बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की सुनामी में महागठबंधन का किला पूरी तरह धराशायी हो गया है. एनडीए प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करती नजर आ रही है तो महागठबंधन की करारी हार सिर्फ सीटों का गणित नहीं, बल्कि तेजस्वी यादव की रणनीति और नेतृत्व पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं.
आरजेडी को अपने सियासी इतिहास में दूसरी सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा है. इसके चलते लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक वारिस माने जाने वाले तेजस्वी यादव का सियासी भविष्य भी अंधकारमय होता दिख रहा है.
तेजस्वी यादव के सामने ट्रिपल-पी यानि पार्टी, परिवार, पॉलिटिक्स और गठबंधन के पार्टनर के साथ संतुलन बनाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है. इतना ही नहीं असदुद्दीन ओवैसी को जिस तरह से मुस्लिम बहुल सीटों पर जीत मिली है, उसके चलते ही आरजेडी के परंपरागत वोट बैंक माने जाने वाले एम-वाई समीकरण (मुस्लिम-यादव) को अब जोड़े रखना आसान नहीं होगा?
तेजस्वी के लीडरशिप पर सवाल
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बिहार में महागठबंधन ने आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के अगुवाई में ही नहीं उतरी थी बल्कि उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करके चुनाव में उतरी थी. इसके चलते तेजस्वी यादव के सियासी नेतृत्व और उनके राजनीतिक कौशल की भी परीक्षा थी. बिहार चुनाव में महागठबंधन की हार की जिम्मेदारी तेजस्वी यादव के सिर बंधेगी, क्योंकि पूरे चुनाव अभियान को वो ही लीड करते नजर आए थे.
तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी को बिहार विधानसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ है. इससे पहले 2024 के लोकसभा चुनाव में भी आरजेडी के चुनाव अभियान की अगुवाई भी उनके ही हाथ में थी, उस समय आरजेडी को सिर्फ चार सीटें मिली थी और अब 26 सीटों पर सिमट गई है.
आरजेडी तेजस्वी यादव रणनीति के मामले में फेल साबित हुए. उन्होंने भले पूरे प्रदेश भर मे घूम-घूम कर चुनावी सभाएं की, लेकिन न आरजेडी को जिता सके और न ही महागठबंधन के साथी दलों के लिए संजीवनी बने. ऐसे में तेजस्वी यादव कि राजनीति का मूल्यांकन किया जाए तो उनके नेतृत्व में आरजेडी फिर 2010 वाली स्थिति में पहुंच गई है. इस तरह लालू प्रसाद यादव के सियासी विरासत को आगे बढ़ाने के सवाल पर तेजस्वी के लिए जूझना होगा.
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तेजस्वी के सामने पार्टी की चुनौती
बिहार की सियासत में लालू प्रसाद यादव ने जिस तरह से अपनी राजनीति खड़ी की और जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का गठन किया. इसके अलावा तीन बार बिहार की सत्ता पर भी विराजमान रहे. लालू यादव खुद सीएम बने और उन्होंने अपनी पत्नी रबड़ी देवी को भी सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाया.
लालू यादव की सियासत के सहारे ही तेजस्वी यादव भी कुछ-कुछ समय के लिए दो बार डिप्टी सीएम रहे, लेकिन 2025 के चुनाव में जिस तरह से नतीजे आए हैं, उसके चलते तेजस्वी को अपनी पार्टी में सियासी चुनौती का सामना करना पड़ा सकता है. सत्ता से बाहर होने के चलते तेजस्वी के लिए पार्टी नेता और कार्यकर्ता को जोड़े रखने के साथ-साथ आरजेडी के टिकट पर जीतकर आने वाले विधायकों को पार्टी के साथ साधकर रखने की चुनौती होगी.
2020 में जीतकर आए विधायकों में आधा दर्जन से भी ज्यादा साथ छोड़कर जेडीयू और बीजेपी के साथ चले गए थे. इससे पहले भी देखा गया है कि आरजेडी के तमाम विधायकों और एमएलसी ने पार्टी का साथ छोड़कर जेडीयू में शामिल हो गए थे. इसके चलते विधायकों को बचाए रखने के साथ-साथ कार्यकर्ताओं को विपक्षी के तेवर में बनाए रखने का चैलेंज होगा.
परिवार को एकजुट रखने का चैलेंज
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद तेजस्वी यादव के लीडरशिप पर सवाल खड़ा होने के साथ-साथ परिवार के अंदर से भी चुनौती खड़ी हो सकती है. विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी और परिवार दोनों से बेदखल किए जाने बाद तेज प्रताप यादव ने अपनी नई पार्टी बनाकर बगावत का झंडा उठा लिया था. महुआ सीट पर चुनाव लड़े, लेकिन उन्हें करारी मात खानी पड़ी. इस हार तेज प्रताप यादव को आक्रामक कर दिया है और तेजस्वी का नाम लिए बगैर हमले शुरू कर दिए.
तेज प्रताप ने कहा कि बिहार ने यह साफ संदेश दे दिया है कि अब राजनीति परिवारवाद की नहीं, सुशासन और शिक्षा की होगी. ये जयचंदों की करारी हार है. इन जयचंदों ने आरजेडी को भीतर से खोखला कर दिया, बर्बाद कर दिया. इसी वजह से आज तेजस्वी यादव फेलस्वी हो गया. जिन्होंने अपनी कुर्सी और अपनी राजनीति बचाने के लिए अपने ही घर को आग लगा दी, इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा.
