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जंग से लौटे सैनिकों से लेकर आपदा में फंसे लोगों तक, क्यों सुरक्षित निकल आए लोगों को परेशान करता है सर्वाइवर्स गिल्ट?

अहमदाबाद में गुरुवार को एअर इंडिया का बोइंग 787 ड्रीमलाइनर क्रैश हो गया. इस भयावह हादसे में सिर्फ एक यात्री सुरक्षित रहा, जिसे कथित तौर पर मामूली चोटें आई हैं. शारीरिक चोटों के अलावा अक्सर मानसिक ट्रॉमा भी होता है, जो जिंदा बचे लोगों को परेशान कर सकता है. मनोविज्ञान की मानें तो सर्वाइवर्स गिल्ट कई बार इतना भारी होता है कि इससे उबरने में लंबा वक्त लग सकता है.

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हादसे में बचे लोग अक्सर मॉरल इंजुरी से जूझते हैं. (Photo AP)
हादसे में बचे लोग अक्सर मॉरल इंजुरी से जूझते हैं. (Photo AP)

अहमदाबाद से लंदन जा रहा एयर इंडिया का विमान टेक-ऑफ के कुछ सेकंड्स बाद ही दुर्घटनाग्रस्त हो गया. हादसे में क्रू समेत सभी यात्रियों की मौत हो गई, सिवाय भारतीय मूल के एक ब्रिटिश नागरिक के. रमेश विश्वास कुमार नाम के इस शख्स का वीडियो वायरल है, जिसमें वे दुर्घटनास्थल से खुद बाहर आते दिखते हैं. इस बीच सर्वाइवर्स गिल्ट की भी चर्चा हो रही है.

हादसे में बचे लोग अक्सर मॉरल इंजुरी से जूझने लगते हैं. ऐसा जंग से लौटे सैनिकों के साथ भी होता है और आम लोगों के साथ भी. इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिसमें टाइटैनिक की चर्चा सबसे पहले होती है. 

साल 1912 में अटलांटिक में एक न डूबने वाला जहाज निकला- टाइटैनिक. यूके से न्यूयॉर्क के सफर पर निकला जहाज अचानक दुर्घटनाग्रस्त हो गया और ज्यादातर लोग बर्फीले पानी में डूबकर खत्म हो गए. 

इस बीच शिप के मालिकों में से एक जोसफ ब्रूस इस्मे लाइफबोट में कूद गया और अपनी जान बचा ली. लाइफबोट्स कम थे और मदद की गुहार लगाते लोग काफी ज्यादा. इस्मे चुपचाप वहां से अमेरिका चले आए, लेकिन पहुंचते ही वहां की मीडिया ने उन्हें टाइटैनिक के कायर की उपाधि दे दी. ब्रिटेन में भी उनकी यही इमेज बनी. हादसे के बाद जिंदा बचा ये शख्स आखिरकार आइसोलेशन में चला गया. स्कॉटलैंड के एक वीरान से किलेनुमा बंगले में वे आखिर तक अकेले रहे. इस दौरान उन्होंने अपनी सारी दौलत दान कर दी.

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आखिरी समय में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था- मैं रोज यही सोचता हूं कि काश मैं भी वहीं रह गया होता!

titanic shipwreck photo Unsplash

टाइटैनिक के तमाम सर्वाइवर्स इसी हाल में रहे. उन्होंने किसी को मारा नहीं, धोखा नहीं दिया, बस खुद को बचाया लेकिन लौटने के बाद भी वे वहीं अटके रहे. यही मॉरल इंजुरी या सर्वाइवल गिल्ट है. इसमें शारीरिक चोट भले हो न हो, लेकिन मन पर बच जाने की शर्मिंदगी का घाव कुछ इतना गहरा होता है, जो भरता ही नहीं. वक्त के साथ कई बार ये टीस बढ़ती चली जाती है. 

जंग से लौटे सैनिकों में ये सबसे ज्यादा दिखता है. इसपर सबसे पहली बार बात दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद होने लगी, हालांकि तब भी इसे गिल्ट नहीं कहा गया था. लौटे हुए सैनिकों को लिए परिवार या दोस्त बस इतना कहते कि वो लौट तो आया है लेकिन पहले जैसा नहीं रहा. कई सैनिक डिप्रेशन में चले गए. नशा और आत्महत्याएं तेजी से बढ़ीं लेकिन रिसर्च तब भी नहीं हुई. 

