बिहार सरकार की ओर से हाल ही में जारी किए गए जातिगत जनगणना के आंकड़ों से देश में कास्ट पॉलिटिक्स को लेकर बहस तेज हो गई है. जातिगत राजनीति का शिगुफा कोई नया नहीं है. ब्रिटिश युग से लेकर मंडल बनाम कमंडल की राजनीति तक जाति इस देश के सामाजिक-राजनीतिक नैरेटिव के केंद्र में रही है.
जब-जब देश में जातियों और जाति के आधार पर जनगणना की बात होती है तो दो नाम सबसे पहले सामने आते हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और संविधान जनक भीमराव आंबेडकर. देश की राजनीति के सूरमाओं में गिने जाने वालों इन दोनों ही शख्सियतों के जाति व्यवस्था को लेकर विचार विरोधाभासी थे.
एक तरफ जहां महात्मा गांधी छुआछूत के घोर आलोचक थे लेकिन उन्होंने जाति व्यवस्था की निंदा नहीं की. उनका छुआछूत के उन्मूलन के जरिए जाति व्यवस्था में सुधार का विश्वास था. वह हर पेशे को समान दर्जा देने के हिमायती थे.
दूसरी तरफ बीआर आंबेडकर का कहना था कि जाति व्यवस्था अव्यवस्थित है और इससे हिंदू समाज हतोत्साहित होता है. आंबेडकर वेदों और ग्रंथों की भी आलोचना करते थे. उनका मानना था कि धार्मिक हिंदू ग्रंथों से जाति व्यवस्था और छुआछूत को बढ़ावा मिला है. उन्होंने सबसे पहले भारतीय समाज में जातिगत असमानता की बात की और जाति उन्मूलन पर काम किया.
जाति व्यवस्था को लेकर महात्मा गांधी और आंबेडकर के विचारों में मतभेद 1932 में पूना समझौते पर हस्ताक्षर के बाद उभरकर सामने आए. गांधी के निरंतर उपवास ने अंबेडकर को झुकने और पीड़ित वर्गों विशेष रूप से दलित वर्गों के लिए अलग चुनावी प्रक्रिया की अपनी इच्छा को छोड़ने के लिए मजबूर किया. अपने मतभेदों के बावजूद दोनों ने हाशिए पर मौजूद लोगों की भलाई के लिए काम करने की समझ विकसित की.
दलितों के लिए अलग चुनाव प्रक्रिया पर गांधी का विरोध
भारतीय इतिहास में 1930 का दशक सबसे उथल-पुथल भरा दौर था. ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी का संघर्ष अपने चरम पर था. महात्मा गांधी की अगुवाई में इंडियन नेशनल कांग्रेस सबसे बड़ी ताकत थी. आजादी की लड़ाई के साथ-साथ एक अन्य प्रमुख मुद्दा दलितों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व और उनकी भलाई की मांग थी.
इस दौरान सामाजिक सुधारक बीआर आंबेडकर दलितों की सबसे मुखर आवाज बनकर उभरे. उनका मानना था कि दलितों के लिए अलग से चुनावी प्रक्रिया राजनीति में उनके प्रतिनिधित्व के लिए जरूरी है. साथ ही दलितों के हितों को साधने के लिए भी जरूरी है. दूसरी तरफ गांधी दलितों के लिए अलग से चुनावी प्रक्रिया के मुखर विरोधी थे. उनका मानना था कि इससे अन्य भारतीयों में भेदभाव की भावना पैदा होगी.
1930 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में विभिन्न धार्मिक और सामाजिक समूहों के प्रतिनिधित्व के मुद्दे के समाधान के लिए गोलमेज कॉन्फ्रेंस की शुरुआत की थी. दूसरे गोलमोज कॉन्फ्रेंस को लेकर विचार-विमर्श के बाद ब्रिटिश सराकर ने 15 अगस्त 1932 को मुस्लिमों, सिखों और दलितों के लिए अलग से चुनावी प्रक्रिया को औपचारिक रूप दिया.
इस प्रस्तावित प्रक्रिया के तहत कुछ विशेष समुदायों के सदस्य ही वोट डालने और विधानसभाओं के प्रतिनिधि चुने जाएंगे. दलितों के लिए अलग चुनाव प्रक्रिया का आंबडेकर ने समर्थन किया था लेकिन गांधी ने इसका पुरजोर विरोध किया था. उनका मानना था कि ब्रिटिश भारतीय समाज में जहर घोलने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे हिंदुत्व के नष्ट होने का खतरा है.
ब्रिटेन के उस समय के प्रधानमंत्री रैमसे मैक्डॉनल्ड को गांधी ने नौ सितंबर को पत्र लिखते हुए कहा था कि मुझे दलित वर्गों के जरूरत से अधिक प्रतिनिधित्व के खिलाफ भी नहीं होना चाहिए.
गांधी का आमरण अनशन
आंबेडकर दरअसल गांधी के अनशन से नाराज थे. वह गांधी के लिए एक जायज मांग से पीछे हटने को तैयार नहीं थे, वह भी तब जब गोलमेज कॉन्फ्रेंस में कोई वैकल्पिक प्रस्ताव नहीं था.
हालांकि, आंबेडकर पर जल्द ही दबाव बढ़ने लगा. समाचार पत्र गांधी की लगातार बिगड़ रही तबियत पर दैनिक बुलेटिन कर रहे थे और कांग्रेसी गांधी की मांगों को मांगने के लिए आंबेडकर के पास जुटे थे.
पूना समझौते के बाद गांधी पर आंबेडकर का नजरिया
पूना समझौते के बाद गांधी को लेकर आंबेडकर की मिली-जुली प्रतिक्रिया थी. आंबेडकर ने कहा कि पूना समझौते के वजह से दलितों को थोड़ा बहुत राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला. आंबेडकर ने यह स्वीकार किया कि गांधी जी के अनशन की वजह से व्यापक दबाव बना था जिस वजह से इस तरह की सहमति बन पाई. हालांकि, आंबेडकर ने दलितों के लिए अलग से चुनावी प्रक्रिया को लेकर गांधी जी के रुख की आलोचना भी की थी.