राष्ट्रपति संदर्भ मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की शक्तियों पर गंभीर सवाल उठाए. कोर्ट ने कहा कि यदि राज्यपाल को बिल रोकने की स्वतंत्र शक्ति मान ली जाती है तो यह स्थिति बेहद समस्या जनक होगी, क्योंकि ऐसे में मनी बिलों तक को रोका जा सकता है, जिन्हें सामान्यतः मंजूरी देना अनिवार्य होता है.
चीफ जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की विशेष पीठ ने इस मुद्दे पर सुनवाई की. अदालत ने अनुच्छेद 200 की उस व्याख्या पर आपत्ति जताई, जिसमें कहा गया कि राज्यपाल विधानसभा को बिल लौटाए बिना भी उसे रोक सकते हैं.
केंद्र और राज्यों की दलीलें
केंद्र ने, राजस्थान और मध्य प्रदेश की सरकारों के साथ मिलकर, यह तर्क दिया कि अनुच्छेद 200 (1) में रोकने की शक्ति, 'बिल वापस भेजने' के विकल्प से अलग और स्वतंत्र है. इसका अर्थ है कि राज्यपाल किसी भी बिल पर वीटो लगा सकते हैं. केंद्र का कहना है कि यदि राज्यपाल बिल रोकते हैं तो वह स्वतः निरस्त हो जाता है.
वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने महाराष्ट्र की ओर से दलील देते हुए कहा कि अदालत यह समीक्षा नहीं कर सकती कि राज्यपाल ने बिल क्यों रोका. यदि संविधान ने ऐसी शक्ति दी है और उसकी कोई स्पष्ट सीमा नहीं है, तो न्यायपालिका के पास उसकी समीक्षा का कोई “न्यायिक मानक” उपलब्ध नहीं है.
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कोर्ट की आपत्तियां
जस्टिस नरसिम्हा ने कहा कि अनुच्छेद 200 के प्रोविज़ो में साफ लिखा है कि मनी बिल को छोड़कर, राज्यपाल किसी भी बिल को विधानसभा को पुनर्विचार हेतु लौटा सकते हैं. लेकिन यदि 'रोक' को स्वतंत्र शक्ति मान लिया जाए तो मनी बिल भी सीधे रोके जा सकते हैं. यह स्थिति लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित कर सकती है.
सीजेआई गवई ने साल्वे से पूछा कि क्या अदालत यह सवाल उठा सकती है कि राज्यपाल ने बिल क्यों रोका? इस पर साल्वे का जवाब था – “नहीं.”
राज्यों का पक्ष
वरिष्ठ अधिवक्ता नीरज किशन कौल (मध्य प्रदेश) और मनींदर सिंह (राजस्थान) ने भी केंद्र के समर्थन में दलीलें दीं और कहा कि तमिलनाडु और पंजाब के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की पहले की व्याख्या सही नहीं थी, जिसमें कहा गया था कि बिल रोकने की स्थिति में राज्यपाल को उसे विधानसभा को लौटाना ही होगा.