हरियाणा के गांव जिनमें आज भी लिंग अनुपात में एक बड़ा अंतर दिख जाता है, आंकड़ों के इस आइने के पीछे एक कड़वी और दिल दहला देने वाली सच्चाई छिपी है. यहां लंबे समय से लड़कियों के खिलाफ लिंग अनुपात का असंतुलन रहा है, और इसके पीछे है अवैध लिंग निर्धारण और गैरकानूनी तरीके से गर्भपात. हमारे स्टिंग ऑपरेशन की सीरीज'द वैनिशिंग डॉटर्स' की चौथी कड़ी में हम आपके साथ उन औरतों की कहानियां शेयर कर रहे हैं, जिनकी टूटी आवाजें इस अपराध की सबसे बड़ी गवाह हैं. ये कहानियां हैं बेटियों की, मांओं की, और उन परिवारों की, जो इस लड़ाई में सब कुछ खो चुके हैं.
हरियाणा, भारत का वह उत्तरी राज्य जहां लिंग अनुपात (सेक्स रेशियो) दशकों से लड़कियों के फेवर में नहीं रहा है. देश का यह एक राज्य आज भी ऐसी सच्चाई से जूझ रहा है जो सिर्फ आंकड़ों में नहीं, बल्कि टूटे हुए सपनों और खामोश दर्द में दिखाई देती है. अवैध लिंग निर्धारण और गैरकानूनी गर्भपात की प्रथा ने न केवल लाखों अजन्मी बेटियों को छीन लिया, बल्कि उन महिलाओं की जिंदगियों को भी तबाह कर दिया जो इस छिपे हुए अपराध की शिकार बनीं.
हरियाणा के गांवों में, जहां निगरानी की नजरें कमजोर पड़ती हैं, एक पैरलल मेडिकल सिस्टम पांव पसार चुका है. यह व्यवस्था अवैध लिंग निर्धारण और गैरकानूनी गर्भपात की मशीनरी का हिस्सा है, और अजन्मी बेटियों को गर्भ में ही खत्म कर रहा है. छोटे-छोटे निजी क्लीनिक, जहां अल्ट्रासाउंड मशीनें पीसी-पीएनडीटी एक्ट (प्री-कन्सेप्शन एंड प्री-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स एक्ट) का उल्लंघन कर भ्रूण के लिंग का खुलासा करती हैं, इस अपराध की पहली कड़ी हैं. इसके बाद आता है गर्भपात—जो अक्सर बिना लाइसेंस वाले, अप्रशिक्षित या कम योग्यता वाले लोगों द्वारा संचालित गुप्त केंद्रों में किया जाता है.
ये केंद्र एक खास मांग को पूरा करने के लिए बने हैं. बिना सवाल-जवाब या कानूनी दस्तावेजों के बेटियों के भ्रूण को खत्म करना. इस प्रक्रिया में न तो चिकित्सा नैतिकता का पालन होता है, न ही कानून का. ये क्लीनिक उन परिवारों को गोपनीयता का वादा करते हैं जो बेटे की चाह में अंधे हो चुके हैं, और बदले में मोटा मुनाफा कमाते हैं. विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता चेतावनी देते हैं कि जब तक अवैध लिंग निर्धारण और गैरकानूनी गर्भपात केंद्रों पर एक साथ सख्ती नहीं की जाएगी, इस अपराध को रोकने के प्रयास अधूरे ही रहेंगे.
असुरक्षित गर्भपात की भयावह कीमत
हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में 18 साल की गायत्री (बदला हुआ नाम) की कहानी एक ऐसी सच्चाई को उजागर करती है जो आंकड़ों से परे है, लेकिन गैरकानूनी गर्भपात केंद्रों की क्रूरता से गहराई से जुड़ी हुई है. गायत्री का गर्भपात भ्रूण के लिंग निर्धारण से नहीं जुड़ा था, फिर भी उसकी मौत इस बात का सबूत है कि ऐसी अनधिकृत सुविधाएं महिलाओं की जिंदगियों को कितना खतरे में डालती हैं, खासकर उन महिलाओं को जो सामाजिक कलंक और अनचाहे गर्भ की खामोशी से जूझ रही होती हैं.
एक पीड़िता कहती हैं "मेरी बेटी बहुत होशियार थी, पढ़ाई में अव्वल," गायत्री की मां ने आंसुओं को रोकते हुए कहा. "एक दिन हमें बताया गया कि उसकी आंतें बाहर आ गईं, और उसकी मूत्र नली से मल निकलने लगा. हम उसे अस्पताल ले गए, लेकिन उसे बचा नहीं सके."
