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Doctors Day: दिन की कमाई 100 रुपये भी नहीं, पढ़ें राजस्थान की आशा कार्यकर्ताओं की कैसी है हालत?

गांवों में सर्वे से लेकर कोरोना महामारी का इलाज तक करने वालीं आशा सहयोगिनियों की हालत निराश कर देगी. इन नीली साड़ी वाली आशा सहयोगिनियों को न्यूनतम मज़दूरी तो छोड़िए दिन के 100 रुपए भी नहीं मिलते हैं. कोरोना का एक घर का सर्वे करने पर 1 रुपए मिलते हैं. राजस्थान के 55,000 आशा सहयोगिनियों की यही कहानी है.

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अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन भी करती रहीं है आशा सहयोगिनियां
अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन भी करती रहीं है आशा सहयोगिनियां
स्टोरी हाइलाइट्स
  • 2,970 रुपए महीने मिलते हैं
  • इन्हें दो साल से साड़ी भी नहीं मिली

आज डॉक्टर्स डे (Doctors Day) है. शहरों में डॉक्टर और पंचायतों में नर्स मिल जाती हैं मगर आज भी गांवों में असली डॉक्टर बनकर लोगों की सेवा नीली साड़ी वाली डॉक्टर आशा सहयोगिनी ही कर रही हैं. कोरोना के खिलाफ लड़ाई की सबसे मज़बूत सिपाही आशा सहयोगिनी हीं हैं. कड़ी धूप में, बरसात में, घर-घर घूमकर बीमार ढूंढना और फिर दवा देना, इन्हीं के ज़िम्मे में ही रहता है. मगर आपको जानकार हैरानी होगी कि ये लोग 2,970 रुपए में ये काम कर रही हैं. यानी रोज़ की न्यूनतम मज़दूरी तो छोड़िए 100 रुपए भी नहीं मिलते.

साल में मिलने वाले दो नीली साड़ी भी पिछले दो सालों से नहीं मिली है. एक रुपया मिलता है कोरोना का एक घर का सर्वे का. राजस्थान के 55,000 आशा सहयोगिनियों की यही कहानी है.

कोरोना की दवा देने का काम भी इन्हीं का

राजस्थान के लेसरदा पंचायत में घर-घर घूम रहीं इन आशा सहयोगिनियों के कंधे पर ही राजस्थान के गांवों में कोरोना के गंभीर मरीजों की पहचान और अस्पताल भिजवाने से लेकर सर्दी बुखार के मरीजों तक दवा पहुंचाना है. मेडिकल की पढ़ाई नहीं की है मगर यही महिलाएं उन तक दवा पहुंचा रहीं हैं. गांव के बंद दरवाजों पर दस्तक देना, कोरोना जैसी बीमारी से इनकार करने वालों को समझाना और फिर लक्षणों की जांच कर दवा बताने का काम इन्हीं का है.

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गांवों में गर्भवती महिला की देखभाल से लेकर बच्चे के जन्म और बुजुर्गों तक की देखभाल का जिम्मा स्वास्थ्य विभाग और महिला बाल विकास विभाग के अंदर काम करने वालीं आशा सहयोगिनी का ही होता है. अभी गांवों में वैक्सीनेशन को लेकर कई तरह की भ्रांतियां और अफवाहें हैं, ऐसे में टीका लगाने जा रहीं एएनएम भी इन्हीं के सहारे गांव में टीका लगा पा रही हैं.

दिन की कमाई 100 रुपये भी नहीं

गाँव में इन्हें नीली साड़ी वाली डॉक्टरनी भी कहते हैं. हालांकि ये जरूरी नहीं कि ये हर बार नीली साड़ी में ही मिलें, क्योंकि सरकार की तरफ से साल में मिलने वालीं दो नीली साड़ी इस बार पिछले दो सालों से नहीं मिली है. इनका दर्द इतना भर नहीं है. न्यूनतम मज़दूरी सरकार की तरफ से 300 रुपये घोषित है, मगर इन्हें रोज़ाना 100 रुपये भी नहीं मिलते हैं. 2,970 रुपया महीने में काम करती हैं. 

कोरोना होने के बावजूद 14 दिनों बाद ड्यूटी पर आने वाली निर्मला कहती हैं कि इस बार तो सरकार ने गांव में एक घर में जाने के लिए एक रुपये दिए हैं. वो भी तब जब गर्मी बरसात में एक गांव से दूसरे गांव जाना पड़ता है. रास्ते में कई बार तो राहगीरों से लिफ़्ट लेकर दूसरे गांव पहुंचती हैं.

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इनका कहना है कि आशा सहयोगिनियों को राज्य सरकार का हिस्सा मिलता है जबकि आंगनबाड़ी की तरह केंद्र सरकार भी अपना हिस्सा दे तो कम से कम 6 हजार के आसपास इनकी भी तनख़्वाह हो जाए. अपने काम के घंटे तय करने और तनख़्वाह की मांग करने के लिए कोरोना की पहली लहर के बाद ये जयपुर पहुंचीं थीं, जहां लाठीचार्ज की गई और मुकदमे दर्ज किए गए थे. ये कहती हैं कि आंदोलन तो सब करते हैं मगर हम पर मुकदमे आज भी चल रहे हैं.

 

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