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एक शाम, दो संत, और अध्यात्म के सुर... कबीर और तुकाराम के भजनों से हुआ साकार-निराकार का संगम

दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में आयोजित 'तुका म्हणे काये कबिरा' सांस्कृतिक संध्या में प्रसिद्ध कर्नाटक वोकलिस्ट रंजनी-गायत्री और गायक भुवनेश कोमकली ने संत तुकाराम और कबीर की भक्ति परंपराओं को संगीत के माध्यम से जीवंत किया.

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गायक भुवनेश कोमकली और गायिका रंजनी-गायत्री ने दी भक्ति पदों की प्रस्तुति
गायक भुवनेश कोमकली और गायिका रंजनी-गायत्री ने दी भक्ति पदों की प्रस्तुति

हिंदी साहित्य की धारा में जब भक्ति काव्य की बात होती है तो इसके दो अभिन्न अंग सगुण और निर्गुण धारा की बात होती है. कुछ कवियों ने ईश्वरीय सत्ता को साकार भाव में देखा और उसका ऐसा दिव्य मानवीकरण किया कि मनुष्य उसी परमसत्ता की मूर्ति में खो गया और जब निर्गुण ब्रह्न के उपासकों ने निराकार ब्रह्म को भाव दिए तो वह खुद भी निराकार होकर उसी में विलीन हो गए. 

अंतिम सत्य विलीन हो जाना ही है. फिर भक्त चाहें मीरा बाई हों, सूरदास, नंददास या तुकाराम हों जो अपने गिरधर, कान्हा, गोपाल और विट्ठल की मूर्तियों में समा गए और या फिर कबीर, रहीम, दादू दयाल या मलूकदास हों जिन्होंने ईश्वरीय सत्ता को सारी सृष्टि में महसूस किया और भी उसी सृष्टि में कहीं एक हो गए.

यही है सगुण और निर्गुण... इन दोनों काव्यधारा के भक्त कवियों ने साहित्य और संगीत को ऐसा समृद्ध किया है कि आज भी जब मन किसी भागदौड़ में उलझा होता है और जीवन की आपाधापी के बीच शांति खोज रहा होता है तो दूर कहीं से आ रही ऐसी ही सुरीली तानें जो ईश्वरीय सत्ता से संपर्क करा देती हैं, वह ऐसा सुकून दे जाती हैं, जिनका वर्णन करना, उन्हें शब्दों में पिरो पाना मुश्किल सा लगता है. 

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एक शाम का भक्तिभरा अहसास
यह बस एक अहसास है जिसे केवल जिया जा सकता है और राजधानी दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में इसी दिव्य भाव को महसूस करने का मौका मिला पंचम निषाद क्रिएटिव्स की ओर से आयोजित विशेष सांस्कृतिक संध्या वाले कार्यक्रम 'तुका म्हणे काये कबिरा' में. जब सूर्य पश्चिम दिशा में कहीं गुम होने को था, नवंबर की सर्द हवा अपनी चिर-परिचित सरसराहट के साथ बह रही थी, पंछी और पंथी दोनों अपने घोसलों (घरों) को लौट रहे थे, तब इसी सभागार से आ रहे 'अध्यात्म के सुर' जीवन दर्शन के गीतों को पिरो रहे थे.

इस संगीत कार्यक्रम में, प्रसिद्ध कर्नाटक वोकलिस्ट जोड़ी रंजनी-गायत्री और गायक भुवनेश कोमकली की आवाजों के माध्यम से दो महान भक्ति परंपराओं का ऐसा अनोखा संगम दिखा कि श्रोता सगुण और निर्गुण भावों के बीच डूबते-इतराते दिखे. जहां रंजनी-गायत्री की जोड़ी ने संत तुकाराम की आत्मिक अभंगवाणी प्रस्तुत की तो वहीं भुवनेश कोमकली ने कबीरवाणी के चिंतनशील रचनाओं को सुरों में सजाया.  साथ मिलकर ये कलाकार दो संतों के बीच संगीतमय बातचीत को बुन रहे थे, जो सदियों से और भाषाओं से अलग होने के बावजूद अपनी आध्यात्मिक एकता से एक जैसे ही थे.

रंजनी-गायत्री कहती हैं कि 'जब हम तुकाराम के अभंग गाते हैं, तो यह मात्र प्रदर्शन नहीं है यह समर्पण, उत्थान और दैवीय अनुभव है.' सुनने वाला इन्हें सुनता है, अपने अनुसार गुनता है और फिर वह यह महसूस करने लगता है कि यह संत तुकाराम की नहीं यह उसकी अपनी ही वाणी है. यह उसके ही भीतर की आवाज है, जो मंच से आ रही है. हर आत्मा अपने विट्ठल से कहना चाहती है कि मैं हमेशा अपनी आंखों के सामने आपकी मूर्ति को देखूं...

