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क्‍यों बन जाता है कोई बलात्‍कारी?

चमकता फिल्मी सितारा. पड़ोस का लड़का. आपका शिक्षक. आपका प्रेमी तक. अगर उसमें औरत के प्रति गहरा पूर्वाग्रह दबा है, वह यौन हिंसा करता रहा हो या उसका बचपन मुश्किलों भरा रहा हो तो वह बलात्कारी बन सकता है, यह निष्कर्ष है एक नए शोध का.

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{mosimage}हर रोज खबरों की सुर्खियां नई दहशत पैदा करती हैं. 12 जून को सूरत में तीन लड़कों ने चलती कार की पिछली सीट पर 12वीं कक्षा की एक लड़की के साथ बारी-बारी से बलात्कार किया और अपनी इस हैवानियत को मोबाइल फोन में कैद कर लिया. इसके दो दिन ही बाद भारत इस खबर के साथ जागा कि अभिनेता शाइनी आहूजा ने अपनी उम्र और कद-काठी में आधी 18 वर्षीया नौकरानी के साथ बलात्कार किया. 19 जून को एक 19 वर्षीया कॉलेज छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, इससे पहले छात्रा के ब्वॉयफ्रेंड और उसके दोस्तों ने लड़की के साथ यौन संबंधों की एमएमएस तैयार कर एमएमएस क्लिप वितरित की थी.

विदेशियों की भी कद्र नहीं
उसी दिन एक ब्रिटिश स्वयंसेवी संस्था की कार्यकर्ता को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में दो टैक्सी ड्राइवरों ने बुरी तरह अपमानित किया. और 22 जून को देश की बलात्कार राजधानी, दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके की एक महिला ने आरोप लगाया कि उस रोज दोपहर में छह पुलिसवालों ने थाने में उसके साथ बलात्कार किया. यानी तारीख बदलती रहती है, अपराध वही रहता है.
 
घृणित यौन हिंसा की वजह?
आखिर क्या कारण है कि सफलता की सीढ़ियां चढ़ता एक अभिनेता और वासना से उत्तेजित कुछ युवा घृणित यौन हिंसा पर उतर आते हैं? क्या इसकी वजह सिर्फ काम वासना है? या यह महिलाओं के खिलाफ आक्रोश की अभिव्यक्ति है? ये नर पिशाच आखिर कौन हैं? दिल्ली की स्वयंसेवी संस्था स्वंचेतन द्वारा पांच सालों में तिहाड़ जेल के 242 कैदियों पर किया गया गहन अध्ययन बलात्कारी के मन में झांक कर यह निष्कर्ष निकालता है कि बलात्कारी कोई भी हो सकता है. इससे भी अधिक चिंता की बात-राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक-यह है कि 92 फीसदी मामलों में बलात्कार करने वाला पीड़ित महिला का परिचित हो सकता है, जिस पर वह भरोसा करती है.

महिलाओं के प्रति नफरत का नतीजा
स्वंचेतन ने जिन बलात्कारियों का अध्ययन किया, वे पकड़े जाने से पहले कई बलात्कार कर चुके थे, औसतन चार. इन सभी के मन में महिलाओं के प्रति गहरी नफरत थी. वे  आदतन उनके प्रति अपमानजनक और अश्लील गालियों का प्रयोग करते थे. अपने शिकार पर यौन फंतासियां आजमाने की कभी न मिटने वाली भूख भी उनमें पाई गई. अधिक आनंद और रोमांच के लिए शिकार की तलाश में ये नई-नई जगहों पर भी जाते. सो, हैरत की बात नहीं कि 70 फीसदी से अधिक में मनोरोगियों वाले लक्षण पाए गए. इससे इस बात का खंडन होता है कि बलात्कार स्वस्थ मानसिकता वालों द्वारा किया गया विकृत अपराध है. स्वंचेतन द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि 68 फीसदी अपराधियों का बचपन असामान्य रहा था, जिसे दिल्ली के मनोचिकित्सक जितेंद्र नागपाल ''बाल यौन शोषण का विस्तार'' कहते हैं.
 
