ग्लेशियर पिघलने से फटेंगे ज्वालामुखी, पूरी दुनिया में मचेगी तबाही... वैज्ञानिकों की चेतावनी

एक गंभीर चेतावनी है कि ग्लेशियरों का पिघलना न केवल समुद्र के जलस्तर को बढ़ाएगा, बल्कि ज्वालामुखी विस्फोटों को भी ट्रिगर कर सकता है. आइसलैंड और चिली जैसे क्षेत्रों के उदाहरण बताते हैं कि बर्फ के दबाव के हटने से ज्वालामुखी अधिक सक्रिय हो सकते हैं.

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ग्लेशियर पिघले तो दुनिया में कई जगहों पर ज्वालामुखी फटने की आशंका वैज्ञानिकों ने जताई है. (प्रतीकात्मक फोटोः पिक्साबे) ग्लेशियर पिघले तो दुनिया में कई जगहों पर ज्वालामुखी फटने की आशंका वैज्ञानिकों ने जताई है. (प्रतीकात्मक फोटोः पिक्साबे)

आजतक साइंस डेस्क

  • नई दिल्ली,
  • 08 जुलाई 2025,
  • अपडेटेड 7:21 PM IST

जलवायु परिवर्तन के कारण पिघल रहे ग्लेशियर न केवल समुद्र का जलस्तर बढ़ा रहे हैं, बल्कि दुनिया भर में ज्वालामुखी विस्फोटों को और विनाशकारी बना सकते हैं. एक नए अध्ययन के अनुसार, ग्लेशियरों के पिघलने से ज्वालामुखी अधिक बार और अधिक विस्फोटक रूप से फट सकते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन और गंभीर हो सकता है. यह शोध 8 जुलाई 2025 को प्राग में आयोजित गोल्डश्मिट कॉन्फ्रेंस 2025 में प्रस्तुत किया गया. 

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ग्लेशियर और ज्वालामुखी का संबंध

दुनिया भर में 245 सक्रिय ज्वालामुखी ग्लेशियरों के नीचे या उनके 5 किलोमीटर के दायरे में मौजूद हैं. इनमें अंटार्कटिका, रूस, न्यूज़ीलैंड और उत्तरी अमेरिका जैसे क्षेत्र शामिल हैं. शोधकर्ताओं ने दक्षिणी चिली के छह ज्वालामुखियों, विशेष रूप से मोचो-चोशुएंको ज्वालामुखी का अध्ययन किया और पाया कि ग्लेशियरों के पिघलने से इन ज्वालामुखियों की गतिविधि बढ़ सकती है.

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पाब्लो मोरेनो येगर, विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक ने बताया कि ग्लेशियर ज्वालामुखियों के विस्फोटों की मात्रा को दबाते हैं. लेकिन जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं, हमारे शोध से पता चलता है कि ये ज्वालामुखी अधिक बार और ज्यादा विस्फोटक रूप से फट सकते हैं.

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ग्लेशियरों का पिघलना ज्वालामुखी को कैसे प्रभावित करता है?

ग्लेशियरों का भारी वजन पृथ्वी की सतह और इसके नीचे की मैग्मा परतों पर दबाव डालता है. यह दबाव ज्वालामुखी गतिविधियों को नियंत्रित रखता है. लेकिन जब ग्लेशियर पिघलते हैं, तो यह दबाव कम हो जाता है, जिससे मैग्मा और गैसें फैलने लगती हैं. इससे ज्वालामुखी के नीचे दबाव बढ़ता है, जो विस्फोटक विस्फोटों का कारण बन सकता है.

आइसलैंड का उदाहरण

आइसलैंड में यह प्रक्रिया पहले ही देखी जा चुकी है. लगभग 10000 साल पहले आखिरी हिमयुग के अंत में, जब ग्लेशियर पिघले, तो आइसलैंड के ज्वालामुखियों में विस्फोटों की दर 30 से 50 गुना बढ़ गई थी. यह आइसलैंड की भूगर्भीय संरचना के कारण हुआ, जो उत्तरी अमेरिकी और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेटों के बीच में स्थित है.

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चिली में शोध: मोचो-चोशुएंको ज्वालामुखी

शोधकर्ताओं ने दक्षिणी चिली के पटागोनियन आइस शीट के पिघलने और वहां के ज्वालामुखियों की गतिविधियों का अध्ययन किया. 26000 से 18000 साल पहले, जब हिमयुग अपने चरम पर था, मोटी बर्फ की चादरों ने ज्वालामुखी विस्फोटों को दबा रखा था. इस दौरान मैग्मा और गैसें पृथ्वी के नीचे जमा हो रही थीं. जब बर्फ पिघली, तो यह दबाव अचानक रिलीज़ हुआ, जिसके परिणामस्वरूप मोचो-चोशुएंको ज्वालामुखी का निर्माण हुआ.

