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कैदी को समय से पहले रिहाई देने से इनकार करना मौलिक अधिकारों का हनन: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसले में कहा कि लंबी अवधि से जेल में बंद कैदियों को समय से पहले रिहाई की सुविधा देने से इनकार करना समानता और जीने के मौलिक अधिकारों का हनन है. इसी को आधार बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 26 साल से जेल में बंद उम्रकैद की सजा पाए सजायाफ्ता को रिहा करने का आदेश दिया.

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सुप्रीम कोर्ट
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दोषियों की समय से पहले रिहाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसले में कहा कि लंबी अवधि से जेल में बंद कैदियों को समय से पहले रिहाई की सुविधा देने से इनकार करना समानता और जीने के मौलिक अधिकारों का हनन है. इसी को आधार बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 26 साल से जेल में बंद उम्रकैद की सजा पाए सजायाफ्ता को रिहा करने का आदेश दिया. ये फैसला केरल में एक महिला की हत्या और डकैती के लिए दोषी ठहराए गए जोसफ  नामक कैदी की याचिका पर दिया है. जोसफ 1998 से केरल की जेल में बंद था. 

अदालत ने उन कैदियों के पुनर्वास और सुधार पर विचार करने की आवश्यकता पर जोर दिया जो सलाखों के पीछे रहने के दौरान काफी हद तक बदल गए हों. गुरुवार को फैसला सुनाते हुए जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और दीपांकर दत्ता की पीठ ने कहा कि लंबे समय से जेलों में बंद कैदियों को समय से पहले रिहाई की राहत से वंचित करना न केवल उनकी आत्मा को कुचलता है बल्कि उनमें निराशा भी पैदा करता है.

कोर्ट ने कहा कि यह समाज के कठोर और क्षमा न करने के हठ को भी दर्शाता है. जबकि समय पूर्व रिहाई की अर्जी ठुकराने से अच्छे आचरण के लिए कैदी को पुरस्कृत करने के विचार को भी पूरी तरह से नकार दिया गया है. जस्टिस भट्ट ने कहा कि यह मामला दया याचिका और लंबे समय से जेल में बंद कैदियों के इलाज के पुनर्मूल्यांकन से संबंधित है. सजा की नैतिकता के बावजूद, कोई इसकी तर्कसंगतता पर सवाल उठा सकता है.

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ऐसे व्यक्ति की सजा जारी रखने से क्या हासिल होगा? 

जब वो अपनी भूल और गलती की गलती पहचानता है. साथ ही खुद में सुधार कर अब उस अपराधिक छवि से अपनी पहचान भी नहीं रखता है. उस व्यक्ति से बहुत कम समानता रखता है जो वह वर्षों पहले था. 

कोर्ट ने कहा कि इतनी लंबी सजा पर जोर देने से ऐसी स्थिति पैदा हो जाएगी जहां दोषी जेल की दीवारों के भीतर ही मर जाएंगे. उन अपराधों के लिए कभी आजादी नहीं देख पाएंगे जो उन्होंने सालों पहले किए थे. दोषी 1994 में एक महिला के बलात्कार और हत्या का आरोप लगाया गया था. ट्रायल कोर्ट ने 1996 में उसे बरी कर दिया. हालांकि 1998 में हाईकोर्ट ने बरी करने के फैसले को पलट दिया और उसे हत्या और डकैती के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराते हुए  आजीवन कारावास की सजा सुनाई. सुप्रीम कोर्ट ने भी 2000 में दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखा. 

सलाहकार बोर्ड की सिफारिशों के बावजूद, याचिकाकर्ता की रिहाई की मांग को सरकार ने इनकार कर दिया. 2022 में, एक सरकारी आदेश ने समय से पहले रिहाई को और प्रतिबंधित कर दिया, जिसमें कहा गया कि महिलाओं और बच्चों से जुड़ी हत्या या बलात्कार के साथ हत्या के दोषी लोग ऐसी राहत के हकदार नहीं होंगे. 

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दोषी के वकील ने अपनी याचिका में दलील दी थी कि उनके मामले पर छूट की नीति के आधार पर विचार किया जाना चाहिए जो 1998 में उसकी सजा के समय मौजूद थी. याचिकाकर्ता ने भेदभाव का आधार भी उठाया कि  समान अपराध करने वाले व्यक्तियों को रिहा कर दिया गया था. फैसले में कैदियों की रिहाई के मूल्यांकन में अच्छे व्यवहार और पुनर्वास जैसे कारकों पर विचार करने की जरूरत पर जोर दिया गया है.  

कोर्ट ने कहा कि दोषी के कारावास की लंबी अवधि को देखते हुए फिर से रियायत देने वाले सलाहकार बोर्ड से संपर्क करने के लिए कहना निर्दय काम होगा. कोर्ट ने उसकी तत्काल रिहाई का आदेश देते हुए कहा कि कानून के शासन की भव्य दृष्टि और निष्पक्षता का विचार प्रक्रिया की वेदी पर बह गया है जिसे इस अदालत ने बार-बार न्याय की दासी माना है.

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