आम तौर पर परिचित ही शामिल
बलात्कारी आम तौर पर पीड़िता के परिचित होते हैं. उनका भी ऐसे ही यौन शोषण का इतिहास होता है. रिजर्व पुलिस के पूर्व हवलदार उमेश रेड्डी का ही मामला लें, जिसे महिलाओं से बलात्कार और उनकी हत्या के 20 से ज्‍यादा अपराधों में दोषी पाया गया. 11 साल चले मुकदमे के बाद फरवरी में हाइकोर्ट ने उसे फांसी की सजा सुनाई.{mospagebreak}सूरत और मुंबई के मामलों से जाहिर होता है कि गिरोह में होने पर ऐसे अपराधी खुद को अधिक ताकतवर महसूस करते हैं. सामूहिक बलात्कारों में एक नेता होता है, जो शुरुआत करता है. वह वहां मौजूद सभी को उस अपराध में शामिल होने को उकसाता है ताकि कोई भी मामले की रिपोर्ट न कर सके. उनके चेले होते हैं जिन्हें ये शामिल होने को कहते हैं. 2005 में यही हुआ था जब छह लोगों ने दिल्ली के नजफगढ़ इलाके में डिपो में खड़ी एक बस में 16 वर्षीया लड़की के साथ बलात्कार किया था. यहां दो बलात्कारियों ने पहल की, लड़की को बेरहमी से पीटते हुए उसके साथ बलात्कार किया, और उनमें से एक ने जब दूसरों को रोकने की कोशिश की तो उसे भी लड़की से दुष्कर्म करने को मजबूर किया.

सहज शिकार की तलाश
{mosimage}अधिकतर बलात्कारी ऐसे पेशे को तरजीह देते हैं, जहां उन्हें सहज शिकार मिल जाते हैं. मसलन, अध्यापन, डॉक्टरी, अनाथालयों में प्रशासन, यहां तक कि आध्यात्मिक गुरु बनना भी. दिल्ली में 2003 का एक किस्सा लें, जहां दो बेटियों के पिता, 54 वर्षीय डॉक्टर को 13 वर्षीया किशोरी के साथ बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार किया गया. लड़की वसंत विहार में डॉक्टर के निजी नर्सिंग होम में टीबी के इलाज के लिए आई थी और कमरे के बाहर उसके साथ आई उसकी एक रिश्तेदार भी मौजूद थी. 2007 में पूर्वी दिल्ली में 44 वर्षीय विवाहित निजी ट्यूटर ने 17 वर्षीया लड़की के साथ बलात्कार करने से पहले उसे मुख यौनाचार के लिए मजबूर किया, उसे फुसलाया कि इससे पढ़ाई में एकाग्रता बढ़ती है. इसी साल फरवरी में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में 15 वर्षीया लड़की के अध्यापक अजीत कुमार सिंह ने लड़की को दो दिन तक कैद करके रखा और उससे बलात्कार किया. मुंबई के मनोचिकित्सक हरीश शेट्टी कहते हैं कि कोई भी सुरक्षित नहीं है, ''इस भूमंडलीय विश्व में जो भी ताकतवर होगा वह कमजोर पर निशाना साधेगा.''

