
जीवन में कभी-कभी ऐसे पल आते हैं जब इंसान को लगता है जैसे उसकी पूरी दुनिया बिखर गई. इन पलों मे कम ही होता है कि कोई अपने दुख को किसी बड़े उद्देश्य में बदल पाए. लेकिन जो ऐसा कर पाते हैं वो किसी मिसाल से कम नहीं होते.दिल्ली की रहने वाली अन्नपूर्णा और उनके पति राम सुरेश मिश्रा ऐसी ही मिसाल बने हैं. गर्भ में साढ़े पांच माह के जुड़वा बच्चे जीवित न रहने के बाद दोनों लगभग टूट गए थे. लेकिन फिर सूझबूझ से अपने भ्रूणों को मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज को मेडिकल छात्रों और रिसर्च के लिए दान कर दिया.
राम सुरेश आईटी कंपनी में काम करते हैं और पत्नी अन्नपूर्णा होम मेकर हैं. इनके घर पांच माह पहले खुशी की खबर आई थी. वो दूसरी बार माता-पिता बन रहे थे. घर में एक साथ दो बच्चों के आने की तैयारियां हो रही थीं.सबकुछ एकदम ठीकठाक चल रहा था. राम सुरेश बताते हैं कि प्रेगनेंसी के पांच महीने पूरे होने के बाद हमें अचानक अल्ट्रासाउंड में पता चला कि बच्चे की प्लेसेंटा में इंटर्नल प्रॉब्लम आ गई थी. इस तरह गर्भ में पहले हफ्ते में एक बच्चे की धड़कन नहीं मिली और अगले हफ्ते में दूसरा बच्चे की स्थिति गंभीर होती गई. इस तरह डेढ़ हफ्ते मे ही हमने दोनों को ही खो दिया. ये हमारे लिए सबसे कमजोर पल था जब आने वाली खुशियां दुख में बदल गई थी.
माता-पिता ने कैसे लिया ये टफ डिसिजन
वो आगे बताते हैं कि इसी बीच जब डॉक्टर से मेरी बात हुई तो उन्होंने मुझे जुड़वां फीटस को डोनेट करने का सुझाव दिया. उन्होंने समझाया कि स्टडी के लिए अगर इसे दान किया जाए तो मेडिकल छात्रों के लिए रिसर्च के जरिये ये भी समझना आसान हो जाता है कि ऐसा क्यों हुआ. हमने यही सोचा कि जो हमारे साथ हुआ वो आगे किसी के साथ न हो. अगर हमारे बच्चों के केस को भी रिसर्च में इस्तेमाल किया जा सकता है कि आखिर गर्भ में जुड़वां क्यों सरवाइव नहीं कर पाए.पत्नी से चर्चा की तो वो भी तैयार हो गईं.
राम कहते हैं कि परिवार के लिए यह कदम आसान नहीं था. हमारे बच्चे हेल्दी थे, सब कुछ ठीक था. लेकिन अचानक इतनी बुरी खबर ने हमें हिला दिया था. जैसे तैसे खुद को संभाला. हम पंडित हैं, धर्म को मानते हैं, हमारे यहां शवों को सबसे ज्यादा सम्मानित तरीके से विदा किया जाता है लेकिन विज्ञान भी उतना ही जरूरी है. जब डॉक्टर ने हमें रेफरेंस दिया तो हमें ये बात समझ आई. इस तरह हमने मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज को भ्रूण दान करने का निर्णय लिया. मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में इस जुड़वां भ्रूण दान की प्रक्रिया को आगम श्री फाउंडेशन और दधीचि देह दान समिति (DDDS) ने पूरा कराया. टीम ने डॉ. पूनम वर्मा और जीपी तायल के सहयोग से दान की प्रोसेस पूरी की.

कैसे होता है ये दान
एनाटॉमी विभाग के डॉक्टर ने बताया कि मेडिकल कॉलेज और रिसर्च इंस्टीट्यूट के एनाटॉमी विभागों में पढ़ाई और शोध के लिए दान किए गए भ्रूण (फीटस) का इस्तेमाल किया जाता है. इन्हें प्राप्त करने की प्रक्रिया वही होती है जैसी वयस्क इंसानों के पूरे शरीर को दान करने में होती है यानी पहले तो जरूरी दस्तावेज पूरे किए जाते हैं.
फीटस दान का क्या होगा फायदा
डॉक्टर बताते हैं कि भ्रूण की बाहरी और अंदरूनी जांच से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि सामान्य रूप से गर्भावस्था के दौरान शिशु का विकास कैसे होता है. इसके लिए बड़े स्तर पर देखने (ग्रॉस एनालिसिस) के साथ-साथ माइक्रोस्कोप से ऊतक (टिश्यू) की जांच और अलग-अलग तरह की स्टेनिंग तकनीक का उपयोग किया जाता है.
इससे हमें कई जेनेटिक बीमारियों और रोगों की शुरुआत को समझने में भी मदद मिलती है जिन्हें जानवरों पर किए गए प्रयोगों से पूरी तरह नहीं समझा जा सकता. इस वजह से भ्रूण पर किए गए अध्ययन इंसानी शरीर के विकास को गहराई से समझने का एक महत्वपूर्ण अवसर देते हैं. इसीलिए ज़रूरी है कि लोग और समाज इस बात को समझें कि भ्रूण को सिर्फ पारंपरिक और धार्मिक तरीकों से नष्ट करने के बजाय वैज्ञानिक शोध के लिए इस्तेमाल किया जाए ताकि मानवता के हित में बड़ा योगदान दिया जा सके.