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Making of Mahatma Gandhi: गांधी... दो ट्रेन यात्राएं और तीन किताबें... बाकी सफर का साक्षी इतिहास है!

1904 की एक रात गांधी फिर दक्षिण अफ्रीका की एक ट्रेन में यात्रा कर रहे थे. मोहनदास डरबन जाने के लिए जोहान्सबर्ग स्टेशन से रेलगाड़ी में चढ़े. एक अंग्रेज दोस्त ने जॉन रस्किन की लिखी पुस्तक 'अन टू दिस लास्ट' उन्हें दी, ताकि उसे पढ़कर वे अपनी रेल यात्रा के वक्त को बिता सकें.

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महात्मा गांधी (फाइल फोटो)
महात्मा गांधी (फाइल फोटो)

लंदन से बैरिस्टरी पास करके लौटे मोहनदास करमचंद गांधी कई महीनों तक मुंबई की अदालतों में वकालत जमाने और केस पाने की कोशिश करते रहे. 25 साल की उम्र हो गई थी और आखिरकार परिवार ने कामकाज के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका भेजने का फैसला किया. मई 1893 में मोहनदास ने डरबन में पदार्पण किया. लन्दनिया बैरिस्टर की फैशनेबल पोशाक में अपनी हड्डियां छिपाए उस आदमी के ब्रीफकेस में वे सिफारिशी चिट्ठियां ठुंसी हुई थीं जो दूर के उस धनवान रिश्तेदार के नाम लिखी हुई थीं जिससे रोजगार की उम्मीद थी. और ये भी कि ये नौजवान आपकी कानूनी उलझनों को सुलझाकर रहेगा.

डॉमिनिक लेपियरे और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब फ्रीडम ऐट मिडनाइट में लिखते हैं- ''तब डरबन के बंदरगाह पर किसी को ये आभास नहीं था भविष्य का कितना बड़ा महात्मा सामने से गुजर रहा है. दक्षिण अफ्रीका की जमीन पर पैर रखने के एक सप्ताह के भीतर मोहनदास करमचंद गांधी को उस जमीन का सही परिचय मिल गया जो शुरुआती कर्मभूमि बनने वाली थी.

रात की गाड़ी से मोहन डरबन से प्रिटोरिया जा रहे थे. ये वो रात थी और वो ट्रेन यात्रा थी जिसने गांधी के जीवन को कहां से कहां लाकर रख दिया. प्रिटोरिया का आधा रास्ता ही पार हुआ होगा कि एक गोरा आदमी उस प्रथम श्रेणी के रेल डिब्बे में घुसा और मोहनदास से बोला कि जाओ तुम वहां बैठो जहां सामान वगैरह रखा जाता है. मोहनदास ने मना किया. आखिर प्रथम श्रेणी का टिकट उनके पास भी था.

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रेल जब अगले स्टेशन पर रुकी तो उस गोरे ने मोहनदास को टिकट और सामान समेत डिब्बे से बाहर फिकवा दिया. इस शुभ कार्य को सहर्ष संपन्न करने के लिए बकायदा पुलिस भी आई. शेष आधी रात मोहनदास ने खुले स्टेशन पर बुरी तरह ठिठुरते हुए बिताई. उनका सामान स्टेशन मास्टर ने लगेज रूम में बंद कर दिया था. वह अपने शर्मिलेपन से इतना भी नहीं उबर पाए कि स्टेशन मास्टर से कह सकें कि- मुझे गर्म कोट तो निकालने दीजिए.

मेरिट्जाबर्ग नामक उस अंधियारे स्टेशन पर जब सुबह की रोशनी फूटी को मोहनदास करमचंद गांधी का अंधियारा जीवन भी रोशनी से जगमग हो चुका था. गांधी को पता चल चुका था कि जिंदगी उन्हें बड़े मकसद की ओर ले जा रही है. केवल एक सप्ताह बाद, प्रिटोरिया के भारतीयों के सामने मोहनदास गांधी ने अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया- अपने अधिकारों और सम्मान की रक्षा के लिए एक हो जाओ...एक हो जाओ.