खतरे में महिलाओं की सुरक्षा
तो इसमें आश्चर्य क्या कि ऐसे तीव्र सामाजिक बदलाव के माहौल में भारत अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के बाद महिलाओं के लिए सर्वाधिक असुरक्षित देश बन गया है. गृह मंत्रालय द्वारा 2008 में जारी आंकड़े तो यही कहते हैं, जबकि नागपाल के मुताबिक, यौन शोषण के एक चौथाई मामले ही दर्ज किए जाते हैं. यह भी हैरानी की बात नहीं है कि बलात्कार भारत के तेजी से बढ़ते अपराधों में एक है. 1971 में जब एनसीआरबी ने ऐसे मामलों का रिकॉर्ड रखना शुरू किया, तब प्रतिदिन औसतन सात बलात्कार होते थे. अब यह आंकड़ा 57 पर जा पहुंचा है और इस तरह इसमें 800 प्रतिशत वृद्धि हो गई है. इसके विपरीत, दूसरे अपराधों में 1953-जब एनसीआरबी ने रिकॉर्ड रखना शुरू किया-से 300 फीसदी वृद्धि ही हुई है.
 
सांप्रदायिक बलात्‍कार भी मुमकिन
भारत में बलात्कार सांप्रदायिक भी हो सकता है, जैसाकि सूरत के सामूहिक बलात्कार मामले में सामने आया, जहां अपराधी युवा मुस्लिम लड़के थे जिन पर सिटी अस्पताल में उत्तेजित भीड़ ने हमला किया, उन्हें यहां पुलिस मेडिकल चेकअप के लिए लाई थी. बलात्कार राजनैतिक शक्ल भी अख्तियार कर लेता है जैसाकि जम्मू-कश्मीर के छोपियां में हुआ, जहां 22 वर्षीया नीलोफर जान और उनकी 17 वर्षीया ननद आशिया के शव नाले से निकाले गए. यह हमेशा ही अमानवीय होता है, और बेरहम तरीके से योजनाबद्ध भी, जहां ताकत की जगह मनोवैज्ञानिक या भावनात्मक दबाव से अपराध को अंजाम दिया जाता है.

भरोसे के रिश्‍ते से भी खतरा
इस तरह का दबाव तब और आसान हो जाता है जब पहले से विश्वास और भरोसे का रिश्ता हो. 2007 में गाजियाबाद में ऐसा ही हुआ, जब 17 वर्षीया लड़की के रिश्ते के  21 वर्षीय भाई ने लड़की से बलात्कार करने से पहले भावनात्मक रूप से दबाव डालने के लिए कई तिकड़में अपनाईं-उसे होमवर्क करने में मदद से लेकर किशोरवय के मुद्दों पर विचार-विमर्श तक. या फिर जैसा कि मुंबई में अब मीरा रोड बलात्कार के रूप में जाने जाने वाला मामला जिसमें अभियुक्त पराग म्हात्रे ने पीड़िता को कथित रूप से सात महीनों तक फुसलाया, यहां तक कि उससे शादी का वादा भी किया. मुंबई के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त (अपराध शाखा) देवेन भारती कहते हैं, ''बलात्कार कभीकभार ही आवेश में किया गया अपराध होता है. बलात्कारी स्थिति का फायदा उठाता है और मानता है कि पीड़ित महिला शारीरिक या मानसिक रूप से उस पर भारी नहीं पड़ सकती.''{mospagebreak}फोरेंसिक मेंटल हेल्थ एसोसिएट्स के निदेशक, अमेरिकी मनोवैज्ञानिक निकोलस ग्रॉथ अपनी प्रैक्टिस के 25 सालों में 3,000 से अधिक यौन अपराधियों की जांच कर चुके हैं. उन्होंने बलात्कार की तीन तरह से पहचान की है- गुस्से में किया गया बलात्कार, ताकत का प्रदर्शन, और शोषण. स्वंचेतन का अध्ययन भी इसके काफी करीब है, जिसमें इस अपराध की तीन श्रेणियां बनाई गई हैं-हिंसक, परपीड़क और जानलेवा. इसके वर्गीकरण के अनुसार बलात्कार के 45 फीसदी मामले अत्यधिक हिंसक होते हैं, जिनमें पीड़िता को गंभीर चोटें पहुंचाई जाती हैं और शरीर को क्षत-विक्षत कर दिया जाता है. 15 फीसदी मामलों में बलात्कारी परपीड़क हरकतों पर उतारू हो जाता है, जिनमें पीड़ित का बचाव के लिए संघर्ष उसे और उकसाता है.

