क्या वाकई नेहरू और माउंटबेटन ने 1947 में रैडक्लिफ बाउंड्री कमीशन के फैसले को प्रभावित करके गुरदासपुर को भारत में शामिल करवाया? पाकिस्तान और कुछ इतिहासकारों का आरोप है कि इस फैसले के पीछे साफ-साफ एक रणनीतिक मकसद था. कश्मीर तक जाने वाला अहम सड़क मार्ग बचाना.
गुरदासपुर का मामला क्यों अहम था
ब्रिटिश इंडिया के विभाजन के समय गुरदासपुर का फैसला सबसे चर्चित और विवादित मुद्दों में से एक था. इस फैसले से भारत को जम्मू-कश्मीर तक सीधा सड़क संपर्क मिल गया. गुरदासपुर के पठानकोट तहसील से होकर दिल्ली-श्रीनगर रोड गुजरती थी, और यही रास्ता बाद में कश्मीर में भारतीय सेना भेजने में काम आया.
इतिहासकार स्टैनली वोल्पर्ट और अलास्टेयर लैम्ब ने अपनी किताबों में इस पूरे मामले का विस्तार से जिक्र किया है. वोल्पर्ट ने Shameful Flight: The Last Years of the British Empire in India (2006) और लैम्ब ने Kashmir: A Disputed Legacy, 1846–1990 (1991) और Birth of a Tragedy: Kashmir 1947 (1994) में इस पर काफी लिखा है.
विभाजन की शुरुआती योजना
18 जुलाई 1947 को Indian Independence Act लागू हुआ. तय हुआ कि मुस्लिम-बहुल इलाक़े पाकिस्तान जाएंगे और गैर-मुस्लिम बहुल इलाक़े भारत में. पंजाब की सीमा तय करने के लिए ब्रिटिश बैरिस्टर सर सिरिल रैडक्लिफ को पांच हफ्ते का वक्त मिला, जबकि उन्हें भारत का कोई अनुभव नहीं था.
शुरुआत में बनाई गई 'नोशनल' लाइन के हिसाब से पूरा गुरदासपुर पाकिस्तान को मिलना था. 1941 की जनगणना के मुताबिक यहां 51.14% आबादी मुस्लिम थी. गुरदासपुर की चार तहसीलें थीं- शकरगढ़ (मुस्लिम बहुल), गुरदासपुर (मुस्लिम बहुल), बटाला (मुस्लिम बहुल) और पठानकोट (गैर-मुस्लिम बहुल, ज्यादातर हिंदू). इस शुरुआती प्लान में गुरदासपुर पाकिस्तान को जाता, जिससे अमृतसर से जम्मू का मुख्य रोड पाकिस्तान के हाथ में आ जाता.
नेहरू और माउंटबेटन की चिंता
वोल्पर्ट के मुताबिक रैडक्लिफ के पहले नक्शों में गुरदासपुर पाकिस्तान को दिया गया था, लेकिन नेहरू और माउंटबेटन को डर था कि अगर ऐसा हुआ तो कश्मीर पूरी तरह अलग-थलग पड़ जाएगा. उस वक्त महाराजा हरि सिंह ने अभी तय नहीं किया था कि वो भारत में शामिल होंगे या पाकिस्तान में. पठानकोट का रास्ता न होने पर भारत को कांगड़ा के पहाड़ी रास्तों या हवाई मार्ग पर निर्भर रहना पड़ता जो 1947 में बेहद मुश्किल था.
17 अगस्त 1947 का अंतिम फैसला
जब 17 अगस्त को रैडक्लिफ अवॉर्ड आया तो तस्वीर बदल चुकी थी. पूरा जिला पाकिस्तान को देने के बजाय तीन तहसीलें पठानकोट, गुरदासपुर और बटाला भारत को दे दी गईं, जबकि सिर्फ शकरगढ़ पाकिस्तान को गया. इससे भारत को सीधा कश्मीर का रोड मिल गया. रैडक्लिफ ने इसका कारण अमृतसर की नहरों और रेलवे लाइन की सुरक्षा बताया, लेकिन यह फैसला धार्मिक बहुलता के सिद्धांत के खिलाफ था, क्योंकि गुरदासपुर और बटाला में मुस्लिम बहुमत था.
कश्मीर का विलय और गुरदासपुर की अहमियत
स्वतंत्रता के समय कश्मीर के महाराजा हरि सिंह तटस्थ रहना चाहते थे. पाकिस्तान से उन्होंने 'स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट' साइन किया, लेकिन भारत से नहीं. जब अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान समर्थित कबायली हमलावर बारामूला पहुंचे (ऑपरेशन गुलमर्ग), तो भारत ने फौरन हवाई जहाज से सैनिक श्रीनगर भेजे. महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन' साइन कर दिया. इसके बाद ज़मीन के रास्ते सेना और सामान गुरदासपुर होते हुए ही पहुंचा. लैम्ब का मानना है कि अगर यह रास्ता भारत के पास न होता तो कश्मीर को बचाना लगभग असंभव था.
नेहरू-माउंटबेटन पर आरोप
लैम्ब और वोल्पर्ट दोनों का कहना है कि यह बदलाव नेहरू और माउंटबेटन के दबाव का नतीजा था. नेहरू खुद कश्मीरी पंडित थे और कश्मीर को भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान व रणनीतिक सुरक्षा के लिए जरूरी मानते थे. माउंटबेटन और नेहरू के निजी रिश्तों को लेकर भी पाकिस्तान के नेताओं ने आरोप लगाए.
वोल्पर्ट लिखते हैं कि नेहरू ने 9 अगस्त के आसपास माउंटबेटन को एक पत्र भेजा जिसमें नहरों के महत्व पर जोर दिया गया था शायद रैडक्लिफ को प्रभावित करने के लिए. पाकिस्तान का आरोप है कि माउंटबेटन ने रैडक्लिफ पर भारत के पक्ष में दबाव डाला और अवॉर्ड का ऐलान स्वतंत्रता के बाद तक टाल दिया ताकि महाराजा हरि सिंह पर भारत में शामिल होने का दबाव बढ़े.
आज तक जारी बहस
पाकिस्तान गुरदासपुर के फैसले को कश्मीर विवाद की जड़ मानता है. उनका कहना है कि अगर गुरदासपुर पाकिस्तान में होता तो कश्मीर की मुस्लिम बहुलता और आर्थिक संबंधों के चलते उसका झुकाव पाकिस्तान की तरफ होता. ब्रिटिश इतिहासकार कहते हैं कि यह फैसला नहरों और रेलवे के लिए लिया गया, न कि सिर्फ कश्मीर के रास्ते के लिए. भारत ने हमेशा कहा कि उन्हें इस फैसले की पहले से कोई जानकारी नहीं थी. रैडक्लिफ और माउंटबेटन ने भी किसी हस्तक्षेप से इनकार किया.