पहली बार साठ के दशक में मनोवैज्ञानिकों ने इसपर ध्यान दिया. डॉ विलियम नाइडरलैंड ने होलोकास्ट से बचे यहूदियों पर काम करते हुए एक टर्म दी- सर्वाइवर्स सिंड्रोम. इन लोगों को लगता था कि उन्हें जिंदगी किसी और की मौत की कीमत पर मिली है. वियतनाम युद्ध के बाद लौटे अमेरिकी सैनिकों में भी वही लक्षण थे. वे अलग-थलग रहने लगे. रिश्ते तोड़ दिए. हिंसक होने लगे. और खुद को भी नुकसान पहुंचाने लगे. वियतनाम वेटरन्स अगेंस्ट द वॉर- शीर्षक से एक रिपोर्ट छपी, जिसमें लिखा था- हम बचे हैं, लेकिन हर दिन दिमाग में वही सवाल चलता है, हम क्यों बच गए?

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इसी रिपोर्ट के आधार पर मनोवैज्ञानिकों ने सर्वाइवर्स गिल्ट पर काम शुरू किया. बचे हुए सैनिकों ने माना कि उन्हें शहीद हो चुके साथियों से जलन होती है, और खुद पर शर्म आती है. 

air india flight crash photo PTI

जंग के बाहर भी ये गिल्ट दिखने लगा. अक्सर हवाई हादसों में बचे लोगों, अग्निकांड में बच निकलने वाले लोगों, यहां तक कि कुदरती आपदाओं में लाशों के ढेर के बीच जिंदा निकल आने वाले लोगों में भी ये गिल्ट नजर आया. यहां कई काश वक्त के साथ बढ़ते चले जाते हैं
- काश मेरी भी मौत हो गई होती?

- क्या मैं किसी की मदद कर सकता था?

- मैं क्यों बचा? 

त्रासदी में बचे लोगों के मन में ये बात लगातार चलती रहती हैं. ये गिल्ट धीरे-धीरे डिप्रेशन, अकेलापन, यहां तक कि आत्महत्या की प्रवृत्ति में बदल सकता है अगर इलाज न मिले. कॉग्निटिव बिहेवियरल थैरेपी या ग्रुप थैरेपी ऐसे मामलों में काफी मदद करती है. कई बार ऐसे लोग खुद को किसी कॉज से जोड़ लेते हैं, जैसे रोड हादसे में बचे लोग सेफ्टी कैंपेन का चेहरा बन जाएं. ये भी गिल्ट से उबारता है. 

प्रोग्रामिंग के जरिए गिल्ट मिटाने के प्रयास

आएदिन त्रासदी झेलने वाले सैनिकों को गिल्ट से दूर रखने के लिए वैसे खौफनाक प्रयोग भी हो रहे हैं. जैसे चीन और अमेरिका जैसे देश कथित तौर पर सैनिकों की भावनाओं पर कंट्रोल के लिए ब्रेन टेक्नोलॉजी पर काम कर रहे हैं. कई ऐसी रिपोर्ट्स हैं, जो कहती हैं कि पेंटागन एक खास प्रोग्राम के जरिए पोस्ट ट्रॉमा और डिप्रेशन जैसी मानसिक बीमारियों को ब्रेन में इलेक्ट्रोड फिट करके काबू करने की कोशिश में है. ऐसे ही एक प्रोग्राम का नाम है- टारगेटेड न्यूरोप्लाटिसिटी ट्रेनिंग. इसमें सैनिकों के ब्रेन को ऐसा ट्रेन किया जाएगा कि वो गिल्ट या पछतावे को ज्यादा लंबे समय तक महसूस न करें. 

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क्या ये सर्वाइवर्स गिल्ट को खत्म करने की कोशिश है

इनडायरेक्टली हां. जब सैनिकों के दिमाग को प्री-प्रोग्राम किया जाएगा कि वह भावनात्मक रूप से डगमगाए नहीं तो ये सर्वाइवर्स गिल्ट को रोकने की कोशिश ही है. न्यूरोसाइंटिस्ट्स एक तबका इसे लेकर डरा हुआ है कि अगर ये तरीके सैनिकों से होते हुए आम लोगों तक पहुंच जाएं, नतीजा खतरनाक हो सकता है. 

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