केस के डर से हत्‍या का खतरा 
{mosimage}5 फीसदी मामलों में अपराध दर्ज किए जाने के भय से पीड़ित की हत्या कर दी जाती है. 2007 में नजफगढ़ में हुए बलात्कार के मामले में ऐसा ही हुआ जिसमें एक निर्माण स्थल पर बलात्कार करते हुए अपराधी ने अपने हाथ से लड़की की आंख ढक दी थी. उसने बताया, 'मुझे उसकी आंखों में याचना दिख रही थी कि मैं उसे न मारूं. यह मुझे परेशान कर रही थी.'' हर मामले में उकसाने वाला तत्व ताकत का प्रदर्शन होता है, कामुकता नहीं. महिला अधिकारों की वकील फ्लाविया एग्नेस कहती हैं, ''यह समझ पाना मुश्किल है कि औरत को .जलील करने और नफरत जाहिर करने के  लिए सेक्स को एक हथियार की तरह कैसे इस्तेमाल किया जाता है.''


अपराध को मिला तकनीक का सहारा
अपराध को अब आधुनिक तकनीक का सहारा मिल गया है, जो अपराध प्रवृत्ति को संतुष्ट करने का वादा करती है. बलात्कार की फिल्म बनाने के लिए मोबाइल फोन और उसे वितरित करने के लिए डिजिटल फॉर्मेट के इस्तेमाल ने फलता-फूलता पोर्नोग्राफी उद्योग तैयार कर दिया है, जिस तक डीवीडी लाइब्रेरी और इंटरनेट कैफे के जरिए पहुंचा जा सकता है. असल में आपराधिक प्रवृत्ति के बीज बचपन में ही पड़ जाते हैं, जब बच्चे बड़े परदे पर खूनखराबे वाली फिल्में देखकर या वीडियो गेम के जरिए दूसरों के प्रति हिंसा के प्रदर्शन को आत्मसात करने लगते हैं. नागपाल कहते हैं, ''परदे पर हिंसा बच्चों को दूसरों की पीड़ा के प्रति असंवेदनशील बना देती है.'' यह बलात्कारी बनने का पहला पड़ाव बन जाता है, जो अपने पीड़ित को शारीरिक पीड़ा पहुंचाकर सुख का अनुभव करता है.

पोर्न फिल्‍मों का भी असर
अहमदाबाद के जाने-माने मनोवैज्ञानिक प्रशांत भिमाणी पुष्टि करते हैं कि आजकल 13 साल के बच्चे इंटरनेट पर पोर्न फिल्में देखते हैं, जबकि 10 साल पहले यह सिर्फ शादीशुदा दंपतियों या कॉलेज के छात्रों तक ही सीमित था. भिमाणी कहते हैं, ''एक ओर तो केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को बड़े परदे पर जरूरत से ज्‍यादा सेक्स पेश करने पर रोक लगानी चाहिए, दूसरी ओर माता-पिता को बच्चों पर कड़ी नजर रखने की जरूरत है कि वे घर में क्या देखते हैं.'' अमेरिका में नव संरक्षणवादी समूहों के पास इस आशय का डाटा उपलब्ध है. नेशनल कोलिशन ऑन टेलीविजन वायलेंस के मुताबिक, हॉलीवुड की आठ में से एक फिल्म में बलात्कार दिखाया जाता है और 18 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते एक औसत अमेरिकी हिंसा के ढाई लाख और हत्या के प्रयास के 40,000 कारनामे देख चुका होता है.
 
