उत्तराखंड, जिसे 'देवभूमि' के नाम से जाना जाता है, अपनी प्राकृतिक सुंदरता, हिमालय की ऊंची चोटियों और पवित्र नदियों जैसे गंगा, यमुना, भागीरथी, अलकनंदा और ऋषिगंगा के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन हाल के वर्षों में ये नदियां और पहाड़, जो कभी जीवनदायिनी माने जाते थे, अब बार-बार तबाही का कारण बन रहे हैं.
बाढ़, भूस्खलन और ग्लेशियर टूटने जैसी घटनाएं उत्तराखंड में आम हो गई हैं. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या इसके पीछे प्रकृति का प्रकोप है या इंसानी गलतियां? इस लेख में हम वैज्ञानिक तथ्यों और शोध पत्रों के आधार पर इस सवाल का जवाब समझने की कोशिश करेंगे.
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उत्तराखंड में बार-बार आपदाएं: एक नजर
उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन इनकी तीव्रता और बारंबारता पिछले कुछ दशकों में बढ़ी है. उदाहरण के लिए...
तबाही के कारण: प्रकृति और इंसान का गठजोड़
वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के अनुसार, उत्तराखंड में होने वाली तबाही के पीछे प्राकृतिक और मानवीय कारणों का मिश्रण है. आइए, इसे विस्तार से समझते हैं...
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1. भूगर्भीय अस्थिरता और हिमालय की संरचना
हिमालय एक युवा पर्वत श्रृंखला है, जो भूगर्भीय रूप से अभी भी सक्रिय है. शोध बताते हैं कि हिमालय की ऊंचाई हर साल 4-5 मिलीमीटर बढ़ रही है क्योंकि भारतीय और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट्स आपस में टकरा रही हैं. इस टकराव से भूकंपीय हलचल होती है, जो चट्टानों को कमजोर करती है.
वैज्ञानिक तथ्य: वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के एक अध्ययन के अनुसार, उत्तराखंड में छोटे-छोटे भूकंप (3.0-4.0 तीव्रता) अक्सर आते हैं. ये भूकंप भविष्य में 7.0 तीव्रता के बड़े भूकंप का संकेत हो सकते हैं.
प्रभाव: इन भूकंपीय हलचलों से पहाड़ों की चट्टानें कमजोर होकर टूटती हैं, जिससे भूस्खलन और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है. खासकर अलकनंदा और भागीरथी नदियों के किनारे बसे इलाके इसकी चपेट में आते हैं.
2. ग्लेशियरों का पिघलना और जलवायु परिवर्तन
उत्तराखंड की नदियां जैसे भागीरथी, अलकनंदा और ऋषिगंगा हिमनदों (ग्लेशियर्स) से निकलती हैं. लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ये ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे नदियों में अचानक बाढ़ की स्थिति बन रही है.
वैज्ञानिक तथ्य: नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओशन रिसर्च के एक शोध के अनुसार, हिमालय के ग्लेशियर हर साल 0.5-1% की दर से सिकुड़ रहे हैं. गंगोत्री ग्लेशियर, जो भागीरथी नदी का स्रोत है, पिछले 50 सालों में करीब 1.5 किमी पीछे खिसक चुका है.
2021 चमोली आपदा का उदाहरण: एक ग्लेशियर के टूटने से ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में अचानक बाढ़ आई, जिसने तपोवन बांध को तबाह कर दिया. शोधकर्ताओं ने इसे ग्लेशियर पिघलने और चट्टानों के टूटने का संयुक्त प्रभाव बताया.
3. मानवीय गतिविधियां: प्रकृति पर बोझ
उत्तराखंड में बढ़ते पर्यटन, अनियोजित निर्माण और जलविद्युत परियोजनाएं तबाही को और बढ़ा रही हैं...
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अनियोजित निर्माण और खनन: पहाड़ों में सड़कें, सुरंगें और बांध बनाने के लिए बड़े पैमाने पर ड्रिलिंग और विस्फोट किए जाते हैं. इससे चट्टानें कमजोर होती हैं. भूस्खलन का खतरा बढ़ता है.
उदाहरण: चमोली जिले में रांति पहाड़ का 550 मीटर चौड़ा हिस्सा 2021 में टूट गया, जिससे तपोवन में भारी तबाही हुई. पर्यावरणविदों का कहना है कि यह बांध निर्माण के कारण हुआ.
पर्यटन का दबाव: उत्तराखंड में हर साल 4 करोड़ से ज्यादा पर्यटक आते हैं, खासकर बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे तीर्थ स्थलों पर. इससे जंगलों की कटाई, कचरा और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता है.
जलविद्युत परियोजनाएं: अलकनंदा और भागीरथी नदियों पर कई बांध बनाए गए हैं. ये बांध नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को रोकते हैं, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ता है. एक अध्ययन के अनुसार, उत्तराखंड में 70 से ज्यादा जलविद्युत परियोजनाएं हैं, जिनमें से कई भूकंप संवेदनशील क्षेत्रों में हैं.
4. मौसम का बदलता मिजाज
उत्तराखंड में भारी बारिश और बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं. भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, पिछले 20 सालों में उत्तराखंड में मॉनसून की बारिश की तीव्रता 20-30% बढ़ी है....
प्रभाव: भारी बारिश से नदियां जैसे मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी उफान पर आती हैं, जिससे बाढ़ और भूस्खलन होता है. 2013 की केदारनाथ त्रासदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जब मंदाकिनी नदी ने भारी तबाही मचाई.
वैज्ञानिक तथ्य: एक शोध पत्र में बताया गया कि हिमालयी क्षेत्र में बादल फटने की घटनाएं जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रही हैं, क्योंकि गर्म हवा अधिक नमी को पकड़ती है, जिससे अचानक भारी बारिश होती है.
क्या हैं समाधान?
उत्तराखंड की नदियों और पहाड़ों को तबाही का कारण बनने से रोकने के लिए कुछ कदम उठाए जा सकते हैं...
ऋचीक मिश्रा