देश की अदालतों पर मुकदमों का लगातार बढ़ता बोझ, जजों के खाली पद, नई अदालतें बनाने के वादे, सब मुंह बाए सरकार की से उम्मीद लगाए देख रहे हैं. 2014 के फरवरी में जारी किए गए बीजेपी के घोषणापत्र में कहा गया था कि अगर बीजेपी सरकार आई तो अदालतों की संख्या ही नहीं, बल्कि जजों की संख्या भी तेजी से बढ़ाई जाएगी. ताकि लंबित मुकदमों का बोझ हटाया जा सके.
इन साढ़े चार सालों में ये वादा कितना पूरा हुआ इसकी पड़ताल करने के लिए आजतक ने सूचना का अधिकार के तहत अर्जियां लगाईं तो जवाब काफी दिलचस्प निकले.
देश की अदालतों में आखिर कितने मुकदमे लंबित हैं. शायद इसकी सही जानकारी किसी सरकार या प्राधिकारण के पास नहीं है. ऐसे में इंडिया टुडे की ओर से दाखिल आरटीआई के जवाब में कई हाईकोर्ट या जिला अदालतों ने अजीबोगरीब बहाने बनाए.
इतना ही नहीं, किसी ने डराया तो किसी ने धमकाया और किसी ने पहले पैसे मांगे तो कोई कानूनी अड़चन का बहाना बनाकर जानकारी देने से ही मुकर गया. यानी जिसकी जैसी मर्जी और मूड हुआ आरटीआई को वैसे ही समझा और समझाया. हालांकि, कुछ अदालतों या उनके अफसरों ने सीधे-सीधे जानकारी दी.
इंडिया टुडे की तरफ से रिसर्च एडीटर अशोक कुमार उपाध्याय की लगाई आरटीआई अर्जी में हमारे सवाल थे.
- देश भर में कितनी अदालतें हैं?
- राज्यवार जजों के कितने पद हैं और कितने जज हैं?
- किन किन अदालतों में कितने मुकदमे लंबित हैं और 2012 के बाद से इनकी संख्या कितनी है?
- 2012 से अब तक अदालतों से कितने मुकदमे निपटाए गए?
- इन अदालतों में पिछले 10 वर्षों से कितने मुकदमे लंबित पड़े हैं?
पहला जवाब गुजरात से आया, जिसमें सवालों के जवाब देने के बजाय हाईकोर्ट के आरटीआई विभाग ने लिखा कि आपने 10 रुपये जमाकर आरटीआई अर्जी लगाई है, जबकि हमारी फीस 50 रुपये है. पहले पैसे जमा कराएं तब जवाब दिया जाएगा. यानी चालीस रुपये और दें तब जवाब लें. वैसे कायदे से 10 रुपये में एक सवाल का जवाब तो बनता ही था.
इसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट से जवाब मिला कि 19 सितंबर 2018 तक दिल्ली की निचली अदालतों में कुल 202 कोर्ट हैं. लेकिन जजों की तादाद, लंबित मुकदमों की संख्या, कितने निपटाये गए इन सवालों का जवाब में सिर्फ इतना कहा गया कि इसका डाटा उपलब्ध नहीं है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के सूचना विभाग ने भी जवाब देने के बजाय कानून पढ़ाते हुए टका सा जवाब दिया. जिसमें अपनी फीस और नियम बताते हुए कहा कि आरटीआई के नियम तीन के तहत एक अर्जी में एक ही आइटम होगा. नियम चार के तहत हर अर्जी के साथ नकद, पे-ऑर्डर या ड्राफ्ट लगाना जरूरी है.
साथ ही कहा गया कि ये सब हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल या संबंधित जिला अदालत के जिला जज के नाम होने चाहिए. अगर जवाब टेंडर, नीलामी, कोटेशन, बिजनस कांट्रेक्ट वगैरह से संबंधित है जिसमें डिस्क, फ्लॉपी, टेप या वीडियो कैसेट के रूप में जवाब देना है तो ढाई सौ रुपये. सिर्फ कागज पर जवाब चाहिए तो सिर्फ 50 रुपये में मिल जाएगा. पहले पैसे लाओ तब जवाब पाओ. 10 रुपये में सिर्फ केंद्र सरकार जवाब देती है.
