भारतीय संस्कृति में प्रेम और भक्ति की जो धारा प्रवाहित होती रही है, उसका सबसे सुंदर रूप राधा और कृष्ण के संबंध में देखने को मिलता है. यह संबंध केवल पौराणिक कथा या लोककथा भर नहीं है, बल्कि शास्त्रीय संगीत की परंपरा में भी गहराई से रचा-बसा है. ब्रज से लेकर बंगाल तक, मंदिरों से लेकर संगीत सभाओं तक, हर जगह राधा-कृष्ण का प्रेम संगीत की स्वर लहरियों में गूंजता है.
कृष्णकाली की लोककथा
लोककथाओं में एक खूबसूरत प्रसंग आता है कि जब श्रीकृष्ण गोकुल में थे और गाय चराने की और ग्वालबालों के साथ खेल कूद की लीला कर रहे थे, तब एक दिन महादेव उनके दर्शन को आए. उन्होंने अनुरोध किया कि वे कृष्ण को उनके काली स्वरूप में देखना चाहते हैं. कृष्ण ने उनकी इच्छा पूर्ण की और उसी क्षण काली रूप में प्रकट हो गए. उन्होंने श्रीकृष्ण से ये प्रार्थना इसलिए की, क्योंकि श्रीकृष्ण असल में विष्णु के नहीं काली के अवतार हैं. शाक्त परंपरा के पुराण ऐसा मानते हैं और कहते हैं कि वराह, नृसिंह, श्रीराम-श्रीकृष्ण ये सभी अवतार देवी काली की प्रेरणा से ही भगवान विष्णु ने लिए थे, इसलिए उनका रंग भी काला ही था. जिसे नील मेघ श्याम कहा जाता है.
कहा जाता है कि जब श्रीकृष्ण ने महादेव के कहने पर उन्हें काली स्वरूप दिखाया तब उस समय उनकी वंशी खड़्ग में बदल गई, गले की वनमाला मुंडमाला बन गई और उनका स्वरूप अत्यंत दिव्य और उग्र हो गया. यह स्वरूप आज भी वृंदावन के कृष्णकाली मंदिर और कोलकाता के मंदिर में पूजित है. इस लोककथा का संदेश यह है कि कृष्ण और काली अलग-अलग नहीं हैं. जब कृष्ण लीला और मधुर प्रेम में दिखाई देते हैं, तो वहीं काली शक्ति और संहार की प्रतीक बनकर प्रकट होती हैं. इस द्वंद्व में भी राधा की उपस्थिति है, क्योंकि कृष्ण और राधा का नाम अलग होकर भी एक-दूसरे से जुड़ा रहता है.
शिव और राधा के अवतार का वर्णन
एक और लोककथा कहती है कि जब शिव ने पार्वती से यह जानने की इच्छा जताई कि प्रेम में स्त्री किस तरह का अनुभव करती है और वह उस भावना में किस स्तर तक जुड़ी होती है तब पार्वती ने उन्हें आश्वासन दिया कि एक समय ऐसा आएगा कि आप खुद इसे महसूस कर सकेंगे. उसी समय पृथ्वी पर असुरों का अत्याचार बढ़ गया था. तब परमसत्ता ने निर्णय लिया कि विष्णु वासुदेव और देवकी के पुत्र कृष्ण के रूप में जन्म लेंगे और शिव वृषभानु गोप की पुत्री राधा के रूप में अवतरित होंगे. इस प्रकार महाकाली कृष्ण बनीं और महादेव राधा. यही कारण है कि राधा-कृष्ण के प्रेम को केवल लौकिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और शाश्वत कहा गया है.
नामजप और भक्ति की महिमा
सनातन परंपरा में नामजप और भावना को ही सर्वोपरि माना गया है. तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा—
"नाम प्रसाद संभु अबिनासी. साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी. नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥"
अर्थात नाम के प्रभाव से शिवजी अमर हो गए और सिद्ध-मुनि, योगी सभी ब्रह्मानंद का अनुभव कर रहे हैं. यही नाम और यही भावना राधा और कृष्ण के प्रेम को भी दिव्यता देती है.
शास्त्रीय संगीत में राधा-कृष्ण
भारतीय शास्त्रीय संगीत में राधा और कृष्ण का प्रेम बार-बार व्यक्त हुआ है. यहां प्रेम केवल शब्दों में नहीं, बल्कि सुरों और लयों में प्रकट होता है. कई रागों की बंदिशें सीधे राधा-कृष्ण की लीलाओं पर आधारित हैं.
राग देश की एक बंदिश कहती है:
“देखो री न माने श्याम, बीच डगर मोरी, बैयां पकड़ लई
चूरियां करक गई, अंगिया मसक गई, ऐसे ढीठ से मोहे परो काम, देखो री न...”
इसमें श्याम की छेड़छाड़ और राधा का लज्जा भरा विरोध चित्रित होता है.
राग भैरवी की बंदिश में गोपियों की उलाहना कुछ इस तरह दिखाई देती है:
“डगर चलत छेड़े श्याम सखी री, मैं दूंगी गारी, निपट अनारी
पनिया भरत मोरी, गागर फोरी, नाहक बहियां मरोरी झकझोरी...”
इसमें कृष्ण की शरारत और गोपी का असहाय प्रेम झलकता है.
राग वृंदावनी सारंग में राधा की खोज का स्वरूप मिलता है:
“वनवन ढूंढन जाऊं, कितहूं छिपगए कृष्ण मुरारी
सीस मुकुट और कानन कुंडल, वंशीधर मन रंग फिरत गिरधारी...”
इसमें प्रिय की अनुपस्थिति में विरह का दर्द है.
इन गीतों में कहीं राधा का नाम स्पष्ट लिया गया है, तो कहीं उन्हें केवल गोपी या ब्रजनारी कहकर संकेत किया गया है.
राधाः प्रेम की अनंत उपस्थिति
संगीतकारों और कवियों ने यह दिखाया है कि राधा केवल वहां नहीं हैं जहां उनका नाम है. जहां केवल संकेत है, वहां भी राधा ही हैं. यही उनकी विशेषता है कि वे ‘अगम और निगम’ का स्वरूप हैं. रागों की यह परंपरा यह भी बताती है कि राधा और कृष्ण का प्रेम केवल पौराणिक कथा नहीं, बल्कि कला और साधना का अनंत स्रोत है. संगीत की साधना में राधा का भाव भक्ति और प्रेम का मार्ग दिखाता है.
राधा और कृष्ण का संबंध केवल लोककथाओं और पुराणों तक सीमित नहीं है. यह संबंध भारतीय शास्त्रीय संगीत की हर धुन, हर बंदिश और हर राग में गूंजता है. वृंदावन से लेकर कोलकाता तक कृष्णकाली मंदिर इसकी गवाही देते हैं और देश-विदेश के संगीत मंचों पर गाए जाने वाले राग इसकी परंपरा को जीवित रखते हैं. राधा यहां भी केवल एक पात्र नहीं, बल्कि प्रेम और भक्ति का प्रतीक हैं. वे हैं तो हर जगह हैं और जहां नहीं हैं, वहां भी उनके बिना कुछ अधूरा है. यही कारण है कि शास्त्रीय संगीत में राधा और कृष्ण का प्रेम केवल सुरों में नहीं, बल्कि साधना में भी बसता है.