लद्दाख की त्सो कार घाटी में, जहां सूरज की गर्मी जमीन को चट्टानी रेगिस्तान में बदल देती है, भारत ने अपनी अंतरिक्ष महत्वाकांक्षाओं में एक नया कदम उठाया. यहां हिमालयन आउटपोस्ट फॉर प्लैनेटरी एक्सप्लोरेशन (HOPE) में भारत का पहला एनालॉग मिशन हुआ, जो चंद्रमा और मंगल की परिस्थितियों को नकल करता है. यह मिशन प्रोटोप्लैनेट नामक निजी अंतरिक्ष अनुसंधान कंपनी ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO), अमेरिका की मार्स सोसाइटी और महिंद्रा के सहयोग से चलाया.
त्सो कार घाटी: पृथ्वी पर मंगल जैसा माहौल
लद्दाख की त्सो कार घाटी पृथ्वी पर उन चुनिंदा जगहों में से एक है, जो प्राचीन मंगल ग्रह की परिस्थितियों से मिलती-जुलती है. 4,530 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह घाटी ठंडी, शुष्क और नमकीली मिट्टी वाली है. यहां तेज अल्ट्रावायलेट किरणें, कम वायुदाब और तापमान में उतार-चढ़ाव मंगल की तरह ही हैं. ऑक्सीजन की कमी और शुष्क जलवायु इसे अंतरिक्ष यात्रियों के लिए कठिन बनाती है. इसीलिए यह जगह मंगल मिशन के लिए उपकरण, जैविक प्रयोग और मानव अनुकूलन की जांच के लिए आदर्श है.
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होप: मंगल का नकली घर
होप दो गुंबदनुमा मॉड्यूल्स से बना है, जिनका नाम मंगल के दो चंद्रमाओं फोबोस और डिमोस के नाम पर रखा गया है. फोबोस 8 मीटर चौड़ा है, जबकि डिमोस 5 मीटर का है और 18 फीट ऊंचा है. ये गुंबद खास पॉलिमर और मजबूत फाइबरग्लास खिड़कियों से बने हैं, जो अंतरिक्ष जैसी परिस्थितियों में सुरक्षित रहते हैं.

डिमोस में एक एयरलॉक है, जो अंतरिक्ष यात्रियों के बाहर निकलने (EVA) के बाद दबाव को नियंत्रित करता है. इसमें एक बायोडाइजेस्टर भी है, जो मानव कचरे को 90% तक साफ कर पानी को खेती के लिए दोबारा इस्तेमाल करने योग्य बनाता है.
फोबोस में चालक दल रहता है, काम करता है. नमूने एकत्र करता है. इसमें तीन हिस्से हैं: सोने और काम करने की जगह, रसोई और EVA के लिए नमूने तैयार करने का क्षेत्र. बिजली के लिए सौर पैनल और बैटरी हैं. पानी की सख्त राशनिंग थी—10 दिनों के लिए 80 लीटर पीने का पानी और 2,500 लीटर रोजमर्रा के उपयोग के लिए. नहाना पूरी तरह बंद था और हाथ धोने जैसे काम भी समयबद्ध थे.
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पहले एनालॉग अंतरिक्ष यात्री
दो पीएचडी स्कॉलर राहुल मोगलापल्ली और यमन अकोट 150 से अधिक आवेदनों में से चुने गए. ISRO के मानकों के आधार पर साक्षात्कार, मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन और मेडिकल जांच के बाद उन्हें चुना गया. जुलाई 2025 के अंत में वे लद्दाख पहुंचे और एक हफ्ते तक वहां की ऊंचाई के अनुकूल ढलने के बाद 1 अगस्त को होप में दाखिल हुए. 10 दिन तक वे पूरी तरह अलग-थलग रहे. केवल 30 किलोमीटर दूर बेस टीम से सैटेलाइट के जरिए संपर्क में थे.

मिशन के दौरान, त्सो कार की कठिन मौसम परिस्थितियों ने उनकी परीक्षा ली. भारी बारिश और तापमान में उतार-चढ़ाव के बावजूद, 7वें, 8वें और 9वें दिन उन्होंने एक्स्ट्रा-व्हीकुलर एक्टिविटीज (EVA) कीं, जिसमें 500 मीटर के दायरे में क्वार्ट्ज चट्टानों के नमूने एकत्र किए.
उनकी डाइट में बेंगलुरु की एक कंपनी द्वारा बनाए गए फ्रीज-ड्रायड खाने थे, जैसे इडली और सांभर, जो यमन को खूब पसंद आए. मनोरंजन के लिए केवल प्री-डाउनलोडेड संगीत था. सोशल मीडिया पूरी तरह बंद था.
11 अगस्त को जब वे बाहर निकले, तो कैंपसाइट पर चाय मिली उन्हें अच्छा लगा. अब राहुल अमेरिका और यमन स्कॉटलैंड अपनी पीएचडी पूरी करने जाएंगे.
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मिशन का सपना: डॉ. सिद्धार्थ पांडे
इस मिशन का विचार डॉ. सिद्धार्थ पांडे का था, जो एक इंजीनियर हैं. NASA के साथ काम कर चुके हैं. लद्दाख की एक यात्रा के दौरान, वैज्ञानिकों के साथ, उन्होंने पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत करने वाले सूक्ष्मजीवों पर शोध करते हुए इस मिशन की कल्पना की.
2024 में उन्होंने प्रोटोप्लैनेट की स्थापना की, जिसका लक्ष्य विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को एकजुट कर एनालॉग मिशन चलाना है. ये मिशन यह समझने में मदद करते हैं कि चरम परिस्थितियां सूक्ष्मजीवों, मानव शरीर और दिमाग पर क्या असर डालती हैं.
डॉ. सिद्धार्थ ने कहा कि हमारा लक्ष्य न केवल अंतरिक्ष यात्रियों को तैयार करना है, बल्कि उन टीमों को भी प्रशिक्षित करना है जो अंतरिक्ष मिशनों के लिए मशीनें बनाती हैं. ISRO के ह्यूमन स्पेस फ्लाइट सेंटर ने इसे एक बड़ा अवसर माना और मिशन में शामिल हुआ.

क्यों जरूरी है यह मिशन?
यह एनालॉग-1 मिशन भारत के अंतरिक्ष सपनों के लिए महत्वपूर्ण है. भारत 2027 में गगनयान मिशन के जरिए अंतरिक्ष यात्रियों को भेजने और 2040 तक चंद्रमा पर उतरने की योजना बना रहा है. यह मिशन यह समझने में मदद करता है कि अलगाव, चरम परिस्थितियां और सीमित संसाधन मानव शरीर और दिमाग को कैसे प्रभावित करते हैं.
पालाश कुमार बसु, जो इस मिशन के लिए जेनेटिक और एपिजेनेटिक अध्ययन का नेतृत्व कर रहे हैं, ने बताया कि मिशन से पहले, दौरान और बाद में लिए गए खून, मूत्र और सांस के नमूने यह दिखाएंगे कि तनाव और पर्यावरण मानव जीन पर क्या असर डालते हैं. इन नतीजों से ISRO को मिशन प्रोटोकॉल बेहतर करने, नए प्रशिक्षण मॉड्यूल बनाने और गहरे अंतरिक्ष मिशनों की तैयारी में मदद मिलेगी.