बराबरी के दर्जे से बढ़ी मौजूदगी
इनमें महिलाओं की बढ़ती स्वतंत्रता को और जोड़ दीजिए, जो बराबरी का दर्जा पाकर हर जगह मौजूद दिखती हैं. कम-से-कम सिद्धांत रूप में, क्योंकि प्रायः ही समाज इन युवा महिलाओं के अधिकारों की रक्षा में सक्षम नहीं है. एनसीबी आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार की शिकार महिलाओं में आधी से अधिक 18 से 30 साल की उम्र की होती हैं. यहां तक कि कम उम्र की बच्चियां भी सुरक्षित नहीं हैं. {mospagebreak}इस मई में राजकोट में सामने आया एक मामला गौरतलब है. वहां दियाबा नाम की 15 वर्षीया लड़की एक केटरर के साथ काम करती थी. उसे उसी ऑटोरिक्शा ड्राइवर दिलावर ने अपहृत कर लिया, जिसमें वह आती-जाती थी. बाद में दो अनजान लोग उनके साथ आ मिले और उसे जबरदस्ती नींद की सुई दे दी. जब उसे होश आया तो उसने खुद को अहमदाबाद में एक कमरे में पाया. उसके बाद तीनों लोग 18 दिन तक उसके साथ बलात्कार करते रहे, अंत में एक दिन वह उनके चंगुल से भाग निकली. दिलावर तो पकड़ा गया लेकिन शेष दोनों बलात्कारी अभी लापता हैं.

मामले निबटाने की दर बेहद कम
{mosimage}ऐसे पुरुषों को कायर बनने का साहस इसलिए मिलता है कि अदालतों द्वारा बलात्कार के मामले निबटाने की दर बेहद कम है. एनसीआरबी के मुताबिक, दर्ज मामलों में सिर्फ 18 फीसदी को सजा मिल पाती है. यहां तक कि बहुचर्चित मामलों में भी अपराधी बच निकलते हैं. 2003 का मामला लें, जहां एक स्विस कूटनयिक को दिल्ली में सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम के बाहर से उठा लिया गया था और चलती कार में दो लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया था. बेशक भारत के लिए यह बहुत शर्मिंदगी दिलाने वाला मामला था, जिसमें वहां की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार दर्जन भर पुलिसवालों को ड्यूटी में लापरवाही बरतने के लिए निलंबित किया गया. हालांकि पुलिस ने भारी तलाश की, यहां तक कि अपराधियों पर 6 लाख रु. का पुरस्कार भी रखा लेकिन अपराधी पकड़े नहीं गए. पांच साल बाद पुलिस ने दिसंबर, 2008 में मामला बंद कर दिया.

कई मामले अदालतों में लंबित
एक अन्य चर्चित मामले में भी सजा मिलनी बाकी है. 2006 में श्रीराम मिल्स के मालिकों के वंशज अभिषेक कासलीवाल ने 52 वर्षीया महिला को दक्षिण मुंबई से अपनी कार में लिफ्ट दी. वह महिला को उपनगर वर्ली स्थित मिल परिसर में ले गया, जहां कथित रूप से उसके साथ बलात्कार किया. वह जेल में एक महीना ही रहा और बॉम्बे हाइकोर्ट ने उसे जमानत दे दी. फैसले का अभी इंतजार है, हालांकि पीड़ित ने अदालत में इसकी पुष्टि भी की. कलिना, मुंबई में अपराध विज्ञान प्रयोगशाला से मिली डीएनए रिपोर्ट के पहले सेट में तो कासलीवाल को दोषी नहीं पाया गया लेकिन जब वीर्य के नमूने डीएनए फिंगर प्रिंटिंग और जांच के लिए हैदराबाद के सेंटर फॉर डीएनए फिंगर प्रिंटिंग ऐंड डायगनोस्टिक्स में भेजे गए तो कासलीवाल को बलात्कार का दोषी पाया गया. शेट्टी कहते हैं, ''असल में कानून का डर नहीं रह गया है, क्योंकि जो थोड़े से मामले दर्ज होते हैं उनमें भी न्याय नहीं किया जाता.''

