बिहार में 70 साल में पहली बार हर सीट पर बढ़ी वोटिंग, जानिए ऐतिहासिक मतदान के पीछे की वजह

इस बार बिहार ने इतिहास रच दिया. विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 64.7 फीसदी लोगों ने वोट डाला यानी अब तक का सबसे ज्यादा मतदान. दिलचस्प ये है कि राज्य की हर एक सीट पर पिछले चुनाव से ज्यादा वोट पड़े. गांव से लेकर कस्बों तक लोग वोटिंग बूथ पहुंचने को लेकर पहले से कहीं ज्यादा उत्साहित दिखे. खास बात ये रही कि इस बार सबसे ज्यादा बढ़त दलित बहुल इलाकों में दर्ज हुई, जबकि शहरों में वोटिंग अब भी सुस्त रही.

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गांव बोले वोट दो, शहर रहे सुस्त: बिहार में रिकॉर्ड टर्नआउट ने सबको चौंकाया गांव बोले वोट दो, शहर रहे सुस्त: बिहार में रिकॉर्ड टर्नआउट ने सबको चौंकाया

दीपू राय

  • नई दिल्ली,
  • 07 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 7:51 PM IST

नवंबर की एक गर्म सुबह बिहार के कस्बों और गांवों में कुछ ऐसा हुआ जो पिछले 70 सालों में नहीं देखा गया था. पटना की भीड़भरी गलियों से लेकर गोपालगंज के धान के खेतों तक, हर जगह मतदाता बड़ी संख्या में वोट डालने पहुंचे. शाम तक जब आखिरी वोट पड़ा, तब तक बिहार ने 64.7 फीसदी मतदान दर्ज किया जो राज्य के इतिहास में अब तक का सबसे ज्यादा है. 

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लेकिन असली दिलचस्प बात तब सामने आई जब इसे 2020 के चुनाव से तुलना की गई. इस बार वोटिंग बढ़ी हर एक सीट पर. कुल 121 विधानसभा क्षेत्रों में एक भी जगह ऐसा नहीं था जहां मतदान घटा हो.

दलित सीटों पर रिकॉर्ड वोटिंग

डेटा बताता है कि सबसे ज्यादा उछाल अनुसूचित जाति (SC) के लिए आरक्षित सीटों में देखा गया. इनमें से 10 में से 7 सीटें ऐसी थीं जहां वोटिंग में दो अंकों से ज़्यादा की बढ़ोतरी दर्ज की गई. गोपालगंज जिले की भोरे सीट पर मतदान 54% से बढ़कर 70% के पार पहुंच गया यानी करीब 16 फीसदी की छलांग. समस्तीपुर की कल्याणपुर सीट पर 15.7 अंकों की बढ़त हुई, जबकि सहरसा की सोनबरसा सीट पर 14.6 अंकों की.

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दलित बिहार की 13 करोड़ आबादी का लगभग 19.5 फीसदी हिस्सा हैं. इस बार उनकी सक्रियता दोनों गठबंधनों के लिए निर्णायक साबित हो सकती है. एक तरफ सत्ता में मौजूद एनडीए (जेडीयू-भाजपा) है, तो दूसरी तरफ महागठबंधन (राजद-कांग्रेस). दोनों ने ही दलित मतदाताओं को साधने के लिए जमीन, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसे वादे किए हैं.

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शहरों में ठंडी रही वोटिंग

जहां गांवों में वोटिंग का जोश दिखा, वहीं पटना और दूसरे शहरों में रफ्तार धीमी रही. राजधानी पटना की कुम्हरार, बांकीपुर और दीघा सीटों पर वोटिंग 42 फीसदी से कम रही. कुम्हरार में तो turnout सिर्फ 39.6% रहा जबकि यही पटना के सबसे अमीर इलाकों में से एक है.  इसके विपरीत, ग्रामीण इलाकों में जैसे मीनापुर (मुज़फ्फरपुर) में मतदान 77.6% तक पहुंच गया, जो पूरे राज्य में सबसे अधिक है.
गांवों में वोटिंग एक सामाजिक आयोजन जैसी दिखी, यहां लोग परिवार के साथ बूथ तक पहुंचे.

