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दसहरी, चौसा, सफेदा... शराब ही नहीं आम के भी शौकीन थे मिर्जा ग़ालिब

खैर, आगरे में पैदा हुए और जमाई बनकर दिल्ली पहुंचे मिर्जा नौशा जितने शराब के शौकीन थे, आम के भी उतने ही शैदायी थे. उनकी जिंदगी में आम के इतने किस्से हैं कि क्या कहा जाए. एक खास किस्सा तो उनका आखिरी मुगल सरताज बहादुर शाह जफर के साथ का ही है.

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मिर्जा गालिब को आम बहुत पसंद थे. यह तस्वीर दिल्ली (चांदनी चौक) स्थित उनकी याद में बने स्मृति भवन से ली गई है
मिर्जा गालिब को आम बहुत पसंद थे. यह तस्वीर दिल्ली (चांदनी चौक) स्थित उनकी याद में बने स्मृति भवन से ली गई है

मुझसे पूछो तुम्हें खबर क्या है,
आम के आगे नेशकर क्या है?

नेशकर मतलब होता है गन्ना. गन्ना मीठे रस से भरी लाठी है. बचपन के उस दौर में जब किसी पर बेवजह ही सयानापन हावी हो जाता था, तो उस ऊपरी हवा को उतारने के लिए बाबा-नाना टाइप लोग पहेलियां बूझते थे. एक पहेली ये भी थी कि 'एक लाठी की सुनो कहानी जिसमें छिपा है मीठा पानी'. लेकिन, चचा गालिब ने कहा है तो खूब समझ-बूझ कर ही कहा होगा कि आम के आगे नेशकर क्या है?

इसके दो मतलब हो सकते हैं, पहला- या तो वो तय नहीं कर पा रहे थे कि गन्ने की मिठास को क्या कहा जाए, दूसरा- ये हो सकता कि चैत (चैत्र) और बैसाख (वैशाख) तक तो उन्होंने खूब गन्ने का रस पिया और फिर खाये-पिए अघाये गालिब को आधे जेठ के बाद आम चूसने को मिले (ये भी हो सकता है कि काटकर खाए हों). तब उन्होंने कहा कि आम के आगे नेशकर क्या है?

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वैसे भी गालिब जिस मिजाज के आदमी थे, लगता भी है कि उन्हें गन्ने के रस से बहुत मतलब रहा नहीं होगा. बजाय इसके वो उस रस को सड़ाकर बने पेय के ज्यादा दीवाने रहे और आम को भी उन्होंने इसी निगाह से देखा. लेखक सोपान जोशी अपनी किताब 'मैग्निफेरा इंडिका' में मशहूर शायर मिर्जा गालिब का संदर्भ देते हुए लिखते हैं कि उन्हें 'दशहरी आम' बेहद पसंद थे और आमों को लेकर उनके दिल में इतनी मुहब्बत थी कि वे उन्हें 'शहद भरा प्याला' कहते थे. यह कुछ-कुछ उसे तर्जुमे सा स्वाद देता है जो आम के पेड़ों के लिए संस्कृत में लिखा गया है, 'मधु आवास'

खैर, आगरे में पैदा हुए और जमाई बनकर दिल्ली पहुंचे मिर्जा नौशा जितने शराब के शौकीन थे, आम के भी उतने ही शैदायी थे. उनकी जिंदगी में आम के इतने किस्से हैं कि क्या कहा जाए. एक खास किस्सा तो उनका आखिरी मुगल सरताज बहादुर शाह जफर के साथ का ही है. हुआ यूं कि आषाढ़ का एक दिन था. बहादुर शाह जफर अपने कुछ कारिंदों के साथ किला-ए-मुबारक के बाग में टहल रहे थे, गालिब भी साथ थे. 

मौसम के मुताबिक, बाग उन दिनों आमों से गुलजार था और ये आम केवल बादशाह और उनके घर वालों को ही मयस्सर थे. थोड़ी देर में बादशाह ने देखा कि गालिब कहीं पीछे रह गए हैं और वे हर आम को टटोल-टटोल कर देख रहे हैं. बादशाह ने पूछा- ये आप क्या कर रहे हैं मिर्जा नौशा?