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सदा माझे डोळे जडो तुझे मूर्ती ।
रखुमाईच्या पती सोयरिया ॥1॥
गोड तुझें रूप गोड तुझें नाम ।
देईं मज प्रेम सर्व काळ ॥ध्रु.॥
विठो माउलिये हाचि वर देईं ।
संचरोनि राहीं हृदयामाजी ॥2॥
तुका म्हणे कांहीं न मागे आणीक ।
तुझे पायीं सुख सर्व आहे ॥3॥


मराठी में रचे गए इस अभंग को देखिए कितने खूबसूरत हैं इसके भाव, जहां संत तुकाराम कहते हैं, मेरी आंखें सदा आपकी मूर्ति पर बनी रहें. हे अर्जुन के सारथि, मुझ पर ये कृपा बनाए रखना. तुम्हारा रूप गुण, नाम सब कितना सुंदर कितना मीठा है, तो इसी तरह मुझे अनंत काल तक प्रेम भी दो जो इससे भी अधिक मीठा है. मुझे अपने हृदय में बसाओ स्वामी और मेरी मां की तरह दयावान प्रभु, तुम्हारे ही चरणों में सारा सुख है तो मैं और कहीं क्यों जाऊं. 

कबीर के पदों में भक्ति काव्य की धारा
एक भक्त कितनी आसानी से प्रभु से अपनी बात कह रहा है और उनकी ही मूर्ति में अपने जीवन की कल्पना कर रहा है. यह एक ताजगी भरा अनुभव है जो इसे अनुभव कर पाता है, जीवन की सरलता को समझ पाता है. अब ये तो ईश्वरीय सत्ता का मूर्तिमान स्वरूप हो गया, लेकिन देखिए निर्गुण में यही भाव कैसे अलग होते हुए भी एक ही हो जाते हैं. 

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भुवनेश कोमकली के लिए, कबीर के पदों को प्रस्तुत करने का अवसर हर बार एक साहसिक और जिम्मेदारी भरा कदम बन जाता है. वे कहते हैं कि "कबीर की कविता सत्य को निडर स्पष्टता से उजागर करती है. उनके शब्द चुनौती देते हैं, जागृत करते हैं और मुक्त करते हैं. कबीरवाणी को इस मंच पर प्रस्तुत करना जिम्मेदारी और आनंद दोनों है,"  कबीर के पद निर्गुण या निराकार वास्तविकता में गहन डूबन को दर्शाते हैं. अपनी विनम्र पृष्ठभूमि के बावजूद तुकाराम एक व्यापारी के रूप में और कबीर एक बुनकर के रूप में दोनों ने रोजमर्रा की जिंदगी को एक गहन आध्यात्मिक पथ में बदल दिया.

देखिए कबीर अपने अध्यात्म में कितने सहज हैं...

निर्भय निर्गुण, निर्भय निर्गुण गुन रे गाऊंगा
निर्भय निर्गुण, निर्भय निर्गुण गुन रे गाऊंगा 
मूल-कमल दृढ़ आसन बांधू जी
उलटी पवन चढ़ाऊंगा

निर्भय निर्गुण, निर्भय निर्गुण गुन रे गाऊंगा 
मन-ममता को थिर कर लाऊं जी
पांचो तत्व मिलाऊंगा

निर्भय निर्गुण, निर्भय निर्गुण गुन रे गाऊंगा 
इंगला, पिंगला, सुखमन नाड़ी जी
त्रिवेणी पर न्हाऊंगा

भाव- संत कबीर योग, ध्यान और मन-शुद्धि के जरिए निर्भय होकर परमात्मा के गुण गाने की प्रेरणा देते हैं. यह साधक को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर आध्यात्मिक जागरण की ओर ले जाता है. मन की मोह-ममता (सांसारिक लगाव) को स्थिर (नियंत्रित) करके, पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) को एकत्रित कर लय कर दूंगा. यहां मन की शुद्धि और शरीर के तत्वों को परमात्मा में विलीन करने की साधना का संकेत है. कबीर कहते हैं कि भक्ति में मन को मोह से मुक्त कर तत्वों को ईश्वर में समाहित करना पड़ता है.

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1996 में स्थापित पंचम निषाद क्रिएटिव्स भारत की शास्त्रीय प्रदर्शन कलाओं को मनाने और बनाए रखने के लिए समर्पित एक अग्रणी सांस्कृतिक उद्यम रहा है. "कबीर और तुकाराम भाषा, भूगोल और भक्ति परंपराओं में भिन्न हो सकते हैं, लेकिन उनका मूल संदेश एक ही है, सत्य की शाश्वत खोज. 'तुका म्हणे काये कबिरा' के जरिये यह मंच उनकी आवाजों को एक एकल संगीतमय संवाद में बुन रहा है, इस संध्या में डॉ. लेले के मंच संचालन ने आयोजन को धार दी, जिन्होंने हर काव्य कृति की सुंदर शब्दों में व्याख्या की. 'तुका म्हणे काये कबिरा' ने 6 नवंबर की शाम को अध्यात्म की शाम में बदल दिया.

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