गायत्री के परिवार के एक करीबी सदस्य ने इंडिया टुडे टीवी को गुमनामी की शर्त पर बताया कि गायत्री को किसी परिचित ने गर्भवती कर दिया था. अविवाहित होने और सामाजिक लांछन के डर से उसने अपनी भाभी को यह बात बताई. दोनों ने मदद के लिए एक गुप्त केंद्र का रुख किया, न कोई अस्पताल, न कोई लाइसेंस प्राप्त क्लीनिक. इसके बाद जो हुआ, वह एक ऐसी त्रासदी थी जो गायत्री के परिवार के जेहन में हमेशा के लिए बस गई.
गर्भपात की प्रक्रिया के दौरान गायत्री की गर्भाशय की दीवार फट गई, लेकिन तुरंत चिकित्सा सहायता लेने के बजाय, वह दर्द में घर पर ही रही डर और शर्म ने उसे चुप रहने पर मजबूर कर दिया. दो दिन बाद, जब उसकी मूत्र नली से मल निकलने लगा, तब उसने अपने माता-पिता को बताया. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. गायत्री कोमा में चली गई और फिर कभी नहीं जागी.
उसकी मां ने रोते हुए हमें बताया, "हमारी बेटी चली गई. समाज का डर और उसका दर्द हमें हमेशा सताएगा." गायत्री की कहानी कोई अपवाद नहीं है. यह एक बड़े, छिपे हुए संकट का हिस्सा है. ये अवैध क्लीनिक न केवल लिंग-चयनित गर्भपात की मांग को पूरा करते हैं, बल्कि उन कमजोर महिलाओं को भी निशाना बनाते हैं जो जटिल व्यक्तिगत परिस्थितियों में फंसी होती हैं. दोनों ही मामलों में जोखिम पूरी तरह महिला को उठाना पड़ता है, उसका स्वास्थ्य, उसका भविष्य, और अक्सर उसकी जान.
एमटीपी एक्ट: एक कमजोर कड़ी
पीसी-पीएनडीटी एक्ट लिंग-चयनित डायग्नोस्टिक्स को रोकने के लिए बनाया गया है, लेकिन यह गर्भपात को नियंत्रित नहीं करता. यह जिम्मेदारी मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट की है. ये दोनों कानून अलग-अलग उद्देश्यों के लिए बने हैं, एक लिंग-आधारित चयन को रोकने के लिए, दूसरा सुरक्षित गर्भपात सुनिश्चित करने के लिए. लेकिन भ्रूण हत्या के संदर्भ में ये दोनों आपस में गहराई से जुड़े हैं.
एमटीपी एक्ट के तहत गर्भपात की केवल विशिष्ट परिस्थितियों में अनुमति है, जैसे मां के स्वास्थ्य को खतरा, गर्भनिरोधक विफलता (विवाहित महिलाओं के लिए), या भ्रूण में असामान्यता. 2021 में इस कानून में संशोधन कर गर्भपात की अवधि को कुछ मामलों में 24 सप्ताह तक बढ़ाया गया और अविवाहित महिलाओं को भी शामिल किया गया, लेकिन लिंग निर्धारण के आधार पर गर्भपात दोनों कानूनों के तहत स्पष्ट रूप से अवैध है.
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर एमटीपी और पीसी-पीएनडीटी एक्ट को और मजबूती से जोड़ा जाए, तो हर गर्भपात, खासकर उन क्षेत्रों में जहां लिंग अनुपात असंतुलित है को रिकॉर्ड, ट्रैक और ऑडिट किया जा सकता है. अल्ट्रासाउंड रिकॉर्ड और एमटीपी फाइलिंग्स का मिलान करके संदिग्ध पैटर्न पकड़े जा सकते हैं. मिसाल के तौर पर, दूसरी तिमाही के अल्ट्रासाउंड के बाद बार-बार गर्भपात अवैध लिंग चयन का संकेत हो सकता है, लेकिन मौजूदा समय में डेटा शेयरिंग और समन्वय की कमी के कारण यह खामियां बनी रहती हैं, जिनका फायदा बेईमान क्लीनिक उठाते हैं.
अगर हर मुश्किल के बाद जीवित रह जाना ही भाग्य है तो पूजा सोनी को 'भाग्यशाली' कहा जा सकता है, दो बेटियों को जन्म देने के बाद जब वह तीसरी बार गर्भवती हुईं, तो उनके ससुराल वालों ने अल्टीमेटम दे दिया. गर्भपात कराओ या तलाक दो. वह कहती हैं कि "मुझे पीटा गया, गालियां दी गईं. मैं और नहीं सह सकती थी," पूजा ने याद करते हुए कहा. "वे बेटा चाहते थे. जब मैंने गर्भपात से इनकार किया, तो उन्होंने मुझसे सब कुछ छीन लिया."