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गालिब ने कहा- गुस्ताखी माफ हुजूर! मैंने सुना है दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम. मैं देख रहा हूं कि किसी आम पर मेरे बाप-दादों या मेरा नाम लिखा है कि नहीं. ये सुनकर बादशाह जफर खूब हंसे और फिर तबसे ही हर आम के मौसम में उन्हें लालकिले के बगीचे वाले आमों की टोकरियां पहुंचाई जाने लगी. 

वैसे इतने आम खाकर भी गालिब का कभी मन नहीं भरा. एक दफा यू्ं ही किसी महफिल में आमों की चर्चा हो रही थी. बात गालिब तक पहुंची और सवाल हुआ कि आम की खूबी पर आप क्या कहेंगें? गालिब ने कहा- देखिए मेरी समझ में तो आम में सिर्फ दो खूबियां होनी चाहिए, एक तो वे बहुत मीठे होने चाहिए, और दूसरा बहुत सारे होने चाहिए. आम खाने में आमों की कमी नहीं पड़नी चाहिए. 

लखनऊ के मशहूर साहित्यकार रहे हैं योगेश प्रवीण. साल 2021 में ही उनका निधन हुआ, लेकिन अपनी कई बैठकों में वह गालिब के आम प्रेम का जिक्र किया करते थे. वो बताते थे कि मिर्जा गालिब आम के ऐसे दीवाने थे कि पूछिए मत. उन्हें सरकार से पेंशन मिलती थी, जिसे लेने के लिए उन्हें दिल्ली से कलकत्ते (कोलकाता) जाना होता था. गालिब जान-बूझकर लंबा रास्ता तय करते थे और लखनऊ होते हुए जाते थे. इस लंबे रास्ते की वजह थी तो केवल एक और वह थे आम. गालिब दसहरी से तो बहुत प्यार करते ही थे, लेकिन इधर आते वक्त व चौसा, सफेदा और मालदा भी चाव से खाते हुए आते थे. 

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लखनऊ खाने-खिलाने और मेहमान नवाजी का दिलचस्प शहर है और शहर की आब-ओ-हवा में आम का जूनून कुछ यूं मु'अत्तर रहता था की यहां सालों तक 'आम और ग़ालिब' की दावतें रखी जाती थीं. इनमें लखनऊ के तमाम शायर, शायरा इकठ्ठे बैठकर आम नोश फरमाते थे और शेर ओ शायरी पेश करते थे. ऐसी महफिलें आम दीवाने मिर्ज़ा ग़ालिब को नजर की जाती थीं.

मिर्जा गालिब, जिन्हें मिर्जा नौशा भी पुकारा गया, उनके बारे में इतना कुछ पढ़कर-जानकर अब समझ आता है कि उन्होंने अपनी गजल में जो एक चाशनी में डूबा हुआ शेर पढ़ा तो किस स्वाद में पढ़ा होगा.  

कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब 
गालियां खा के बे-मज़ा न हुआ...

गालिब की शायरी भी आम की मिठास से लबरेज लगती थी, हो भी क्यों न, गालिब मौसमों के बड़े हसरती हुआ करते थे और हर मौसम का लुत्फ दिल खोल कर लिया करते थे. तपिश और उमस भरी गर्मी का तो यूं भी बस एक सबाब है और वो है आम, तो मिर्जा इससे चूकते नहीं थे. जैसे वे शराब की महफिलें सजाते थे, उतने दिल और दिलचस्पी के साथ आम की महफिल भी जमाते थे. एक दिन यूं भी हुआ कि मिर्जा नौशा अपने दोस्तों के साथ आम का लुत्फ़ ले रहे थे कि तभी वहां से एक गधा गुज़रा और रास्ते में पड़े आम को बिना खाए छोड़ गया. इसे देखकर मिर्ज़ा साहब के एक दोस्त ने कहा, "मियां, आम में ऐसा क्या है? ये तो गधे भी नहीं खाते.

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मिर्ज़ा साहब जैसा आम प्रेमी और दूसरा हाजिर जवाब... तुरंत बोले "मियां, जो गधे हैं वही आम नहीं खाते" शायद ये बात भी तभी कही गई होगी... 'मुझसे पूछो, तुम्हें खबर क्या है, आम के आगे नेशकर क्या है'

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