जगदीप धनखड़ के इस्तीफे ने विपक्षी खेमे के लिए नई चुनौती पेश कर दी है. मॉनसून सेशन की सारी तैयारियां धरी की धरी रह गई हैं. सत्ताधारी बीजेपी तो लग रहा है जैसे बैठकर तमाशा देख रही हो. विपक्ष उपराष्ट्रपति के रहस्यमय इस्तीफे पर सवाल खड़ा कर रहा है, और सत्ता पक्ष के खिलाफ हमलावर है.
विपक्षी साथियों के साथ कांग्रेस नेतृत्व तो संसद के स्पेशल सेशन की मांग पर ही अड़ा हुआ था. जब मॉनसून सेशन शुरू होने वाला था तो नये सिरे से तैयारियां शुरू हुईं. मॉनसून सेशन के लिए सत्ता पक्ष की तरफ से सर्वदलीय बैठक बुलाये जाने से पहले INDIA ब्लॉक की बैठक बुलाई गई. आम आदमी पार्टी तो पहले ही खुद को अलग कर चुकी थी, कांग्रेस के साथ मिलकर विपक्षी दलों के नेताओं ने सरकार को संसद में घेरने का प्लान बनाया.
पहलगाम अटैक और ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा के लिए सत्ता पक्ष तैयार भी हो गया, लेकिन हफ्ते भर बाद का टाइम मिला - और तभी अचानक जगदीप धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों से उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा देकर अलग ही कोहराम मचा दिया. ऊपर से चेयर पर न जाने और फेयरवेल स्पीच न देने की भी घोषणा कर दी.
विपक्षी दलों के कुछ नेता, खासकर कांग्रेस नेता जयराम रमेश और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव चाहते हैं कि जगदीप धनखड़ को ससम्मान विदाई दी जाये. विपक्ष इसलिए विदाई समारोह का पक्षधर नहीं है क्योंकि जगदीप धनखड़ के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान है, बल्कि इसलिए क्योंकि सत्ता पक्ष ऐसा बिल्कुल नहीं चाहता. 'हम भी चाय पीने आ जाते,' अखिलेश यादव तो ये कटाक्ष में ही बोल रहे हैं. जयराम रमेश ने BAC की बैठक में रिटायर हो रहे राज्यसभा सांसदों के साथ ही जगदीप धनखड़ को फेयरवेल दे देने का भी प्रस्ताव रखा, लेकिन बाद में मीडिया को बताया कि सत्ता पक्ष उसके लिए भी तैयार नहीं है.
विपक्ष के लिए सबसे बड़ा नुकसान ये है कि कहां वो बिहार में चल रहे SIR का मुद्दा उठाकर सरकार के खिलाफ हल्ला बोल करता, और कहां जगदीप धनखड़ के इस्तीफे की मिस्ट्री और फेयरवेल के बहाने सरकार की आलोचना करनी पड़ रही है. बिहार के वोटर लिस्ट पर बवाल सरकार को ज्यादा भारी पड़ता, जगदीप धनखड़ का मामला तो ज्यादा दिन चलने वाला भी नहीं है. बशर्ते, सत्ता पक्ष ऐसा न चाहता हो. अगर सत्ता पक्ष इसे लंबा खींचना चाहे तो पहलगाम और ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा के शुरू होने से पहले कोई खेल कर सकता है - अगर सत्ता पक्ष की तरफ से जगदीप धनखड़ के मामले में कोई ऐसा बयान आ जाये, जिससे एजेंडा सेट हो जाये और विपक्ष के लिए रिएक्ट करना मजबूरी हो जाये, तो सारी तैयारियां धरी की धरी रह जाएंगी.
मॉनसून सेशन से पहले तो नहीं, लेकिन बिहार चुनाव से पहले तो चुनाव आयोग राष्ट्रपति चुनाव करा ही सकता है. जैसे ही उपराष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया की शुरुआत होगी, विपक्ष के लिए नये सिरे से मुश्किलों का दौर शुरू हो जाएगा. 2022 के उपराष्ट्रपति चुनाव में क्या क्या हुआ था, आपको याद होगा ही.
जगदीप धनखड़ के इस्तीफे पर विपक्ष की उलझन
जिस तरीके से जगदीप धनखड़ को लेकर विपक्ष की भाषा बदली है, वो भी हैरान करने वाली है. कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने जिस तरह जगदीप धनखड़ को सत्ता पक्ष और विपक्ष के साथ बराबर व्यवहार करने वाले स्टेट्समैन के रूप में तारीफ की, कांग्रेस के भीतर ही हैरानी महसूस की गई. विरोध का स्वर शिवसेना (यूबीटी) प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी की तरफ से आया भी, विपक्ष को सभापति के पक्षपातपूर्ण आचरण के कारण ही अविश्वास प्रस्ताव लाने पर मजबूर होना पड़ा... कम से कम हमें ये बात नहीं भूलनी चाहिए, क्योंकि ये सरप्राइज के रूप में सामने आया है. कल तक जगदीप धनखड़ पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार का इल्जाम लगाने वाला विपक्ष अचानक बदल कैसे गया, क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि ये सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ हमला बोलने का बड़ा मौका साबित हो सकता है.
जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के तरीके पर सवाल खड़ा करने वालों में तो ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी शामिल है, लेकिन वो रस्मअदायगी जैसी ही लगती है. ऐसा लगता है जैसे पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी टीएमसी ने भी तमिलनाडु की रूलिंग पार्टी डीएमके ने चुप्पी साध ली हो - खास बात ये है कि दोनों ही राज्यों में अगले साल यानी 2026 में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. और, ये बात उपराष्ट्रपति चुनाव में महत्वपूर्ण भी होगी.
आम आदमी पार्टी ने तो विपक्षी खेमे से पहले ही खुद को अलग कर लिया है. अरविंद केजरीवाल तो जगदीप धनखड़ से जाकर मिल भी आये हैं, और उनकी सेहत का हालचाल पूछ आये हैं. दोनों तरफ से मुलाकात की जानकारी भी दी गई है.
संकेत तो ऐसे ही मिल रहे हैं कि जगदीप धनखड़ के मुद्दे पर विपक्ष वैसे एकजुट नजर नहीं आ रहा है, जैसे पहलगाम अटैक, ऑपरेशन सिंदूर और बिहार में SIR के मुद्दे पर नजर आया है - और अब तो नई चुनौती उपराष्ट्रपति का चुनाव है.
उपराष्ट्रपति चुनाव और INDIA ब्लॉक की मुश्किल
पांच साल बाद क्या हालात होते, ये तो अभी से नहीं कहा जा सकता. जब जगदीप धनखड़ का कार्यकाल पूरा होने के बाद चुनाव होता, लेकिन अभी तो एक बार फिर 2022 जैसे ही हालात पैदा हो गये हैं - और उपराष्ट्रपति पद के लिए संयुक्त उम्मीदवार का चुनाव INDIA ब्लॉक के राजनीतिक दलों के लिए नई चुनौती बनने जा रहा है.
आम आदमी पार्टी तो फिर से अपनी पुरानी पोजीशन में आ चुकी है. पहले कांग्रेस अरविंद केजरीवाल की पार्टी को अपने वाले विपक्षी खेमे से दूर रखती थी, इस बार आम आदमी पार्टी ने ही खुद को अलग कर लिया है. अब तक तो यही देखा गया है कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी भी विपक्षी उम्मीदवार को ही वोट देती आई है, क्योंकि सत्ताधारी बीजेपी से विरोध का मामला होता है.
दूर से ही सही, लेकिन लगता तो यही है कि उपराष्ट्रपति चुनाव इस बार भी अरविंद केजरीवाल एनडीए उम्मीदवार के खिलाफ ही वोट करेंगे. एक बदलाव की संभावना भी हो सकती है. हो सकता है बीजेपी के साथ साथ वो कांग्रेस के विरोध में भी खड़े हो जायें, और कोशिश करें कि गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी राजनीतिक दलों को मिलाकर कोई अलग उम्मीदवार ही मैदान में उतार दिया जाये. हो सकता है, के. चंद्रशेखर राव जैसे नेता साथ में खड़े भी हो जायें.
कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती अरविंद केजरीवाल नहीं, ममता बनर्जी हैं. अभी तक तो ममता बनर्जी कांग्रेस के साथ नहीं तो आस पास तो नजर आ ही रही हैं, क्या पता उपराष्ट्रपति चुनाव आते आते कोई नया पैंतरा अपना लें.
ममता बनर्जी का नया स्टैंड क्या होगा
2022 के राष्ट्रपति चुनाव में हालात ऐसे बने कि विपक्ष को को-ऑर्डिनेट करने की जिम्मेदारी ममता बनर्जी को निभानी पड़ी थी. सोनिया गांधी तबीयत ज्यादा खराब हो गई, और सारी चीजें ममता बनर्जी को हैंडओवर कर दी गईं. ये भी हुआ कि यशवंत सिन्हा को विपक्ष का उम्मीदवार बनाया गया, जो तब ममता बनर्जी को ही अपना नेता मानते थे.
ममता बनर्जी ने जरूरी बैठकें भी करती रहीं, बाद में लगा कि वो सब बेमन से कर रही थीं. क्योंकि यशवंत सिन्हा उनके पार्टी के होकर भी उनके पसंदीदा उम्मीदवार नहीं है. लेकिन ये सब समझ में तब आया जब उपराष्ट्रपति चुनाव की बारी आई. उपराष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस नेता मार्गरेट अल्वा को विपक्ष का उम्मीदवार बनाया गया था - और ममता बनर्जी ने वही दलील दी जो 2024 के आम चुनाव के बाद स्पीकर के चुनाव में दी थी, किसी ने टीएमसी से कंसल्ट नहीं किया.
सारी परिस्थितियां एक बार फिर उसी मोड़ पर पहुंच चुकी है, जिस मोड़ पर 2022 में थीं. सभी के अपने रिजर्वेशन हैं, अपने अपने राजनीतिक हित हैं, पसंद नापसंद हैं - और ऐसे हालात में सबसे बड़ी पार्टी होने खामियाजा राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ता है.
उपराष्ट्रपति चुनाव में हार जीत तो बाद की बात है, और बात नंबर की भी नहीं है. मुद्दा तो विपक्ष की तरफ से सत्ता पक्ष को चुनौती देने का है - लेकिन, उससे पहले एकजुट रह पाना ही विपक्ष की सबसे बड़ी चुनौती है.
मृगांक शेखर