आज आपको आजादी की लड़ाई के उस नायक के बारे में बताते हैं जिसने आज ही के दिन बिना अपनी जान की परवाह किए इतना साहसिक कदम उठा दिया. बीबीसी में छपी रिपोर्ट के हवाले से यह प्रकरण कुछ इस तरह है कि साल 1872 में लॉर्ड मेयो ने तय किया कि वो बर्मा और अंडमान द्वीपों की यात्रा पर जाएंगे. अंडमान में उस समय खतरनाक कैदियों को रखा जाता था और इससे पहले किसी वायसराय या गवर्नर जनरल ने अंडमान का दौरा नहीं किया था.
पहली बार 1789 में लेफ्टिनेंट ब्लेयर के मन में अंडमान में बस्ती बसाने का विचार आया था लेकिन 1796 में अंग्रेजों ने मलेरिया फैल जाने और स्थानीय जनजातियों के विरोध की वजह से इन द्वीपों को छोड़ दिया था. बता दें कि लॉर्ड मेयो की गिनती भारत के घुमक्कड़ वायसरायों में होती है.
बता दें कि साल 1858 में अंग्रेज अंडमान में कालापानी की सजा के तौर पर वो अपने कानून के लिहाज से खतरनाक कैदियों को भेजने लगे थे. इसके बाद जनवरी 1858 में 200 कैदियों का पहला जत्था यहां पहुंचा था. लॉर्ड मेयो अंडमान कालापानी गए तो वहां 8,000 लोग थे जिसमें 7,000 कैदी, 900 महिलाएं और 200 पुलिसकर्मी थे.
मेयो की अंडमान यात्रा 8 फरवरी, 1872 को शुरू हुई. सुबह नौ बजे उनके जहाज ग्लास्गो ने पोर्टब्लेयर की जेटी पर लंगर डाला. उतरते ही उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गई. उसी दिन उन्होंने रॉस आइलैंड पर यूरोपीय बैरकों और कैदियो के कैंप का मुआयना किया. उन्होंने अपने दल के साथ चाथम द्वीप का दौरा किया. फिर वो माउंट हैरिएट का नजारा लेने गए.
सर विलियम विल्सन हंटर जो इस यात्रा में मेयो के साथ थे, मेयो की जीवनी 'लाइफ ऑफ अर्ल ऑफ मेयो' में लिखते हैं कि माउंट हैरियेट करीब 1,116 फीट की ऊंचाई पर था. उसकी चढ़ाई सीधी और बहुत सख्त थी. कड़ी धूप में चढ़ते हुए उनके दल के अधिकतर सदस्य थक कर चूर हो चुके थे. लेकिन मेयो इतने तरोताजा थे कि उन्होंने एक साथ चल रही घोड़ी पर चढ़ने से ये कहते हुए मना कर दिया कि इसका इस्तेमाल कोई और कर ले.
वो आगे लिखते हैं कि जब मेयो का दल वापस जाने के लिए नीचे उतरा अंधेरा घिर आया था. होपटाउन जेटी पर एक नौका वायसराय को उनके जहाज तक ले जाने के लिए इंतजार कर रही थी. मशाल लिए हुए कुछ लोग मेयो के आगे चल रहे थे. मेयो के दाहिने तरफ उनके निजी सचिव मेजर ओवेन बर्न और बाएं तरफ अंडमान के चीफ कमिश्नर डोनाल्ड स्टीवर्ट थे. मेयो नौका पर चढ़ने ही वाले थे कि स्टीवर्ट गार्ड्स को निर्देश देने आगे बढ़ गए. तभी झाड़ियों में छिपे एक लंबे पठान ने मेयो की पीठ पर छुरे से वार कर दिया. दो सेकेंड के अंदर ही हत्यारे को पकड़ लिया गया.
इस देशभक्त का नाम था शेर अली अफरीदी, शेर अली उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश में तीरा घाटी के रहने वाले थे और वो पंजाब की घुड़सवार पुलिस में नौकरी करते थे. पेशावर में अपने चचेरे भाई हैदर की हत्या के आरोप में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई थी. अपील करने पर इस सजा को अंडमान में उम्र कैद के तौर पर बदल दिया गया था. बाद में फांसी से पहले दिए गए वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि उनकी नजर में अपने खानदानी दुश्मन को मौत के घाट उतारना अपराध नहीं था और 1869 में उन्हें सजा सुनाए जाने के बाद से ही उन्होंने प्रण किया था कि वो इसका बदला किसी ऊंचे ओहदे वाले अंग्रेज को मार कर लेंगे.
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