साल 1957. एक रोज की बात है. पंडित नेहरू घूमते-घूमते आर्मी चीफ जनरल थिमैया के दफ्तर आ पहुंचे. जनरल कोडेंडेरा सुबैय्या थिमैया 1957 से 1961 तक भारत के आर्मी चीफ रहे. जब देश के प्रधानमंत्री आर्मी चीफ के ऑफिस पहुंचे तो ये बड़ी बात थी. जनरल थिमैया नेहरू को अपना ऑफिस दिखाने लगे.
जनरल थिमैया नए-नए आजाद हुए भारत के दिलेर सेनानायक थे. उनके सैन्य नेतृत्व में खरापन, अनुशासन और समर्पण था जो भारत जैसे मुल्क को चाहिए था, जो कि अभी अभी स्वतंत्र हुआ, मगर उसके दुश्मन उस पर बुरी नजर रखे हुए थे. 1947-48 में जनरल थिमैया ने कश्मीर युद्ध और हैदराबाद अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. नेहरू उनकी सराहना करते थे. नेहरू ने ही उन्हें 1957 में सेना प्रमुख बनाया था. लेकिन उसी वर्ष जनरल थिमैया का रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन के साथ विवाद हो गया. बात इतनी बिगड़ गई कि थिमैया ने इस्तीफा तक देने की पेशकश कर दी.
ऐसे ही हालात में नेहरू-थिमैया की ये मुलाकात हुई. नेहरू को थिमैया के ऑफिस में उनके डेस्क के पीछे स्टील का एक मजबूत कैबिनेट यानी कि अलमीरा दिखाई दिया.
नेहरू की उत्सुकता बढ़ी. उन्होंने थिमैया से पूछा- जनरल साहब इस अलमीरा में क्या-क्या रखे हैं?
नेहरू और जनरल थिमैया के बीच मुलाकात की ये कहानी अंग्रेजी वेबसाइट द स्क्रॉल में छपी है.
प्रधानमंत्री नेहरू को जनरल थिमैया समझाने लगे कि उनके इस कैबिनेट में क्या-क्या है?
जनरल थिमैया ने अपने अलमीरा में नेहरू को तीन ड्राअर दिखाया और कहा कि इनमें महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं. उन्होंने पंडित जी को पहला ड्राअर दिखाते हुए कहा- सबसे ऊपर की दराज में देश की रक्षा के प्लान से जुड़े दस्तावेज हैं.
दूसरी दराज में देश के टॉप जनरलों के खुफिया फाइल रखे हुए हैं.
समाजवादी नेहरू को सेना के इन सीक्रेट फाइलों में रुचि आ रही थी.
उन्होंने तीसरे दराज की ओर इशारा किया और जनरल थिमैया से पूछा- इस ड्राअर में क्या रखा है?
नेहरू की जिज्ञासा को शांत करते हुए जनरल ने सपाट जवाब दिया- ओह... तीसरे दराज में आपकी सरकार के खिलाफ सैन्य तख्तापलट की मेरी गुप्त योजनाएं हैं.
नेहरू हंसे... लेकिन उनकी हंसी में घबराहट और सकपकाहट का भाव था.
ये वो समय था जब तक पाकिस्तान, थाईलैंड और बर्मा में वहां की सेना का कब्जा हो चुका था.
यूरोप के औपनिवेशिक चंगुल से बाहर निकलने वाली एशिया और अफ्रीका के देशों में तख्ता पलट हो जाना, चुनी हुई सरकारों को सेना, राजशाही द्वारा हटा सेना सामान्य बात रही है. 1950 और 1960 के दशक में भारत में कई बार ऐसे हालात बने जब यहां भी सैन्य तख्तापलट असंभव नहीं लग रहा था.
1967 के आम चुनावों को कवर करते हुए द टाइम्स के संवाददाता नेविल मैक्सवेल ने भविष्यवाणी की थी कि ये देश के आखिरी चुनाव हो सकते हैं. और वह अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो मानते थे कि देर-सवेर भारत सैन्य शासन के अधीन हो जाएगा. ये कई राय थी, आवाजें थी.
लेकिन नेहरू ने देश में लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी रोपी यह स्थिति कभी नहीं आई.
वहीं आस-पास नजर दौड़ाएं तो नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान जैसे देश हैं जहां कभी सेना ने तख्तापलट कर दिया तो कभी आंदोलन के बहाने चुनी हुई सरकारों को चलता कर दिया गया.