हां, दक्षिण के राज्यों ने आरटीआई अर्जी में पूछे गये आंकड़े जरूर मुहैया कराए. आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने बताया कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में जिला जजों के पद 234 हैं, लेकिन 212 जिला जज अभी काम कर रहे हैं. इसी तरह सिविल के सीनियर जजों के 220 पदों में से 204 जज हैं. यानी 16 की कमी है. वहीं जूनियर सिविल जजों के 533 पद तय हैं, लेकिन काम कर रहे हैं सिर्फ 474 यानी 59 पद खाली हैं.
बाकी सवालों के जवाब में उन्होंने कहा कि हमारे लिए ये मुमकिन नहीं कि हर कोर्ट का हिसाब रखा जाए.
महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई की अदालतों ने साफ किया कि आपके जवाब छह पेज में होंगे. पांच रुपये प्रति पेज की दर से आप 30 रुपये जमा कर दें. 15 दिन में पैसे भेजें तब जवाब की उम्मीद करें.
जम्मू कश्मीर ने तो और आक्रामक जवाब दिया. उनका कहना है कि सिर्फ जम्मू-कश्मीर के निवासी को ही सूचना के अधिकार के तहत जानकारी दी जा सकती है. आपने पूरे देश से जानकारी मांगी है. लिहाजा हम आपके दायरे में और आप हमारे आरटीआई के दायरे में नहीं आते. लिहाजा जाइये हम आपको कोई जानकारी नहीं दे सकते. आप चाहें तो हमारे इस आदेश के खिलाफ जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में अपील दाखिल कर सकते हैं, लेकिन हमारे जवाब के 30 दिनों के भीतर. 30 दिन के बाद के लिए हमारी कोई गारंटी नहीं है.
राजस्थान हाईकोर्ट ने जोधपुर से जवाब भेजा कि आपके पूछे गए सवालों के जवाब नहीं दिये जा सकते.
कलकत्ता हाईकोर्ट ने जवाब तो दिया, लेकिन कोर्ट और जजों से जुड़ सवालों के जवाब में कहा कि वेबसाइट देख लें. उसमें सब लिखा है. हालांकि, हाईकोर्ट और निचली अदालतों में लंबित और निपटाये गए मुकदमों का डाटा जरूर उपलब्ध कराया.
भेजी गई जानकारी के मुताबिक, कलकत्ता हाईकोर्ट में 2012 में तीन लाख 62 हजार 131 मुकदमे लंबित थे. इनमें से एक लाख 97 हजार 757 मामले 10 साल से भी ज्यादा पुराने थे. 2017 में ये आंकड़ा 2 लाख 22 हजार 648 लंबित का है. जबकि, 10 साल से ज्यादा पुराने मामले अब सिर्फ 38 हजार 678 रह गए हैं.
जिला अदालतों में 2012 में 26 लाख 70 हजार 568 लंबित मामले थे, जिनमें से एक लाख 23 हजार 983 मामले 10 साल से ज्यादा पुराने थे. 2017 में इनकी संख्या क्रमश: 21 लाख 50 हजार 481 रह गई है. जबकि, 10 साल से ज्यादा पुराने मामले भी एक लाख 18 हजार 938 ही रह गए हैं.
साथ ही उन्होंने बताया कि निपटाये गए मामले भी 2012 में जहां एक लाख चार हजार 630 थे. वहीं, 2017 में 17 लाख दो हजार 203 हो गए. हाईकोर्ट में भी 2012 के 78 हजार 428 मामले निपटाए गए तो 2017 में इनकी संख्या 62209 रही.
पूर्वोत्तर के राज्यों में से भी कुछ के जवाब आए. मणिपुर हाईकोर्ट के सूचना विभाग ने भी जवाब देने से ये कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय या फिर जिला अदालतों से सीधे ही पूछें. मेघालय से भी इसी तरह का जवाब मिला.
यानी कुल मिलाकर आरटीआई कानून तो है, लेकिन हर कोई अपनी सुविधा और दुविधा के मुताबिक जवाब देता या छुपाता है. जवाब छुपाने की आड़ भी आरटीआई के तहत मिलती है.