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शोधकर्ताओं ने आर्गन रेडियोएक्टिव डेके (ज्वालामुखी विस्फोटों से निकलने वाली गैस) और मैग्मा क्रिस्टल्स का विश्लेषण करके इस क्षेत्र की ज्वालामुखी गतिविधियों का समय निर्धारित किया. इससे पता चला कि बर्फ के पिघलने के बाद विस्फोटों की तीव्रता और आवृत्ति बढ़ गई.

वैश्विक खतरा

2020 के एक अध्ययन के अनुसार, दुनिया के 245 संभावित सक्रिय ज्वालामुखी ग्लेशियरों के नीचे या उनके पास हैं. इनमें शामिल हैं...

  • अंटार्कटिका: जहां मोटी बर्फ की चादरें ज्वालामुखियों को दबा रही हैं.
  • रूस: साइबेरिया और कामचटका क्षेत्र में बर्फ से ढके ज्वालामुखी.
  • न्यूज़ीलैंड: जहां ज्वालामुखी और ग्लेशियर पास-पास हैं.
  • उत्तरी अमेरिका: अलास्का और कनाडा में बर्फ से ढके ज्वालामुखी.

मोरेनो येगर ने बताया कि ज्वालामुखी विस्फोटों की विस्फोटकता बढ़ने के लिए सबसे पहले मोटी बर्फ की चादरों का होना ज़रूरी है. जब ये ग्लेशियर पिघलने लगते हैं, तो दबाव कम होने से विस्फोट शुरू हो सकते हैं. यह प्रक्रिया अभी अंटार्कटिका जैसे क्षेत्रों में हो रही है. 

जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव

ज्वालामुखी विस्फोटों का जलवायु पर दोहरा प्रभाव पड़ता है...

अल्पकालिक प्रभाव: विस्फोटों से निकलने वाली सल्फेट एरोसोल्स सूरज की रोशनी को अंतरिक्ष में परावर्तित करती हैं, जिससे पृथ्वी का तापमान कुछ समय के लिए कम हो सकता है. उदाहरण के लिए, 1815 में माउंट तंबोरा (इंडोनेशिया) के विस्फोट के बाद “बिना गर्मी का साल” हुआ था, जिससे वैश्विक अकाल पड़ा था.

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दीर्घकालिक प्रभाव: ज्वालामुखी कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) और अन्य ग्रीनहाउस गैसें छोड़ते हैं, जो लंबे समय में वैश्विक तापमान बढ़ाती हैं. इससे ग्लेशियर और तेज़ी से पिघलते हैं, जिससे और ज्वालामुखी विस्फोट हो सकते हैं. यह एक पॉजिटिव फीडबैक लूप बनाता है, जो जलवायु संकट को और गंभीर करता है.

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क्या है खतरा?

  • अधिक विस्फोट: पिघलते ग्लेशियरों के कारण ज्वालामुखी अधिक शक्तिशाली और बार-बार फट सकते हैं, जिससे बड़े पैमाने पर तबाही हो सकती है.
  • क्षेत्रीय प्रभाव: आइसलैंड, अंटार्कटिका और अलास्का जैसे क्षेत्रों में बस्तियों, बुनियादी ढांचे और हवाई यातायात को खतरा हो सकता है.
  • जलवायु पर प्रभाव: ज्वालामुखी गैसों से ग्लोबल वॉर्मिंग तेज़ हो सकता है, जिससे समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा. मौसम संबंधी आपदाएं बढ़ेंगी.

वैज्ञानिकों की सलाह

शोधकर्ताओं का कहना है कि हमें उन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देना चाहिए जहां ग्लेशियर और ज्वालामुखी एक साथ मौजूद हैं. अंटार्कटिका, रूस, न्यूज़ीलैंड और उत्तरी अमेरिका में ज्वालामुखी गतिविधियों की निगरानी बढ़ानी होगी. साथ ही, जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना ज़रूरी है, ताकि ग्लेशियरों का पिघलना धीमा हो और ज्वालामुखी विस्फोटों का खतरा कम हो.

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भारत पर प्रभाव

हालांकि भारत में ग्लेशियरों के नीचे सक्रिय ज्वालामुखी नहीं हैं, लेकिन हिमालय के ग्लेशियरों का तेज़ी से पिघलना भारत के लिए चिंता का विषय है. उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं. अगर वैश्विक ज्वालामुखी गतिविधियां बढ़ती हैं, तो भारत को भी वायु प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ सकता है.

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