फिर आंदोलनों का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अगले पांच दशकों तक चलता रहा. कुछ ही दिनों में दक्षिण अफ्रीका के रेल विभाग को गांधी की अगुवाई में चल रहे भारतीयों के आंदोलनों के आगे झुकना पड़ा और ये आदेश पारित करना पड़ा कि अगर किसी भारतीय ने साफ कपड़े पहने हुए हैं, तो वह टिकट खरीदकर दूसरी या पहली श्रेणी के डिब्बों में भी यात्रा करने का कानूनी अधिकार रखता है.

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जिस रिश्तेदार के कानूनी मामलों के लिए गांधी दक्षिण अफ्रीका गए थे वे काम तो हो चुके थे लेकिन गांधी अब दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों और अश्वेत लोगों के अधिकारों के प्रणेता के रूप में उभरने लगे. अश्वेत लोगों को गोरों के भेदभाव से बचाने के लिए गांधी ने लगातार कानूनी और आंदोलनों के जरिए लड़ाइयां लड़ीं. पिछले 10 साल में वे वकील के रूप में पर्याप्त रूप से सफल हो चुके थे. वकील के रूप में वे इतना सफल हो चुके थे कि पांच हजार पौण्ड प्रतिवर्ष कमा रहे थे. गांधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास के ये 10 साल भारत की आजादी के आने वाले आंदोलन की भूमिका तैयार करने वाले या एक तरह से कहें तो गांधी को गढ़ने वाले साबित हुए. लेकिन अभी तो लंबा वक्त गांधी को अफ्रीका में ही बिताना था.

1904 की एक रात गांधी फिर दक्षिण अफ्रीका की एक ट्रेन में यात्रा कर रहे थे. मोहनदास डरबन जाने के लिए जोहान्सबर्ग स्टेशन से रेलगाड़ी में चढ़े. एक अंग्रेज दोस्त ने जॉन रस्किन की लिखी पुस्तक 'अन टू दिस लास्ट' उन्हें दी, ताकि उसे पढ़कर वे अपनी रेल यात्रा के वक्त को बिता सकें. भविष्य में, इसी पुस्तक में से नई जीवन दिशा पकड़ कर मोहनदास अपनी मातृभूमि से अंग्रेजों की जड़ें काट देने वाले थे.

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रेलगाड़ी सारी रात दक्षिण अफ्रीका की भूमि पर दौड़ती रही और मोहनदास सारी रात रस्किन की उस पुस्तक को पढ़ते रहे. सुबह होते-होते मोहनदास करमचंद गांधी ने जीवन का एक क्लासिक निर्णय ले लिया था. रस्किन के आदर्शों के अनुसार, मोहनदास भी, अपनी तमाम भौतिक चीजों का त्याग कर देंगे.

'भौतिक सम्पति मनुष्य के दु:खों का मूल है...' रस्किन का स्वर पुस्तक के पन्ने-पन्ने पर मुखर था- 'भौतिक सम्पति वास्तव में एक हथियार है. जिसे अपने साथी मनुष्यों को दबाने के लिए उपयोग किया जाता है. दबाव से संघर्ष और संघर्ष से दुखों का उद्भव होता है.'' पिछले दो वर्ष में भगवद् गीता से गांधी ने एक बात समझ ली थी कि आत्मा के जागरण की पहली शर्त है भौतिक वस्तुओं और इच्छाओं से पूर्ण छुटकारा.

गांधी ने इस दिशा में कई प्रयोग व्यक्तिगत स्तर पर शुरू किए. जैसे बाल खुद काटना, कपड़े खुद धोना, शौचालय भी खुद साफ करना. रस्किन के लिखे उन पृष्ठों ने गांधी के मन के रहे-सहे संशय को भी दूर कर दिया. हफ्ते भर बाद डरबन से चौदह मील दूर, फीनिक्स के नजदीक गांधी ने अपना आश्रम बसा लिया. यहीं से गांधी ने 'रामराज्य' की अपनी परिकल्पना पर काम शुरू किया. अहिंसा, असहयोग, आत्मनिर्भरता, समानता, स्वयंनियंत्रण को गांधी ने अपना मूल्य बना लिया जो भारत की आजादी के आंदोलन में भी गांधी के सबसे बड़े हथियार बने रहे.