पूजा अपने ससुराल से भागकर अपने मायके हिसार पहुंचीं और पुलिस की मदद मांगी, लेकिन कानून ने उन्हें ज्यादा सुरक्षा नहीं दी. उनके पति, जिन पर मारपीट का आरोप था, जल्दी ही जमानत पर छूट गए और भी बुरा यह कि उन्होंने पूजा की एक बेटी को उनसे छीन लिया. जब हम हिसार में पूजा से मिले, उन्हें तलाक का नोटिस मिल चुका था आरोपों की लंबी सूची में एक कारण यह भी था कि "वह खाना नहीं बनाती थी."
आंसुओं से भरी आंखों के साथ पूजा ने कहा, "मैं चाहती हूं कि उन्हें सख्त सजा मिले." उनकी कहानी उन तमाम औरतों की कहानी है, जहां कानून कागजों पर तो सख्त है, लेकिन हकीकत में कमजोर पड़ जाता है.
'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ': एक अधूरा वादा
2015 में शुरू की गई बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (बीबीबीपी) योजना का मकसद था लिंग अनुपात में सुधार, जागरूकता फैलाना और पीसी-पीएनडीटी एक्ट को और सख्ती से लागू करना. इस योजना का एक लक्ष्य था कि सबसे खराब लिंग अनुपात वाले जिलों में जन्म के समय लिंग अनुपात (सेक्स रेशियो एट बर्थ) को हर साल कम से कम दो अंक सुधारना. लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2019 के बाद से ज्यादातर राज्यों में यह लक्ष्य हासिल नहीं हुआ. हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिले या तो स्थिर हैं या फिर पीछे चले गए हैं.
आलोचकों का कहना है कि बीबीबीपी के शुरुआती साल जागरूकता अभियानों, जैसे नारे और स्कूल रैलियों, तक सीमित रहे. संरचनात्मक सुधारों पर ध्यान कम दिया गया. पीसी-पीएनडीटी और एमटीपी एक्ट का प्रवर्तन ज्यादातर प्रतिक्रियात्मक रहा है. हजारों छापों के बावजूद सजा बहुत कम लोगों को हुई है. सबसे बड़ी कमी यह है कि इस योजना ने गैरकानूनी गर्भपात केंद्रों पर ध्यान नहीं दिया, जो डायग्नोस्टिक सुविधाओं के साथ मिलकर काम करते हैं. इन छायादार नेटवर्क पर नकेल कसे बिना भ्रूण हत्या को रोकना मुश्किल है.
एकीकृत नीति की जरूरत
विशेषज्ञों का मानना है कि भ्रूण हत्या को रोकने के लिए एक एकीकृत नीति की जरूरत है, जो इसे एक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या, कानूनी अपराध और सामाजिक संकट के रूप में देखे. इसके लिए जरूरी कदम हैं:
पीसी-पीएनडीटी और एमटीपी निगरानी निकायों के बीच डेटा शेयरिंग.
बार-बार होने वाले गर्भपात और दूसरी तिमाही में चुनिंदा गर्भपात की निगरानी.
गैर-पंजीकृत क्लीनिकों और अल्ट्रासाउंड सुविधाओं पर लाइसेंसिंग की सख्ती.
दोनों कानूनों का आपसी तालमेल ताकि प्रोसेस में खामियां बंद हो सकें.
जब तक यह तालमेल नहीं होगा, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे प्रयास सिर्फ प्रतीकात्मक रहेंगे, और लाखों अजन्मी बेटियों को खोने का सिलसिला रुकेगा नहीं.
कानून क्यों नाकाम है?
पीसी-पीएनडीटी एक्ट के तहत भ्रूण के लिंग का खुलासा करना दंडनीय अपराध है. पहली बार अपराध करने वालों को तीन साल तक की जेल, और बार-बार अपराध करने वालों को पांच साल तक की सजा हो सकती है. तकनीकी रूप से, ये गैर-जमानती अपराध हैं, लेकिन हकीकत में ज्यादातर अपराधी आसानी से छूट जाते हैं.
