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इंद्र का घमंड चूरकर लौटे श्रीकृष्ण का गायों ने किया था अभिषेक, कहलाए थे गोपाल... ऐसे हुई गोपाष्टमी की शुरुआत

गोपाष्टमी कार्तिक मास की एक महत्वपूर्ण तिथि है, जो श्रीकृष्ण की गोसेवा से जुड़ी है. यह पर्व ब्रज क्षेत्र की लोकपरंपरा का हिस्सा है और इसे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी जितना ही महत्व दिया जाता है. इस दिन गायों की पूजा की जाती है और उन्हें माता का दर्जा दिया जाता है.

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गोपाष्टमी के दिन गोपाल कहलाए थे श्रीकृष्ण
गोपाष्टमी के दिन गोपाल कहलाए थे श्रीकृष्ण

भारत की पर्व परंपरा इतनी समृद्ध है कि यहां हर दिन एक उत्सव की तरह है और महत्व की बात आती है तो एक-एक तिनका और राह का एक कंकर भी महत्वपूर्ण बन जाता है. ब्रज क्षेत्र की लोकपरंपरा की बात करें तो यहां कार्तिक मास का बहुत महत्व है और इसे श्रीकृष्ण से जोड़कर देखा जाता है. 

श्रीकृष्ण से जुड़ी है कार्तिक महीने की तिथियां
दिवाली के पर्व की शृंखला के साथ ही कार्तिक महीने की कई तिथियां श्रीकृष्ण से जु़ड़ी हैं, और इन्हीं में एक है कार्तिक शुक्ल अष्टमी तिथि, जिसे गोपाष्टमी के नाम से जाना जाता है. गोपाष्टमी का महत्व श्रीकृष्ण जन्माष्टमी जितना ही है. इस दिन श्रीकृष्ण ने गायों की पूजा की थी और उन्हें माता का दर्जा दिया था, इसलिए तबसे गोपाष्टमी मनाई जाती है. यह भी कहा जाता है कि कार्तिक अष्टमी से ही भगवान श्रीकृष्ण ने गो-सेवा और गोचारण की शुरुआत की थी, इसलिए इसे गोमाता और कृष्ण प्रेम दोनों का प्रतीक माना जाता है.

खेती-किसानी की ग्रामीण परंपरा से जुड़ा है गोपाष्टमी
असल में गोपाष्टमी खेती-किसानी के साथ ग्रामीण परंपरा का उत्सव है. जो मूलतः ब्रज की ही परंपरा से निकला हुआ है और यहीं से इसकी शुरुआत होकर अन्य क्षेत्रों में फैला. असल में श्रीकृष्ण ने जब इंद्र पूजा का विरोध किया और नंद बाबा से उनकी पूजा बंद करवा दी, तब नंद बाबा समेत सभी ने उनसे पूछा कि उन्हें इंद्र की पूजा बंदकरके किसकी पूजा करनी चाहिए. तब श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रकृति से जुड़े तत्वों की पूजा के लिए कहा. उन्होंने शरद पूर्णिमा के चंद्रमा को पवित्र बताया, जो औषधियों में रस भरता है. 

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सूर्य, चंद्र, यमुना, गोवर्धन और गऊ की पूजा का विधान
उन्होंने सूर्य देवता को पूजनीय बताया. यमुना नदी को पूजनीय बताया, जिसमें यम द्वितीया मनाई जाती है. गोवर्धन पूजा की परंपरा शुरू की. खेतों और नए अन्न को भी पूजनीय बताया और इस तरह उन्होंने गोवर्धन पूजा से लेकर गोपाष्टमी तक लगभग सात दिन के उत्सव की परंपरा की नींव रखी. ये सातों दिन इंद्र के सात दिन के घमंड को तोड़ने में हुए संघर्ष के दिन थे, लेकिन जब इंद्र की हार हो गई तब ब्रज वासियों ने इन्हीं सात दिनों की याद में उत्सव मनाया, जिसका आखिरी दिन गोपाष्टमी था.

गोपाष्टमी के दिन गायों-गोवंशों (बछिया और बछड़ों) को नहा-धुलाकर साफ किया जाता है. उन्हें तिलक किया जाता है. हल्दी और गुड़ मिले चोकर की सानी दी जाती है. इसके अलावा उन्हें नए अन्न के पीसे हुए आटे की लोई बनाकर उसमें हल्दी और गुड़ लगाकर गाय को खिलाया जाता है. गोपालक गायों को ताजे और पके अन्न के भोग की थाल भी अर्पित करते हैं. इस तरह गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जाता है.

श्रीकृष्ण ने जताई गऊ सेवा की इच्छा
भगवान श्रीकृष्ण ने एक दिन उन्होंने मां यशोदा से इच्छा जताई कि वे भी गायों की सेवा करना चाहते हैं. इसके लिए नंद बाबा ने ऋषियों से शुभ मुहूर्त पूछा, और उसी दिन यानी कार्तिक शुक्ल अष्टमी को कृष्ण ने पहली बार गायों को चराने का कार्य आरंभ किया. मां यशोदा ने उन्हें तैयार किया, मोरपंख मुकुट पहनाया, लेकिन जब पादुका पहनाने लगीं तो कृष्ण मुस्कुरा कर बोले, “जब सब ग्वालों को पादुका मिलेंगी, तभी मैं पहनूंगा.” तब श्रीकृष्ण के कहने पर सभी ग्वालों और गोसेवकों को भी पादुकाएं पहनाईं गईं. इस तरह श्रीकृष्ण ने अपनी गायों को सजाया, उन्हें चोटी पहनाई. मुकुट और चीवर पहनाए और उनके सींगों को सुंदर फूलों से सजाया. श्रीकृष्ण की गोसेवा देखकर सभी ग्वालों ने भी अपनी गायों की ऐसी ही सेवा और पूजा की और इसी दिन से गोपाष्टमी की शुरुआत हुई.  

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जब इंद्र का अहंकार तोड़ने के लिए श्रीकृष्ण ने गोवर्धन उठा लिया था तो सात दिन तक वह उसे थामे रहे थे. आठवें दिन जब उन्होंने गोवर्धन को स्थापित किया तो श्रीकृष्ण की सभी गायें दौड़ी आईं और उनसे लिपट गईं. उनसे स्नेह करने लगीं. उनके थनों से दूध बहने लगा और उन्होंने इससे अपने बाल कृष्ण का अभिषेक किया. श्रीकृष्ण ने गऊओं के दूध का पान किया और इससे उनकी भूख मिटी. तब श्रीकृष्ण ने भी गायों की पूजा की और इस तरह गोपाष्टमी की परंपरा की शुरुआत हुई. श्रीकृष्ण मानते थे कि गइयों के दूध-दही और माखन से ही उन्हें इतनी शक्ति मिली कि वह पर्वत उठा सके. वह जीवन भर नंदगांव की गायों के ऋणी रहे और अपनी हर सफलका का श्रेय गऊ माता के दूध, दही-माखन को देते रहे. गोपाष्टमी का पर्व आज भी भक्ति, सादगी और गोमाता के प्रति सम्मान का प्रतीक बना हुआ है.

 

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