़ाने का अनुभव है, लेकिन उन्हें जो तनख्वाह मिल रही है, वह सरकारी दफ्तरों में चपरासियों को मिलने वाली तनख्वाह से भी कम है.
पंडिताई करने को मजबूर
35 वर्षीय राकेश जोशी ने एक दशक पहले साबरकांठा जिले में मुडेती के भगवान याज्ञवल्क्य संस्कृत कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया था. आज वे यहां के प्रधानाचार्य हैं. उन्हें बतौर वेतन महज 8,000 रुपये मिलते हैं. 39 वर्षीय रोहित दवे भी उसी कॉलेज में 14 साल से संस्कृत के प्रोफेसर हैं. उनकी तनख्वाह है 6,000 रु. अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए जोशी और दवे दोनों कॉलेज खत्म होने के बाद पुरोहित का काम करते हैं. हालांकि सभी संस्कृत शिक्षकों को इतनी कम तनख्वाह नहीं मिलती, जितनी जोशी और दवे को मिलती है. गुजरात के 40 संस्कृत कॉलेजों में से 21 कॉलेज सरकारी सहायता प्राप्त हैं, जिनके प्रधानाचार्यों को 55,000 रुपये और प्रोफेसरों को 42,000 रु. मासिक वेतन मिलता है. इन 21 कॉलेजों में से 20 को सरकारी अनुदान की पात्रता करीब दो दशक पहले मिली थी, जब कांग्रेस सत्ता में थी.
बीजेपी की सरकार आने के बाद 1998 में जिस एकमात्र कॉलेज को अनुदान की मंजूरी दी गई, वह विश्व हिंदू परिषद के एक नेता का है. मुडेती कॉलेज के निदेशक निरंजन शुक्ल कहते हैं, 'बीजेपी भारतीय संस्कृति की सरपरस्ती का दावा करती है. तो फिर उस भाषा के साथ इतनी नाइंसाफी क्यों, जो हमारे प्राचीन ज्ञान की कुंजी है.' वे कहते हैं कि सभी 19 कॉलेजों को 5-10 करोड़ रु. का सालाना सरकारी अनुदान काफी होगा, जिससे उनका प्रबंधन तनख्वाह देने और रखरखाव का काम कर पाएगा.
उपेक्षित भाषा
बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में गुजरात में एक संस्कृत यूनिवर्सिटी की स्थापना करके सभी कॉलेजों को उसके अधीन लाया गया. पाठ्यक्रम में ज्योतिष, वास्तुशास्त्र और मंदिर वास्तुकला तथा कर्मकांड (हिंदू धार्मिक रीतियों और अनुष्ठानों का संचालन) जैसे विषय जोड़े गए. आदिवासियों को संस्कृत पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया गया और संस्कृत के ग्रेजुएट तथा पोस्टग्रेजुएट लोगों को अन्य विषय के लोगों की तरह सरकारी नौकरियों की पात्रता दी गई, लेकिन वे भी संस्कृत के लिए अनुदान देने में पीछे छूट गए.
2012 में सरकार ने इन 19 कॉलेजों में से हरेक के कम-से-कम चार प्रोफेसरों को सरकारी वेतनमान देने की मंजूरी देते हुए एक आदेश जारी किया था, जिसमें इन कॉलेजों के लगभग सभी शिक्षक आ जाते, लेकिन इसमें जोशी और दवे सरीखों की जगह नए प्रोफेसरों की नियुक्ति की मांग की गई थी. कॉलेजों ने इनकार कर दिया. लिहाजा वह आदेश भी कागजों पर ही रह गया. संस्कृत कॉलेजों के प्रोफेसरों की संस्था गुजरात प्रदेश संस्कृत पाठशाला शिक्षण मंडल के सचिव महेश ठक्कर कहते हैं, 'बीजेपी सरकार ने संस्कृत की शिक्षा को नए संगठित स्तर पर ले जाने का अच्छा काम किया है पर इस मंदिर के पास पर्याप्त ईंधन है ही नहीं. यह जीवित कैसे रहेगा?'
उनके जवाब का कुछ हिस्सा एक ट्रस्ट में है. गुजरात में संस्कृत पढ़ाने वाले सभी कॉलेजों को, जिनमें सरकारी सहायता प्राप्त कॉलेज भी हैं, नडियाड की 300 साल पुरानी मंदिर संस्था संतराम मंदिर छात्रों को खाना खिलाने के लिए मुफ्त अनाज देती है. सरकारी सहायता के अभाव में, दवे कहते हैं, 'संतराम मंदिर ही हमारी सरकार जान पड़ता है.' ठक्कर के सवाल का बाकी जवाब इसी में है कि सरकार को सहायता का हाथ और बढ़ाना होगा.