वाराणसी कोर्ट ने ज्ञानवापी के व्यास तहखाने में पूजा करने की अनुमति दे दी है, जिसके बाद देर रात तहखाने में पूजा हुई. कोर्ट के इस फैसले में 30 जुलाई, 1996 के एक एडवोकेट कमिश्नर की रिपोर्ट ने अहम रोल निभाया है. व्यास परिवार की ओर से शैलेंद्र कुमार पाठक लगातार तहखाने के अधिकार और उसमें पूजा-पाठ की कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे. शैलेंद्र पाठक व्यास परिवार के ही वंशज हैं.
वाराणसी कोर्ट के जज एके विश्वेस ने 31 जनवरी को दिए अपने फैसले में एडवोकेट कमिश्नर की उस रिपोर्ट को स्वीकार किया है, जिसमें बताया गया है कि तहखाना के दक्षिणी द्वार पर दो ताले लगे थे. पहला ताला व्यास परिवार का था, जबकि दूसरा ताला प्रशासन का था. एडवोकेट कमिश्नर 30 जुलाई, 1996 को इसके सर्वे के लिए पहुंचे थे तो व्यास परिवार ने अपना ताला खोल दिया था, लेकिन प्रशासन ने अपना ताला नहीं खोला था, जिसकी वजह से कमिश्नर तहखाने के भीतर नहीं जा पाया था.
1993 तक तहखाने में पूजा करता था व्यास परिवार
व्यास परिवार इस तहखाने में पूजा पाठ करता था, लेकिन 1993 में चारों ओर से लोहे के पार लगाए गए तो तहखाने का रास्ता बंद कर दिया गया था और वो इसी को खुलवाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहा था.
व्यास परिवार और शैलेंद्र पाठक की ओर से बताया गया कि पहले यहां दरवाजा हुआ करता था, जिसमें हिंदू धर्म से जुड़ी प्राचीन मूर्तियां और प्रतीक चिह्न पहले से मौजूद थे, लेकिन प्रशासन ने बाद में वह दरवाजा हटा दिया था.
मुस्लिम पक्ष की ओर से क्या कहा गया?
उधर अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमिटी ने कहा है कि व्यास परिवार के किसी सदस्य ने तहखाना में कभी पूजा नहीं की इसलिए 1993 में पूजा रोकने का कोई सवाल ही नहीं था. मस्जिद कमेटी का यह भी कहना है कि इस तहखाना में कभी कोई मूर्ति थी ही नहीं. व्यास परिवार के लोग तहखाना पर काबिज थे. मस्जिद कमेटी का यह भी दावा है कि यह पूरा तहखाना कमेटी के कब्जे में ही रहा है जहां किसी देवी देवता की मूर्ति कभी नहीं रही.
मसाजिद कमेटी ने जज के सामने अपनी दलील में 1991 के प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट का भी हवाला दिया था. जिसमें कहा गया था कि तहखाने पर सुनवाई ही नहीं की जा सकती है यह मस्जिद का हिस्सा है.