लेकिन भारत में ऐसी स्थिति नहीं आई.
1947 में जब नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्हें अनुभव हो गया था कि दूसरे देशों में सेना की महात्वाकांक्षाएं क्या है. नेहरू ने पीएम बनते ही सबसे पहले भारत के कमांडर-इन-चीफ के आवास को प्रधानमंत्री का आवास बना लिया. ये नई दिल्ली में स्थिति वही बिल्डिंग है जिसे तीन मूर्ति भवन के नाम से जाना जाता है. इस बिल्डिंग को प्रधानमंत्री आवास बनाकर नेहरू ने ये तय कर दिया नए भारत में नागरिक सत्ता सबसे ऊपर रहेगी, न कि अंग्रेजों की तरह सैन्य सत्ता.
ब्रिटिश शासकों ने भारत को एक शक्तिशाली सैन्य शक्ति के साथ एक गैरिसन राज्य के रूप में चलाया. यहां कमांडर-इन-चीफ वायसराय के अधीन रक्षा मंत्री के रूप में काम करता था.
स्वतंत्र भारत में भारतीय सेना की पेशेवर क्षमता को कम किए बिना इसे ठीक किया जाना था. नेहरू ने यही काम किया और सिविलियन अथॉरिटी को भारत में सर्वोच्च बना दिया.
इसके अलावा नेहरू ने 1947 में ही कमांडर-इन-चीफ के पद को ही समाप्त कर दिया. ये ब्रिटिश कॉन्सेप्ट था. देश में अभी कमांडर-इन-चीफ राष्ट्रपति होते हैं. जो कि नागरिक शासन और संसदीय लोकतंत्र की सर्वोच्चता को दिखाते हैं.
जनरल थिमैया को लेकर नेहरू के बीच का टशन
प्रधानमंत्री नेहरू का मानना था कि नए भारत को सेना की भूमिका पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है और उन्होंने एक ऐसी नीति शुरू की जो सेना को नागरिक प्राधिकार के अधीन कर दे. इस बीच नेहरू चीन के साथ अच्छे संबंधों की पैरवी कर रहे थे.
थिमैया ने 1959-60 में चीन सीमा की स्थिति और चीनी खतरे के बारे में लगातार सरकार को आगाह किया. सेना की तैयारियां और संसाधनों पर उनका खास जोर था. पर नेहरू 1954 में चीन के साथ पंचशील समझौता कर चुके थे. उन्हें चीन पर भरोसा था.
इधर नेहरू के रक्षा मंत्री वी.के. कृष्ण मेनन के सैन्य मामलों में बार-बार दखल दे रहे थे. जनरल थिमैया को ये बात अखरती थी. थिमैया की राय थी कि सेना को रणनीतिक मामलों में अपेक्षित स्वायत्तता मिलनी चाहिए जबकि नेहरू सैन्य तंत्र पर नागरिक-राजनीतिक नियंत्रण को सर्वोच्च मानते थे.
ऐसे ही टकराव के बीच जनरल थिमैया ने आर्मी चीफ के पद से 1959 में इस्तीफा दे दिया. ये मामला प्रमोशन से जुड़ा हुआ था. उन्होंने अपना इस्तीफा नेहरू को सौंपा, लेकिन नेहरू ने इसे स्वीकार नहीं किया.
1 सिंतबर 1959 को ये मामला संसद में भी गूंजा था. नेहरू ने इस मुद्दे पर संसद में भी बयान दिया था. नेहरू ने सदन को बताया कि थिमैया के इस्तीफे से जुड़े मुद्दे "काफी मामूली और महत्वहीन" थे. ये "स्वभावगत मतभेदों से उत्पन्न हुए थे और इनमें प्रमोशन का मुद्दा नहीं था.
हालांकि नेहरू ने जनरल के त्यागपत्र को संसद के पटल पर रखने से इनकार कर दिया. तब से यह पत्र सार्वजनिक नहीं किया गया.
नेहरू के भाषण का मुख्य जोर "नागरिक सत्ता की सर्वोच्चता" पर था. प्रधानमंत्री के भाषण का टोन मेनन के पक्ष में और जनरल थिमैया की आलोचना करने वाला था. नेहरू ने आगे कहा कि वह "जनरल के कार्य करने के तरीके के लिए उन्हें बधाई नहीं दे सकते."
हालांकि इस एपिसोड के बाद जनरल थिमैया ने इस्तीफा वापस ले लिया था.