तेज प्रताप यादव खुद को लालू का असली उत्तराधिकारी बता रहे. तेज प्रताप ने तेजस्वी को 'झुनझुना' कहकर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया. आरजेडी सुप्रीम लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी बहुत ज्यादा सक्रिय नहीं है. तेजस्वी यादव की बड़ी बहन मीसा भारती पटना साहिब सीट से लोकसभा सांसद हैं और सारण से चुनाव लड़ने वाली दूसरी बहन रोहिणी आचार्य राजनीति में एक्टिव हैं. रोहिणी आचार्य चुनाव के दौरान अपनी नाराजगी जाहिर कर चुकी हैं. ऐसे में अब तेजस्वी के सलाहकारों को लेकर परिवार के अंदर से आवाज उठ सकती है, जिनको लेकर तेज प्रताप पहले से आक्रामक हैं. ऐसे में तेजस्वी परिवार के भीतर की चुनौतियों से भी निपटना पड़ सकता है.
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पार्टनर के साथ संतुलन रखने का
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने महागठबंधन की गांठ को उजागर कर रखा दिया है. चुनाव के शुरू होते ही आरजेडी और कांग्रेस के बीच नेतृत्व, समन्वय और चेहरे को लेकर विवाद हुए. चुनाव के पहले जब राजनीतिक दलों को सीटों के तालमेल से लेकर प्रचार की रणनीति तक पर काम करते हैं, उस वक्त महागठबंधन के तमाम सहयोगी दल सीटों की खींचतान, मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के फेस जैसे मामलों को लेकर आपस में उलझे रहे.
महागठबंधन का एक बड़ा स्तंभ होने के बावजूद कांग्रेस इस चुनाव में बोझ साबित हुई. महागठबंधन में टिकट वितरण को लेकर भारी नाराजगी दिखी और कई सीटों फ्रेंडली फाइट ने स्थानीय समीकरण को बिगाड़ दिया.आरजेडी-कांग्रेस के बीच सीट शेयरिंग को लेकर गहरे मतभेद शुरू से अंत तक बने रहे, नतीजा यह हुआ कि संयुक्त लड़ाई कमजोर, बिखरी और अविश्वसनीय दिखी. ऐसे में हार का ठीकरा महागठबंधन में एक दूसरे पर फोड़ते नजर आएंगे.
बिहार में कांग्रेस लंबे समय से अपने आपको मजबूत करने का प्रयास करती रही है, लेकिन आरजेडी उसे सियासी स्पेस नहीं दे रही. ऐसे में अब इस चुनाव में मिली हार के बाद कांग्रेस और आरजेडी एक ही जगह पर खड़े हैं. ऐसे में गठबंधन पर सवाल खड़े होंगे तो अब यह देखना रोचक होगा कि तेजस्वी यादव किस तरह से अपने राजनीतिक पार्टनर को साथ लेकर चलते हैं. कांग्रेस के साथ रिश्तों में खटास बढ़ सकती है तो माले भी अपनी अलग सियासी राह पकड़ सकती है.
आरजेडी की पॉलिटिक्स बचाने की चुनौती
बिहार में आरजेडी की सियासत का आधार एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण शुरू से रहा है. इस समीकरण के सहारे लालू यादव बिहार की सत्ता में 15 साल तक राज किया, लेकिन इस बार चुनाव में एम-वाई समीकऱण में सेंधमारी होती दिखी है. अब यादव-मुस्लिम वोट बैंक को बचाने की जद्दोजहद का सवाल तेजस्वी के सामने खड़ा हो सकता है. इसकी वजह यह है कि असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM ने पांच सीटें बिहार में फिर जीतने में सफल रही है.
बिहार में 18 फीसदी के करीब मुस्लिम वोटर हैं. मुस्लिम बहुल क्षेत्र सीमांचल में दूसरी बार ओवैसी की पार्टी ने अपना प्रदर्शन दोहराया है. इतना ही नहीं कई सीटों पर जेडीयू के साथ भी मुस्लिम मतदाता खड़े नजर आए हैं. कांग्रेस और आरजेडी की दोस्ती को नजर अंदाज करके मुसलमानों का झुकाव ओवैसी और जेडीयू की तरफ होना तेजस्वी यादव के लिए चिंता का सबब बन गया है. ओवैसी के बढ़ते ग्राफ से आरजेडी के मुस्लिम नेताओं की भी झुकाव AIMIM की तरफ हो सकती है. ऐसे तेजस्वी के सामने मुस्लिमों को साधकर रखने का चैलेंज है.
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वहीं, बिहार में 16 फीसदी के करीब यादव मतदाता है, जिनके कभी नेता लालू प्रसाद यादव हुआ करते थे. इसके चलते नए यादव क्षत्रपों का उदय हुआ, लेकिन आरजेडी और लालू के कमजोर होने के बाद ये क्षत्रप अब उनके पारिवारिक वर्चस्व को चुनौती देने लगे हैं. रामकृपाल यादव, प्रह्लाद यादव, नित्यानंद राय, राज बल्लभ यादव और पप्पू यादव जैसे यादव नेता अब बिहार की राजनीति में अपनी जगह सुनिश्चित करने में लगे हैं. इसके चलते तेजस्वी यादव के लिए यादव वोटों पर अपनी पकड़ को बनाए रखना की चुनौती खड़ी हो जाएगी.
बिहार का चुनावी नतीजा
बिहार की 243 सीटों में से एनडीए 204 सीटें जीत रही तो महागठबंधन 33 सीटों पर सिमट गई है. एनडीए में बीजेपी 94 सीटें, जेडीयू 81 सीटें, एलजेपी (आर) 19 सीट, हम 5 सीट और आरएलएम 4 सीट जीत रही है. वहीं, महागठबंधन में 26 सीटें आरजेडी, कांग्रेस 4 सीटें और तीन सीटें वामपंथी दल को मिलती नजर आ रही. इसके अलावा असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी 6 सीटें और एक सीट बसपा को मिलती दिख रखी.
कुबूल अहमद