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1906 में दक्षिण अफ्रीका की सरकार हर भारतीय के रजिस्ट्रेशन का कानून लेकर आई. जिसके खिलाफ क्रूध भारतीयों के आंदोलन को गांधी ने फिर नेतृत्व दिया. आंदोलन का तरीका क्या हो? गांधी जी ने सत्याग्रह का मार्ग खोजा. बहिष्कार, शांतिपूर्ण धरना और सत्याग्रह शुरू हो गया. गोरी सरकार ने दमन की शुरुआत की. गिरफ्तारियां शुरू हो गईं. गांधी भी जेल गए. जेल यात्राओं के लंबे सिलसिले की ये शुरुआत भर थी.

जेल में गांधी जी को अपने नवनिर्मित सिद्धान्तों पर गहराई से विचार करने का अवसर मिला. उन्होंने हेनरी थोरो के दीर्घ निबंध 'ऑन सिविल डिसओबिडिएंस' का अध्ययन किया. थोरो, मेक्सिको में अमेरिका की सरकार के विरुद्ध जमा हुआ था. क्योंकि वह सरकार गुलामी की प्रथा को गुप्त समर्थन दिए जा रही थी. थोरो ने स्पष्ट प्रतिपादित किया था कि अगर सरकार का रुख असहनीय हो चला हो तो उसके द्वारा पारित किसी भी अवैध कानून की पूर्ण उपेक्षा करने का अधिकार हर नागरिक के पास सुरक्षित है.

थोरो के निबन्ध में अपने विचारों का प्रतिबम्ब पा कर गांधी जी का उत्साह बढ़ गया. जेल से छूटने के साथ ही उन्होंने अपने सिद्धांतों को नई-नई जगह परखना शुरू कर दिया. गांधी जी ने एक अनोखे अस्त्र को पहचान लिया था. एक तरफ दमन के लिए दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार की ओर से गिरफ्तारियां, मारपीट, सजाएं, पक्षपात, लूट, गोलियों की बौछारें... दूसरी ओर गांधी का अहिंसक आंदोलन. पहली बार दुनिया ने देखा शांति का अस्त्र भारी पड़ा. दक्षिण अफ्रीका में करीब दो दशक बिताकर जब 1914 में गांधी भारत की ओर लौटे तो नए सांचे में ढलकर लौट रहे थे.

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लियो टॉल्सटॉय का निबन्ध 'ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे ही भीतर है' को गांधी ने रस्किन की किताब के साथ ही पढ़ा था. उन्हें टॉल्सटॉय की ये बात बेहद पसंद आई कि जो उपदेश हम दूसरों को देते हैं, उन्हें सबसे पहले स्वयं अपने पर लागू करें. शिक्षा, भोजन, अहिंसा, औद्योगिकरण आदि पर गांधी जी और टॉल्सटॉय के विचारों में अद्भुत साम्य था. उन दोनों के बीच संक्षिप्त पत्र-व्यवहार भी हुआ था. इनकी प्रेरणा से गांधी ने दो हथियार प्राप्त कर लिए थे- अहिंसा और नागरिक असहयोग. दो ऐसे हथियार जिनसे वे विश्व के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य को भी झुका देने वाले थे. 

9 जनवरी 1915 को गांधी को लेकर जहाज बम्बई स्थित गेटवे ऑफ इंडिया के नीचे से गुजरा तो एक विशाल जनसमूह उनका स्वागत करने के लिए मौजूद था. इस जनसमूह को भारत लौटे गांधी से देश के लिए कुछ उम्मीदें थीं. ये गांधी दो दशक पहले यहीं से रवाना हुए शर्मीले-संकोची गांधी से काफी अलग थे. ये गांधी आत्मसम्मान बचाने की जंग लड़कर लौटे थे और अब उन्हें करोड़ों भारतीयों को गुलामी की जंजीर से मुक्ति दिलानी थी. आगे के तीन दशकों में क्या कुछ हुआ इसका साक्षी भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष का इतिहास खुद है. 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ तो गांधी महात्मा और राष्ट्रपिता का दर्जा हासिल कर चुके थे लेकिन सत्ता और किसी पद से खुद को दूर रखा.

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