ये अंतर अहम है क्योंकि शहरी और ग्रामीण वोटिंग पैटर्न में हमेशा फर्क रहा है. शहरों में आमतौर पर विकास और गवर्नेंस पर वोट पड़ता है, लेकिन कम टर्नआउट से इनकी आवाज़ कमजोर पड़ जाती है.

समस्तीपुर बना हाई-टर्नआउट बेल्ट का केंद्र

जब वोटिंग के आंकड़े मानचित्र पर रखे गए तो एक हाई-टर्नआउट बेल्ट उभर कर आई जो समस्तीपुर से लेकर बेगूसराय और मुंगेर तक फैली है. समस्तीपुर में आठ सीटों पर मतदान हुआ जिनमें सात पर डबल डिजिट ग्रोथ देखी गई. कल्याणपुर में 15.7 अंकों की बढ़ोतरी, मोहिउद्दीननगर में 14.4, वारिसनगर में 13 और उजीयारपुर में भी करीब 12 अंकों की वृद्धि.

वहीं दरभंगा में बढ़ोतरी सीमित रही, वहां केवल 4 अंकों की छलांग लगी. विश्लेषकों का मानना है कि शायद वहां के मतदाताओं को अपने गठबंधन की जीत तय लग रही थी, इसलिए जोश थोड़ा कम रहा. साल 2020 में एनडीए को सिर्फ 125-110 के मामूली अंतर से जीत मिली थी इसलिए इस बार कुछ सीटों का झुकाव परिणाम पलट सकता है.

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सात दशक का मतदान सफर

बिहार का पहला चुनाव 1951 में हुआ था जिसमें वोटिंग 42.6% थी. उस दौर के लिहाज से ये बहुत अच्छा माना गया क्योंकि तब साक्षरता दर बेहद कम थी. 1990 में मंडल आंदोलन के समय यह आंकड़ा 62% तक पहुंचा जब पिछड़ी जातियों की बड़ी आबादी लोकतंत्र से जुड़ी.

2000 के बाद वोटिंग लगभग ठहर गई थी, वहीं 50 के दशक में फंसी हुई.  2020 में ये 57.3% थी और अब 2025 में 64.7%, जिसने न सिर्फ 1990 का रिकॉर्ड तोड़ा, बल्कि मतदान व्यवहार में बड़ा बदलाव दिखाया. 

आखिर इतनी वोटिंग क्यों बढ़ी?

इलेक्शन कमीशन की तैयारी: 67,000 से ज़्यादा बूथ बनाए गए, कई दूरदराज इलाकों में भी. महिलाओं के लिए अलग कतारें, दिव्यांगों को प्राथमिकता दी गई.

लोकल सोशल मीडिया कैंपेन: दल और उम्मीदवारों ने व्हाट्सऐप, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर भोजपुरी, मैथिली, मगही में मैसेज भेजे.
युवा मतदाताओं में जोश दिखा.

कड़ा मुकाबला: जब चुनाव कड़ी टक्कर वाला होता है, तो लोग ज्यादा वोट डालते हैं. इस बार भी सर्वे कह रहे हैं कि मुकाबला नज़दीकी है.

नई सोच: खासतौर पर युवाओं में ये भावना बढ़ी है कि राज्य का भविष्य हमारे वोट पर निर्भर करता है. 

आगे क्या मतलब निकलेगा?

उच्च मतदान से ये पता नहीं चलता कि कौन जीतेगा, लेकिन ये जरूर बताता है कि मुकाबला दिलचस्प और गंभीर है. इतिहास बताता है कि साल 1990 में रिकॉर्ड वोटिंग से लालू प्रसाद यादव सत्ता में आए, फिर 2005 में जब वोटिंग घटी तो नीतीश कुमार ने राजद को बाहर किया. इस बार समीकरण और जटिल हैं क्योंकि नीतीश और भाजपा साथ हैं.

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लेकिन ट्रेंड साफ है. दलितों में जोश, शहरों में ठंडापन और इलाकाई फर्क है जो नतीजे की दिशा तय कर सकते हैं.  फिलहाल एक बात तो तय है कि बिहारी वोटरों ने इस बार सबको चौंका दिया. इतिहास में पहली बार हर सीट पर वोटिंग बढ़ी है. अब सबकी नज़रें 11 नवंबर को होने वाले दूसरे चरण पर हैं कि क्या वो चरण भी ऐसा ही रिकॉर्ड बनाएगा?

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