कई चुपचाप झेल लेती हैं अत्‍याचार
बंगलुरू की युवा और होनहार प्रतिभा श्रीकांत मूर्ति का मामला इसकी मिसाल है. हेवलेट पैकार्ड में काम करने वाली मूर्ति से बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी. फास्ट ट्रैक अदालत में मामला तीन साल के बाद भी सुलझ नहीं पाया है. कर्नाटक राज्‍य महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष प्रमिला नेसारगी बताती हैं कि यह तो ढेर सारे मामलों का एक अंश भर है, ''बलात्कार की पीड़ित हर महिला, जिसका मामला चर्चित होता है, के पीछे ऐसी बहुत- सी पीड़ित होती हैं जो चुपचाप इस अत्याचार को झेलती हैं. सामाजिक कलंक जुड़े होने की वजह से इनमें से कई तो मामले को सार्वजनिक नहीं होने देना चाहतीं.'' अधिक चिंता की बात यह कि बलात्कारी के साथ ऐसा कोई कलंक नहीं जुड़ा होता.{mospagebreak}बलात्कार के आरोप में तिहाड़ जेल में बंद 39 कैदियों से, जो पढे़-लिखे, मुखर, मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि वाले हैं, बात करने पर स्वंचेतन के निदेशक रजत मित्रा ने पाया कि ''इस बारे में बात करने पर वे शेखी बघारते लगे.'' अब ऐसी घिसी-पिटी मानसिकता से पुरुष महिलाओं का आदर करना कैसे सीखेंगे? द इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वुमन द्वारा हाल का एक अध्ययन बताता है कि  पंजाब के 80 फीसदी लोगों का मानना है कि यदि पत्नियां इज्‍जत न करें तो हिंसा जायज है. और 60 फीसदी का मानना है कि यदि पत्नियां कहना न मानें तो हिंसा का प्रयोग गलत नहीं है.

रसूख वाले लोग भी पीछे नहीं
मित्रा एक अधेड़ नेता का किस्सा बताते हैं, जिसने परामर्श सत्र के दौरान बताया कि वह किसी महिला से ना नहीं सुन सकता. एक बार जब एक पार्टी में उसने एक महिला से यौन संबंध बनाने का प्रस्ताव रखा तो उसके  ना कहने से वह विचलित नहीं हुआ बल्कि तीन दिन बाद अपने सुरक्षाकर्मी की मदद से उसके घर में घुसा और उसके साथ बलात्कार किया. वह शेखी बघारता है, ''उसने जरा भी प्रतिरोध नहीं किया, न ही मामले की पुलिस में रिपोर्ट की बल्कि शहर छोड़ कर जाने में ही अपनी भलाई समझी.''

चौकस रहना होगा महिलाओं को
तो क्या यह दायित्व महिलाओं का है कि वे चौकस रहें? पूर्व पुलिस अधिकारी और अपराध विज्ञान विशेषज्ञ किरण बेदी की विवादास्पद दलील है- हां, ''ऐसे अपराधों में जहां कुकर्मी अपराध करने पर उतारू है, शारीरिक दृष्टि से कमजोर महिलाओं को ऐसे मामले रोकने होंगे. 80 फीसदी मामलों में बलात्कार के मामले टाले जा सकते हैं. मसलन रेव पार्टियों में, जहां मादक दवाएं और शराब खूब पी-पिलाई जाती है, जाना असल में बलात्कार के जाल में खुद फंसना है.'' जहां बलात्कार के बहुत कम मामले दर्ज किए जाते हों, न्याय भी न मिल पाता हो और महिलाओं के प्रति पक्षपात की जड़ें बहुत गहरी हों, ऐसे परिवेश में तो इसमें जरा भी हैरानी नहीं होनी चाहिए कि अपराधी का दिल और दिमाग असल में समाज की हर बुराई का प्रतिबिंब होता है.

 -साथ में उदय माहूरकर, स्वाति माथुर और स्टीफन डेविड

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