इसकी वजह है सुप्रीम कोर्ट का अर्नेश कुमार जजमेंट, जो सात साल से कम सजा वाले अपराधों में रूटीन गिरफ्तारी के खिलाफ सावधानी बरतने की सलाह देता है. हालांकि यह फैसला अच्छे इरादे से लिया गया था, लेकिन इसने अनजाने में एक कानूनी ग्रे क्षेत्र बना दिया, जिसका फायदा अवैध लिंग निर्धारण करने वाले उठा रहे हैं.
कानूनी खामियां और क्राइम साइकिल
हरियाणा और पड़ोसी राज्यों में अवैध लिंग निर्धारण और गैरकानूनी गर्भपात क्लीनिकों की दुनिया में अपराध ही नहीं, बल्कि इसकी निरंतरता भी एक बड़ी समस्या है. बार-बार पकड़े जाने वाले अपराधी बिना किसी डर के काम करते हैं. सूत्रों, डिकॉय मरीजों और कार्यकर्ताओं के इंटरव्यू से एक डरावना पैटर्न सामने आता है: क्लीनिकों और ऑपरेटरों का ऐसा नेटवर्क जो छापों और गिरफ्तारियों के बावजूद सक्रिय रहता है.
एक प्रमुख सूत्र रीमा, जिनकी गवाही ने द वैनिशिंग डॉटर्स के तीसरे भाग में फर्जी लिंग निर्धारण रैकेट को उजागर किया, कहती हैं, "जिन मामलों में मैंने मदद की, उनमें ज्यादातर अपराधी पहले भी पकड़े जा चुके थे. वे कानून को अच्छी तरह जानते हैं और उसका रास्ता निकाल लेते हैं. कई बार तो वे कुछ ही दिनों में छूट जाते हैं."
भ्रूण हत्या से दुल्हन तस्करी तक
भ्रूण हत्या के दूरगामी परिणाम सिर्फ व्यक्तिगत त्रासदियों तक सीमित नहीं हैं, वे पूरे समुदायों को प्रभावित करते हैं. हरियाणा के कई हिस्सों में महिलाओं की कमी ने दुल्हन तस्करी को जन्म दिया है, जहां युवा लड़कियों को खरीदा और बेचा जाता है ताकि स्थानीय पुरुषों की शादी की मांग पूरी हो सके. पानीपत में हम एक ऐसी महिला से मिले, जिसे पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से तस्करी कर लाया गया था. वह तब सिर्फ दस साल की थी.
"मुझे दस साल की उम्र में बेच दिया गया. इसे लेन-देन का नाम दिया गया," उसने बताया. "मैं मुर्शिदाबाद से थी, और मुझे समझ ही नहीं आया कि मुझे शादी के नाम पर बेचा जा रहा है." उसने बताया कि वह अकेली नहीं है. असम, ओडिशा और बंगाल से लाई गई कई महिलाएं जिनमें से कई अभी भी नाबालिग हैं हरियाणा के गांवों में हिंसा और दासता की जिंदगी जी रही हैं.
इमरजेंसी जैसी स्थिति
हरियाणा में कुंवारे पुरुषों के एक समूह का नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता वीरेंद्र सांगवान कहते हैं, "इन डॉक्टरों ने हमारी दुल्हनों को मार डाला. यही वजह है कि हम में से कई आज भी कुंवारे हैं." महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली मोहिनी कहती हैं, "हरियाणा में पितृसत्तात्मक और रूढ़िगत सोच गहरी जड़ें जमाए हुए है. आज भी कई लोग मानते हैं कि सिर्फ बेटा ही परिवार का नाम आगे ले जाता है."
2025 में भी हम अपनी बेटियों को खो रहे हैं. पिछले एक दशक में हरियाणा में पीसी-पीएनडीटी एक्ट के तहत 1250 से ज्यादा छापों पर 6 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं. फिर भी सजा के मामले गिनती के हैं. कानूनी खामियां, राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी इस चुपके से चल रहे नरसंहार को जारी रखने दे रही है. इसका नतीजा? एक ऐसी पीढ़ी जो अपने हक से वंचित है, तबाह हुए परिवार, और एक समाज जो अपनी ही गलतियों से जूझ रहा है.
यह सिर्फ अजन्मी बेटियों के खिलाफ अपराध नहीं है. यह हर उस औरत के खिलाफ अपराध है जो इस चक्र में मजबूरन शामिल हो रही है. यह भारत के भविष्य के खिलाफ अपराध है.
गायत्री और पूजा की कहानियां कोई अपवाद नहीं हैं. ये उस व्यवस्था का नतीजा हैं जो बेटियों को कमतर आंकती है. केवल एक समग्र सामाजिक दृष्टिकोण और मजबूत कानूनी नीति ही इस स्थिति को बदल सकती है.