बॉम्बे हाई कोर्ट ने 2012 के पुणे सीरियल बम ब्लास्ट केस में आरोपी फारूक शौकत बागवान को 12 साल से अधिक समय तक प्री-ट्रायल डिटेंशन में रहने के बाद जमानत दे दी है. जमानत देते हुए, कोर्ट ने बागवान पर सख्त शर्तें लगाईं, जिनमें 1 लाख रुपये का बांड, एटीएस को हर महीने रिपोर्टिंग, और देश के अंदर या बाहर यात्रा पर प्रतिबंध शामिल हैं. 39 वर्षीय बागवान को दिसंबर 2012 में गिरफ्तार किया गया था और उस पर आईपीसी, एक्सप्लोसिव एक्ट, आर्म्स एक्ट, यूएपीए, और मकोका के तहत आरोप लगाए गए थे.
पुणे शहर में 1 अगस्त, 2012 को शाम 19:25 बजे से रात 23:30 बजे के बीच कम तीव्रता वाले 5 विस्फोट हुए थे. इन विस्फोटों में एक व्यक्ति घायल हुआ था. पांच बम विस्फोटों के अलावा, जंगली महाराज रोड पर एक दुकान के सामने खड़ी साइकिल की टोकरी में एक जिंदा बम मिला था. बम निरोधक दस्ते ने इसे निष्क्रिय कर दिया था और डेक्कन पुलिस स्टेशन, पुणे में एफआईआर दर्ज की गई थी.
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इंडियन मुजाहिदीन पर बम ब्लास्ट का आरोप
बाद में मामले की आगे की जांच के लिए इसे एटीएस पुलिस स्टेशन, मुंबई को स्थानांतरित कर दिया गया. जांच के दौरान यह सामने आया कि अपराध का मकसद बड़े पैमाने जनहानि करना था. जांचकर्ताओं ने आरोप लगाया कि विस्फोट इंडियन मुजाहिदीन के ऑपरेटिव कतील सिद्दीकी की हत्या का बदला लेने के लिए रचे गए थे, जिनकी उस वर्ष की शुरुआत में यरवदा जेल में हत्या कर दी गई थी.
अभियोजन पक्ष के अनुसार, फारूक शौकत बागवान ने कथित तौर पर अपने कंप्यूटर पर जाली दस्तावेज तैयार किए थे, जिनका उपयोग सह-आरोपी मुनीब इकबाल मेमन ने सिम कार्ड प्राप्त करने के लिए किया था. बागवान की दुकान को कथित तौर पर विस्फोट की योजना बनाने के लिए बैठक स्थल के रूप में भी इस्तेमाल किया गया था. बागवान की ओर से पेश वकील मुबिन सोलकर ने तर्क दिया कि सह-आरोपी को पिछले साल हाई कोर्ट द्वारा जमानत दी गई थी.
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आरोपी बागवान 12.5 साल से हिरासत में था
समानता के आधार के अलावा, सोलकर ने बताया कि 12.5 साल से अधिक समय में, अभियोजन पक्ष ने कुल 170 गवाहों में से केवल 27 गवाहों से पूछताछ की है. महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश अतिरिक्त लोक अभियोजक विनोद चटे ने बागवान की जमानत याचिका का विरोध किया, आरोपियों के कन्फेशनल स्टेटमेंट का हवाला दिया और तर्क दिया कि बागवान बम विस्फोट की साजिश में शामिल था.
जस्टिस एएस गडकरी और राजेश एस. पाटिल की पीठ ने फारूक शौकत बागवान को जमानत देते हुए अपने फैसले में कहा, 'आरोपी पर लगाए गए आरोप सह-आरोपी मुनीब मेमन के समान हैं. समानता का सिद्धांत स्पष्ट रूप से लागू होता है, और इसलिए याचिकाकर्ता जमानत का हकदार है. निकट भविष्य में मुकदमे के समाप्त होने की संभावना दूरस्थ लगती है. यह अब अच्छी तरह से स्थापित है कि त्वरित सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है.'