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विश्व कप का सपना

भले चार साल में एक बार खेला जाए, पर विश्व कप क्रिकेट से हमारा बेहतरीन रिश्ता कायम करता है. विश्व कप ऐसा मौका है जो हमें यादों के झरोखे में झांकने को मजबूर कर देता है, जब अतीत की यादें आलस की प्रतीक नहीं रह जातीं और इतिहास के पन्नों की धूल झाड़ना लाजिमी हो जाता है.

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उस गहरे अंधेरे में झांकते हुए मैं देर तक वहां खड़ा सोचता, डरता, संदेह करता रहा,
और ऐसे ख्वाबों में खोया रहा, जो पहले कोई देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका.

जब गहरी अंधेरी रात में, चैंपियन खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय खेल के असंभव-से नजर आने वाले दबावों में खुद को झोंकने और खेल की बारीकियों में दिमाग को खपाने के बाद बिस्तर पर आराम फरमाने की कोशिश करता है तो वह किस तरह के ख्वाबों की दुनिया में गोते लगाता है? क्या वह सफलता के सपने संजोता है, व्यक्तिगत वैभव की दुनिया में विचरता है या ख्वाबों की दुनिया भयानक अंदेशों से सराबोर होती है? आखिर ऐसा क्या है, जो अगली सुबह उन्हें मन में जीत की भूख और उत्साह लिए अपने हाथ-पैर और दिमाग को फिर से इस संघर्ष में झोंकने के लिए तैयार रहने की भावना के साथ नींद से जगाता है? क्या वे कभी अपने सपनों में ऐसा भी देखते हैं कि दूसरे लोग उनकी राह पर चलने के ख्वाब देखते हैं?

21 जून, 1975 की सुबह जब क्लाइव लॉयड की आंख खुली तो वे क्या सोच रहे थे? या आठ साल बाद जून की ही एक दोपहर जब कपिल देव ने टनब्रिज वेल्स में अपनी आंखें खोलीं तो उनके दिमाग में क्या चल रहा था? या अर्जुन रणतुंगा 1996 में युद्ध से तबाह देश की आकांक्षाओं का बोझ लिए जब सोने गए तो उनकी मन:स्थिति क्या थी?  क्या अपने दस्ताने में स्क्वाश की बॉल रखने का ख्याल एडम गिलक्रिस्ट को 2007 में बारबाडोज में सोते समय आया था? ख्वाब अगर घोड़े होते तो क्या हम उन पर सवार होकर दूर क्षितिज पर डूबते सूरज तक ले जाते या वे हमें दुलत्ती मारकर दौड़ जाते?

क्रिकेट आज वैसा खेल नहीं रहा, जैसा किसी जमाने में हुआ करता था. इस तेजी से बदलती दुनिया में या दूसरे व्यवसायों की तुलना में यह कहीं तेजी से बदला है और इसने जान से ज्यादा जोर लगाने और धीरज खोने के जुनून का रूप ले लिया है. क्रिकेट अब हर जगह मौजूद रहता है. टेस्ट सीरीज छोटी हो गई हैं और उन्हें अधिक आसानी से भुला दिया जाता है.

एक दिन के मैच फॉर्मूले से चलते हैं और अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं. टी20 क्रिकेट में छक्कों की झड़ी को देख कर एक टीम की खेल शैली को दूसरी से और इस आइपीएल को पिछले सीजन से अलग कर पाना मुश्किल हो गया है. सितारे ब्रांड का रूप अख्तियार कर चुके हैं और ब्रांड बिकने के लिए होते हैं, ख्वाबों को संजोने के लिए नहीं.

इसीलिए हर चार साल में एक बार विश्व कप इतना अहम हो जाता है. इस मौके पर हम यादों के झरोखे में झांकने के लिए मजबूर हो जाते हैं. इस एक मौके पर अतीत की यादें आलस की प्रतीक नहीं रह जातीं और इतिहास के पन्नों की धूल झाड़ना लाजिमी हो जाता है. जैसे ही हमें याद दिलाया जाता है कि 1975 में इंग्लैंड की गर्मियों में क्या हुआ था, जब कैरिबियाई शेर शहंशाह हो गए थे, तो हम अपने आप भूले बिसरे युग का जश्न शुरू कर देते हैं. हम नहीं जानते कि उनके गेंदबाज कितने फर्राटेदार थे क्योंकि उस जमाने में गति नापने की स्पीड गन नहीं थी, लेकिन हमें अचानक उस डर की याद आ जाती है, जो वे जगाते थे और उनकी जो चमक थी.

वैसे तो दो शताब्दियों से खेले जा रहे क्रिकेट के खेल में विश्व कप की उम्र सिर्फ 40 साल है, लेकिन आज यह अतीत से हमारा सबसे मजबूत रिश्ता बन चुका है. इसके जरिए हम क्रिकेट के इतिहास का नक्शा आसानी से खींच सकते हैं. भारत में आत्मविश्वास का उदय, एलन बॉर्डर की ऑस्ट्रेलियाई टीम से प्रेरित पेशेवर अंदाज का युग, पाकिस्तानी खिलाडि़यों की दीवानी प्रतिभा, श्रीलंका के रणनीतिकारों की सटीक चालें, ऑस्ट्रेलिया के महान खिलाड़ियों का सटीक अंदाज और लंबे समय तक व्यक्तिगत शान की खुमारी में डूबे भारत की टीम का 2011 में एक बार फिर एकजुट खड़े हो जाना.

इस पत्रिका के अगले कुछ पन्नों में सभी विश्व कप चैंपियनों के महान खिलाड़ी आप को 40 साल के इस सफर पर ले जाएंगे, जिसमें क्रिकेट के सर्वोत्तम पलों के हाल के साथ-साथ सबसे बुरे समय में खेले गए कुछ लम्हों का लेखा-जोखा भी मिलेगा. दस लेखों में आप न सिर्फ  यह जानेंगे कि उन्होंने कैसे किया और क्या किया बल्कि यह भी समझेंगे कि हम क्या थे और अब किस राह पर जा रहे हैं.

हमें भले ही यकीनी तौर पर यह अंदाज न हो कि सपनों का संसार क्या है, लेकिन जिस किसी ने कभी भी एक न एक दिन विश्व कप जीतने के लिए अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने लायक खून-पसीना बहाया है वह यह ख्वाब देखने का हकदार है. अगर उसने एक बार यह कप जीता है तो कांटे की लड़ाई के इस दौर में जब अगली चुनौती अचानक आ खड़ी होती हो तो वह एक बार फिर इसे जीतने का सपना देखता है.

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